Monday, April 27, 2009

यतीम

एक आंटी अंकल आये थे
आज बड़ी सी चमचमाती कार में,
वह बाते कर रहे थे दीदी से
कुछ कागजों पर लिखा पढी भी की
 सारा आश्रम देखा
बाद में पूछा था उसने,
तो दीदी ने बताया था,
छोटू को लेने आये है
छोटू को पूरा ग्लास दूध मिलेगा,
बिना पानी मिला ,
मलाई वाला.
और तीनों वक़्त का खाना भी,
नये कपड़े,खिलोने सब कुछ
उजले रंग का छोटा सा था छोटू ,
बस मुस्कुरा भर दिया था आंटी को देख ,
 वेसे रंग तो उसका भी दबा हुआ नही है
 मुस्कुराना छोडो
हंस भी सकता है वो तो
तभी जाकर
पास वाले बॅनबारी काका से
थोड़ा चूना माँग लाया था वो.
और मूँह पर उसे पोत,,
दाँत निकाल खड़ा हो गया था
उसी बोर्ड के नीचे.
दीदी ने बताया था
एक रात वहीं
कोई टोकरी में छोड़ गया था उसे.
शायद अंधेरे में
उसका रंग ओर मुस्कान
नज़र ना आए हों उन्हें
पर आज़ तो धूप है गहरी,
सब दीखेगा सॉफ सॉफ.
यक़ीनन आज़ उसकी बारी है.
नये मम्मी पापा मिलने क़ि……..

होरी खेलन चल दिए श्री मुसद्दी लाल


होरी खेलन चल दिए श्री मुसद्दी लाल
कुर्ता धोती श्वेत चका चक, भर जेब में अबीर गुलाल.
दबाये मूँह में पान, कि आज़ नही छोड़ेंगे
संतो भौजी को तो, आज़ रंग के ही लौटेंगे.
और फिर भोली छवि भौजी की, अंखियन में भर आई
बिन गुलाल लाल भए गाल, होटन पे मुस्की सी छाई.
आने लगी याद लड़कपन की वो होली,
वो टेसू के रंग वो हँसी ठिठोली
रसीली गुजिया का स्वाद जो आया जिव्हा पर,
पंख जेसे लग गए उनकी चाल ढाल पर.
तभी छपाक हुई आवाज़, उफ़ क्या आ लगा गालों पर
मूँह की गुलेरी निकल पड़ी बाहर, मुई एक डाड में फँस कर.
हाय मरा कह के मुसद्दी, वही सड़क पर पसर गये
हालत देख कोरे कुर्ते की, दो आँसू भी लुड़क गए.
तभी धर दबोचा भैया, पा मौका हुड़दंगी टोली ने
पकड़ा हाथ पैर से उनको, पटका तारकोल के डिब्बे में.
हाए ये क्या गत बनाई, काहे गये तुम घर से बाहर
देख दशा मुसद्दी लाल की, बीबी बोली कुछ झल्लाकर.
ये केसी होरी है भैया ,है ये केसा त्योहार
सोच रहे पड़े बिस्तर पर अब श्री मुसद्दी लाल…..

भीड़

कहने को तो ये भीड़ है
सड़कों पर कदम मिलते लोगों का रेला भर
पर इसी मैं छिपी है संपूर्ण जिंदगी
किसी के लिए चलती तो
किसी के लिए थमती
किसी के लिए आगाज़ भर
तो किसी को अंजाम तक पहुँचाती
इस रेले मैं आज़ किसी के पेरो को
लग गये हैं पंख कि
नौकरी का आज़ पहला दिन है
पर बोझिल हैं किसी के कदम
क़ि एक शिफारिशि खत की बदोलत
वो आज़ बे घर- बे दर है
नव उमंग से भरा कोई
इठलाता बलखाता है
कोई आँचल से पसीना पोंछ
बस यूँ ही चला जाता है
कोई योजना बना रहा है
आज़ के रोचक भोजन की
कोई चिंता मैं डूबा है कि
क्या नसीब होगी सुखी रोटी भी
कहने को तो ये भीड़ है
बस कुछ लोगों का रेला
पर इसी मैं शामिल है
जीवन के हर पहलू का मेला.

तेरे संग रहूंगी

मैं तो हरदम तेरे संग ही रहूंगी
कभी उतर कर तेरे ख़यालों में
बन कविता तेरे शब्दों में उकरूँगी
या फिर बन स्याही तेरी कलम की
तेरे कोरे काग़ज़ पर बिखरुंगी
यूँ ही हरदम तेरे संग रहूंगी
हो शामिल सूर्यकिरण में कभी
बन आभा तेरे चेहरे पर उभरूँगी
थक कर सुसताने बैठेगा  जब तू
बन पवन तेरे बालों में  फिरूंगी
जेसे भी हो बस तेरे संग रहूंगी.
 या बन जाऊंगी बरखा की बूँदें
और  तेरे सीने से जा लगूंगी
या बन तेरे कमरे के दिए की लो
जलूँगी  पर अपलक तुझे तकुंगी 
चाहे जो हो मैं तो तेरे संग रहूंगी
शरीर छूट जाना  है,
दुनिया छूट जानी  है
ये माटी की काया 
इस माटी में मिल जानी है
 ना कर सकी कुछ तो
बिखर तेरी राहों पे
मिट्टी बन तेरे पेरों से लिपटूँगी
पर जान ले हरदम तेरे संग रहूंगी.

स्वप्नफूल

खुशनुमा सी एक शाम को यूं ही बैठे,
मन पर पड़ी मैली चादर जो झाड़ी तो,
गिर पड़े कुछ मुरझाये वो स्वप्नफूल,
बरसों पहले दिल में दबा दिया था जिनको.
पर जैसे दिल में कहीं कोई सुराग था,
की हौले हौले सांस ले रहे थे सपने,
पा कर आज अंशभर ऊष्मा ली अंगडाई,
उमंग खिलने की फिर से जाग उठी थी उनमें,
मेरे वजूद के कन्धों को हिला हिला कर,
वो जगा रहे थे सोई अंतरआत्मा को,
हुई भोर चल उठ कर अब कोई जतन तू,
हो करुण कहने लगे यूं झकझोर कर वो,
थोड़े प्रयत्नजल से और सींच दे,
बस थोड़े आत्मबल की तू गुडाई कर,
डाल थोडी सी उम्मीद की सूर्यकिरण,
और देख बंद आशा के द्वार खोल कर,
लहरायेंगे बलखायेंगे तेरी आँखों में,
खिलकर सुगंध भरेंगे इस जहाँ में,
सुंदर सबल हो बढ चलेंगे यूं धरा से,
और पाएंगे स्थान प्रितिष्ठित आसमान में.

पलकें

समेटे हर लम्हा खुद में
हर ख्वाब का इन पर बसेरा है
झुकती हैं जब हौले से ये
शर्मो हया की वो बेला है
जो उठ जाएँ कुछ अदा से
मन भंवर ये बबला हो जाये
ये पलकें हैं प्यारी पलके
न बोले पर सब कह जाएँ
जो दो पल झपकें ये पलकें
तन मन सुकून यूं पा जाये
जो मिल जाये अपना सा कोई
खुद पर ही फिर उसे बिठाएं
जो गिरें तो हो जाये रात सनम
जो उठे तो सवेरा हो जाए
जो मिल जाएँ किसी से ये पलकें,
अनुराग ही पूरा हो जाये.

जा रहे हो कौन पथ पर...


काव्य का सिन्धु अनंत है
शब्द सीप तल में बहुत हैं।
चुनू मैं मोती गहरे उतर कर
ऊहापोह में ये कवि मन है।
देख मुझे यूँ ध्यान मगन
पूछे मुझसे मेरा अंतर्मन,
मग्न खुद में काव्य पथिक
तुम जा रहे हो कौन पथ पर
तलवार कर सके न जो पराक्रम
कवि सृजन यूँ सबल समर्थ हो
भटकों को लाये सत्य मार्ग पर
तेरी लेखनी में वो असर हो
कल्पना के रथ पर सवार कवि!
जा रहे हो कौन पथ पर।
भावनाओं से ह्रदय भरा है
उस पर धरा का ऋण चड़ा है
एक अमानुष बदल सके तो
समझो काव्य सृजन सफल है
रस ,छंद में उलझ कवि तुम
जा रहे हो कौन पथ पर….

ज़ब्ते ग़म


आँखों से गिरते अश्क को बूँद शबनम की कहे जाते हैं
जब्त ए ग़म की आदत है
हम यूँ ही जिए जाते हैं ।

गर न मिले सर रखने को शाना,बहाने का अश्क फिर क्या मजा।
रख हाथ गेरों के शाने पर, हम यूँ ही थिरकते जाते हैं
जब्त ए ग़म की आदत है, हम यूँ ही जिए जाते हैं।

होटों पे महबूब का नाम लिए,हो गए फ़ना कितने यहाँ
मगर
हम जहन में उनका नाम लिए, यूँ जी कर दिखलाते हैं
जब्त ए ग़म की आदत है
हम यूँ ही जिए जाते हैं 

तोहींन ऐ जज्बा है अगर, बयां कर उसे वो रो दिए
छिपा होटों की हंसीं में, इस कदर
हम जज्बे का गुमां बढाते हैं
जब्त ऐ ग़म की आदत है
हम यूँ ही जिए जाते हैं.

मेरी पनाह

तू समझे न समझे दीवानगी मेरी,
तेरे आगोश में मेरे मर्ज़ की दवा रक्खी है।

दिल आजकल कुछ भारी- भारी लगता है,
उसपर तेरी याद की परत जो चढ़ा रक्खी है।

आखों से लुढ़कते आँसू भी पी हम जाते हैं कि,
बह न जाये वो तस्वीर जो उनमें बसा रक्खी है।

नहीं धोया वर्षों से वो गुलाबी आँचल हमने,
उसमें तेरी साँसों की खुशबू जो समा रक्खी है।

अपने मंदिर में माला मैं चढाऊँ केसे?
ईश्वर की जगह तेरी मूरत जो लगा रक्खी है।

हम हथेलियाँ नहीं खोलते पूरी तरह से,
इनमें तेरे प्यार की लकीर जो छुपा रक्खी है।

कैसे छोड़ दूं मैं इस मिट्टी के शरीर को,
अपनी रूह से तेरी रूह जो मिला रक्खी है।

क्या हम आजाद हैं ?


दुनिया का एक सर्वोच्च गणराज्य है
उसके हम आजाद बाशिंदे हैं
पर क्या वाकई हम आजाद हैं?
रीति रिवाजों के नाम पर

कुरीतियों को ढोते हैं ,
धर्म ,आस्था की आड़ में

साम्प्रदायिकता के बीज बोते हैं।
कभी तोड़ते हैं मंदिर मस्जिद कभी
जातिवाद पर दंगे करते हैं।
क्योंकि हम आजाद हैं….
कन्या के पैदा होने पर जहाँ
माँ का मुहँ लटक जाता है
उसके विवाह की शुभ बेला पर
बूढा बाप बेचारा बिक जाता है
बेटा चाहे जेसा भी हो
घर हमारा आबाद है
हाँ हम आजाद हैं।
घर से निकलती है बेटी तो
दिल माँ का धड़कने लगता है
जब तक न लौटे काम से साजन
दिल प्रिया का बोझिल रहता है
अपने ही घर में हर तरफ़
भय की जंजीरों का जंजाल हैं
हाँ हम आजाद हैं।
संसद में बेठे कर्णधार
जूते चप्पल की वर्षा करते हैं।
और घर में बैठकर हम
देश की व्यवस्था पर चर्चा करते हैं
हमारी स्वतंत्रता का क्या ये कोई
अनोखा सा अंदाज है?
क्या हम आजाद हैं?……

आजकल के हालात


होली के सच्चे रंग नही अब
यहाँ खून की है बोछर
दीवाली पर फूल अनार नही
अब मानव बम की गूँजे आवाज़
ईद पर गले मिलते नही क्यों
गले काटते हैं अब लोग
क्रिसमस पर अब पेड़ नही
लाशों का ढेर सजाते हैं क्यों लोग
हो लोडी,ओडम या तीज़,बैशाखी
अब बजते हैं बस द्वेष राग
सस्ती राज़नीति मैं बिक गये
हमारे कीमती सब त्यौहार।
मेलों बाजारों की रौनकें अब
हो गईं खौफ से तार तार.
मुनियों के देश की बागडोर
आई जब स्वार्थी नेताओं के हाथ .

मैं तेरी परछाई हूँ


माँ!आज़ ज्यों ही मैं
तेरे गर्भ की गर्माहट में
निश्चिंत हो सोने लगी
मेने सुना
तू जो पापा से कह रही थी।
और मेरी मूंदी आँखें
भर आईं खारे पानी से।
क्यों माँ! क्यों नही तू चाहती
की मैं दुनिया में आऊँ ?
तेरे ममता मयी आँचल में
थोड़ा स्थान मैं भी पाऊँ ?
भैया को तेरी गोद में
मचलते खेलते देख कर
मेरा मन भी
तेरे पल्लू में दुबकने को करता है
जब वो चूमता है तुझे
अपने गीले होठों से
तुझे गले लगाने को
मेरा दिल भी मचलता है
मुझे भी तेरे आँगन में
छम छम करके चलना है
तेरे हाथों से निबाला खाना है
तेरी उंगलियों से संवारना है।
सच माँ!मेरी निश्चल मुस्कान से
तेरी उदासी के बादल छट जाएँगे
जब देखेगी पल पल बढ़ते मुझको
तुझे दिन बचपन के याद आएँगे
ना कर इन खुशियों से दूर मुझे
वादा है ना बिल्कुल सताऊँगी
जब तू चाहेगी तब रोऊँगी
जब चाहेगी तब सो जाऊं गी।
भैया के खिलोनो को भी मैं
ना हाथ तनिक लगाऊंगी
और डोली में चढ़ते वक़्त भी
ना रोऊंगी ना तुझे रुलाऊंगी।
बस आने दे दुनिया में मुझको
तेरी अपनी हूँ ,ना कोई पराई हूँ
कैसे कर पाएगी तू खुद से दूर
मैं तो तेरी ही परछाई हूँ.

उलझे धागे

धागे जिंदगी के कभी कभी
उलझ जाते हैं इस तरह
की चाह कर फिर उन्हें
सुलझा नही पाते हैं हम.
कोशिश खोलने की गाँठे
जितनी भी हम कर लें मगर

उतने ही उसमें बार बार
फिर उलझते जाते हैं हम.
धागों को ज़ोर से खीचते भी
कुछ भय सा लगने लगता है
वो धागे ही टूट ना जाएँ कहीं
यूँ दिल ये धड़कने लगता है.
अभी तो सिर्फ़ उलझे हैं धागे
उम्मीद है सुलझ जाएँगे कभी
जो टूट गये वो धागे तो फिर
क्या वो जुड़ पाएँगे कभी?.
अरमान था इन धागों में
पिरो दूँगी अपने मोती सारे
बना दूँगी एक माला जिसमें
होंगे बस प्रेम के मोती-धागे
आलम ना जाने हुआ क्या
नाज़ुक पड़ गये मेरे धागे
पड़ गईं गाँठे धागों में
और बिखर गये मोती सारे
अब एक छण भी एकांत का
ना मैं गवायाँ करती हूँ
कभी समेटती हूँ मोती
कभी गिरह सुलझाया करती हूँ
काश गूँथ जाए फिर मोती उसमें
ये आस मेरी ना रहे अधूरी
बस बन जाए मेरी ये माला
बुझने से पहले नयनो की ज्योति.

काली अँधेरी रात

काली अँधेरी रात से हो सकता है 
डर लगता हो तुमको 
मैं तो अब भी स्याह रात में 
तेरी याद का दिया जलाती हूँ।
ये दिन तो गुजर जाता है 
दुनिया के रस्मो रिवाजों में
रात के आगोश में अब भी, 
मैं गीत तेरे गुनगुनाती हूँ।
दिन के शोर शराबे में 
सुन नहीं सकता आहें मेरी
इसलिए रात के संन्नाटे में 
तुझे मैं पुकारा करती हूँ।
सूरज की सुर्ख तपिश में 
जो घाव दिए तुने मुझको
शीत रात्रि में आँखों के नम् पानी का 
मलहम उनपर लगाती हूँ।
ऐसी ही एक रात में हाथ पकड़, 
फिर मिलने का वादा किया था तुने
उसी आस के सपने इन पलकों पर ,
हर अकेली रात मैं सजाती हूँ।
उजाले मैं देख नहीं सकती  
जो तस्वीर तेरी इन आँखों से
रात के घुप्प अँधेरे मैं उसे 
इन उँगलियों से पड़ जाती हूँ।
जीने को जिन्दगी अपनी ,
करते हों इंतज़ार लोग सुबह का
में तो अँधेरी काली रातों में 
अपना जीवन जी जाती हूँ.

NRI

सुबह की चाय की प्याली और
रफ़ी के बजते गीतों के साथ
एक हुड़क आज़ भी
दिल में हिलकोरे सी लेती है
दिल करता है छोड़ छाड़ कर
ये बेगाना देश और ये लोग
ऊड जाएँ इसी पल
थाम कर अपनो के प्रेम की कोई डोर।
मन पंछी उड़ान भर रहा था
उसके अपने ख़यालों में कि
हक़ीक़त ने ली अंगड़ाई
और ला पटका उसे धरातल पे।
लगा सोचने अपनी धरती
अपने लोग और रीत रिवाज़
क्या अब दे पाएँगे उसको
जीवन के ये सुख सारे
क्या विदेश में पले बच्चों को
वो वहाँ स्थापित कर पाएँगे
जहाँ उनके उच्चारण पर साथी उनके
अंग्रेज का बच्चा कह चिढ़ाएँगे
यहाँ रंगभेद की नीति झेली तो
वहाँ जातिवाद का शिकार हो जाएँगे
उखाड़ कारोबार की जड़ें यहाँ से
क्या वहाँ फिर रोप पाएंगे
उस बहन के सपनो का क्या
जो सजे हैं विदेशी दहेज की आस से
और घरवालों की महेंगी ख्वाईशें
वे वहाँ कैसे पूरी कर पाएँगे
इतने दिलो को तोड़ कर
क्या वे अपना दिली सुकून पा पाएँगे?
इसी कशमकश में बीती रैना
भोर हुई तो विचार यूँ झटके सारे।
सोचा कर ज़िमेदारियों को पूरा
बुढ़ापे में वतन चले जाएँगे
जिस धरती पर जनम लिया था
उसी मिट्टी में गर्क तो हो पाएँगे.

एक क़तरा आसमान

कुछ थे रंगबिरंगे सपने,
कुछ मासूम से थे अरमान
कुछ खवाबों ने ली अंगड़ाई
कुछ थीं अनोखी सी दास्तान
फिर चले जगाने इस संमाज को
मिले हाथ से कुछ और हाथ
बढ़ चले कदम कुछ यूँ
पाने को अपने हिस्से का
एक कतरा आसमान……
तपती धूप में नीमछांव सा,
निर्जन वन में प्रीत गान सा
स्वाती नक्षत्र की एक बूँद के जैसा
आज़ हमारी मुठ्ठी में है
ये एक कतरा आसमान का……

मेरा देश महान.


ये कैसा महान देश है मेरा….
कल के कर्णधार ही जहाँ
भूखे नंगे फिरते हैं
भावी सूत्रधार जहाँ
ढाबे पर बर्तन घिसते हैं
सृजन करने वाली माँ का
जहाँ आँचल सूखा रहता है
और सृजन का भागीदार
 नशे में डूबा रहता है
ये कैसा महान देश है मेरा….
देश चलाने वाले ही
जब देश को बेचा करते हैं
और रखवाले धरती के ही
आबरू माँ बहन की लूटा करते हैं
सभ्यता संस्कृति की आड़ में
ये छवि देश की धूमिल करते हैं
ऐसा महान देश है मेरा…
पथप्रदर्शक बन नई पीढ़ी के
ये नेता बस वोटों की राज़नीति करते हैं
ओर ग़रीबी के गर्म तवे पर
स्वार्थ की रोटी सेका करते हैं
हर उत्कर्ष प्रतिभा यहाँ पर
बिना रिश्वत अधूरी होती है
ओर ८०% जनसंख्या आज़ भी
खाली पेट ही सोती है
ऐसा भारत महान है मेरा…..
अपने ही देश में रहकर वो
उसकी जड़े खोखली करते हैं
फिर चढ़ कर मंच पर श्वेत वस्त्र में
मेरा भारत महान का नारा
बुलंद स्वर में गढ़ते हैं
ऐसा महान देश है मेरा?

तुझ पर मैं क्या लिखूं माँ

तुम पर मैं क्या लिखूं माँ,
तेरी तुलना के लिए
हर शब्द अधूरा लगता है
तेरी ममता के आगे
आसमां भी छोटा लगता है
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ.



याद है तुम्हें?
मेरी हर जिद्द को
बस आख़िरी कह
पापा से मनवा लेती थी तुम.
मेरी हर नासमझी को
बच्ची है कह
टाल दिया करती थीं तुम.
तुम्हारा वह कठिन श्रम 

तब मुझे समझ आता था कहाँ 
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ .

हाँ याद अब आता है मुझको
जब रोज सवेरे ईश्वर के सक्षम
कुछ बुदबुदाया करती थीं तुम
हम वैसा ही मुँह बना जब
हंसते थे जोर से नक़ल कर
झूट मूठ के गुस्से में तब
थप्पड़ दिखाया करती थीं तुम।
होटों पर थिरकते उन शब्दों का अर्थ
आज मैं समझ पाई हूं
क्योंकि अब हर सवेरे वही शब्द मैं भी
अपनी बेटी के लिए दोहराती हूँ
बच्चों की खातिर अपनी 
कर सकता कौन निसार जाँ
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ. 

साहस असीम भरा है तुझमे
धैर्य की तू मूरत है
ममता से फैला ये आँचल
जग समेटने में सक्षम है
तुझ से प्यारा,तुझसा महान
कोई बंधन होगा क्या यहाँ?
तुम पर मैं क्या लिखूं माँ…

एहसास का असर

अहसास तेरी मासूम निगाहों का
मेरी सर्द निगाहों से इस कदर मिला
कि  सारी क़ायनात पीछे छोड़ कर
मैं तेरी नज़रों मे मशगूल हो गया।
तेरे दिल के सॉफ आईने मे
देखा जो तसव्वुर अपना मैने
सारे जमाने की मोहब्बत का
हसीन अहसास अधूरा हो गया।
सुनी जो धीमी-धीमी रुनझुन
तेरे पावं मे खनकती पायल की
मंदिर में बजती हुई घंटी का
पावन अहसास निरर्थक हो गया

पूरब पश्चिम

कहीं सुनहरी बदन सेकती,
कहीं किसी का बदन जलाती
चिलचिलाती धुप
कहीं रुपसी करती है डाइटिंग
कहीं जान से मारती है भूख.
कहीं फ़ैशन है कम कपड़ों का ,
कहीं एक ओड़नी को तरसता योवन
कहीं  बर्गर ,कोक में डूबा कोई,
कहीं कूड़े में वाड़ा पाँव ढूँढता बचपन.
वही है धरती अंबर वही है,
वही है सूरज, चाँद और तारे मगर.
किसी के लिए महकता आता है नया सवेरा,
किसी के लिए नया संघर्ष है हर नया दिन.
वही दिशाएं हैं वही हवाएं हैं
भगवान और इंसान का रिश्ता भी है एक.
फिर पूरब पश्चिम का क्यों है फ़र्क
एक कड़वा और निरीह सच.

नारी

बंद खिड़की के पीछे खड़ी वो,
सोच रही थी की खोले पाट खिड़की के,
आने दे ताज़ा हवा के झोंके को,
छूने दे अपना तन सुनहरी धूप को.
उसे भी हक़ है इस
आसमान की ऊँचाइयों को नापने का,
खुली राहों में अपने ,
अस्तित्व की राह तलाशने का,
वो भी कर सकती है
अपने, माँ -बाप के अरमानो को पूरा,
वो भी पा सकती है वो मकाम,
जो पा सकता है हर कोई दूजा.
और फिर ये सोच हावी होने लगी
उसके पावन ह्रदय स्थल पर.
मन की उमंग ने ली अंगड़ाई,
और सपने छाने लगे मानस पटल पर,
क़दम उठाया जो बढाने को तो,
किसी अपने के ही प्रेम की बेड़ियाँ पाओं में पड़ी थीं,
कोशिश की बाँहें फैलाने की तो,
वो कर्तव्यों के बोझ तले दवी थीं.
दिल – ओ दिमाग़ में मची थी हलचल,
ओर वो खड़ी थी बेबस लाचार सी,
ह्रदय के सागर में अरमान कर रहे थे कलकल,
और वो कोशिश कर रही थी
अपने वजूद को बचाने की.
तभी अचानक पीछे से आई बाल रुदन की आवाज़ से,
उसके अंतर्मन का द्वन्द शांत होने लगा,
दीवार पर लगी घड़ी शाम के सात बजा रही थी,
ओर उसके ह्रदय का तूफ़ान धीरे से थमने लगा.
सपने ,महत्वाकांक्षा ,और अस्तित्व की जगह,
बालक के दूध की बोतल हावी होने लगी विचारों पर,
पति के लिए नाश्ता अभी तक नही बना,
और रात का खाना हो गया हावी, उसके मनोभावों पर.
और वो जगत की जननी,ममतामयी रचना ईश्वर की,
भूल गई सब ओर बढ चली वहीं जहाँ से आई थी,
मैत्रेई और गार्गी के इस देश की
वो करुण वत्सला नारी थी.

पापा तुम लौट आओ ना

पापा तुम लौट आओ ना,
तुम बिन सूनी मेरी दुनिया,
तुम बिन सूना हर मंज़र,
तुम बिन सूना घर का आँगन,
तुम बिन तन्हा हर बंधन.
 पापा तुम लौट आओ ना

याद है मुझे वो दिन,वो लम्हे ,
जब मेरी पहली पूरी फूली थी,
और तुमने गद-गद हो
100 का नोट थमाया था.
और वो-जब पाठशाला से मैं
पहला इनाम लाई थी,
तुमने सब को
घूम -घूम दिखलाया था.
अपने सपनो के सुनहरे पंख ,
 फिर से मुझे लगाओ ना.
पापा तुम लौट आओ ना.

इस ज़हन में अब तक हैं ताज़ा
तुम्हारे दोरे से लौटने के वो दिन,
जब रात भर हम
अधखुली अंखियों से सोया करते थे,
 हर गाड़ी की आवाज़ पर
खिड़की से झाँका करते थे.
घर में घुसते ही तुम्हारा
सूटकेस खुल जाता था,
 हमें तो जैसे अलादीन का
 चिराग़ ही मिल जाता था.
 वो अपने ख़ज़ाने का पिटारा
फिर से ले आओ ना.
पापा बस एक बार लौट आओ ना.

आज़ मेरी आँखों में भरी बूँदें,
तुम्हारी सुद्रण हथेली पर
गिरने को मचलती हैं,
आज़ मेरी मंज़िल की खोई राहें ,
तुम्हारे उंगली के इशारे को तरसती हैं,
अपनी तक़रीर अपना फ़लसफ़ा
फिर से एक बार सुनाओ ना,
 बस एक बार पापा! लौट आओ ना.

लौट आ

हर सुबह आती है जैसे ,
रात के जाने के बाद.
याद उनकी आती है,
उनके खो जाने के बाद.
ज़िंदगी की राह में,
अक्सर ही ऐसा होता है,
 गुनगुनाते हैं हम नगमे,
 शब्द खो जाने के बाद.
लेके ज़हन में घूमते हैं,
तस्वीर किसी की यूँ सदा,
कि  देख ना पाएँगे उन्हें हम,
आँख नम होने के बाद.
आधी-अधूरी सी शक्सियत ,
आधे अधूरे से ये पल,
थम गई हो जैसे ज़िंदगी,
उनके चले जाने के बाद.
हो सके तो लौट आ,
या एहसास दिला होने का तू,
बस जाएगा सुना मेरा जहाँ ,
तेरे यूँ लौट आने के बाद……..

मेरा जहाँ

कौन कहता है दर पे उसके, देर है- अंधेर नही,
मुझे तो रोशनी की एक, झलक भी नही दिखती.
मिलना हो तो मिलता है,
ख़ुशियों का अथाह समुंदर भी,
पर चाहो जब तो उसकी,
एक छोटी सी लहर भी नही दिखती.
हज़ारों रंग के फूल हैं,
दुनिया के बगानों में,
मगर मेरे तो नन्हें दिल की
एक कली भी नही खिलती.
गुज़र गया वो वक़्त,
जब हिम्मत थी जहाँ को चलाने की,
अब तो मुझसे मेरे वक़्त की,
सुई भी नही हिलती.
कहाँ है वो जुनून,वो तमन्ना,
वो ख्वाईशें, वो जज़्बे?
कहीं इन जज़्बातों की ,
झलक भी नही दिखती.
सोचा था हम दिखाएँगे,
मोहब्बत से जीत कर जग को,
अब तो मुझे मेरी मंज़िल की ,
राह भी नही दिखती.
ओर किससे करें गिला,
समझाएं राहे वफ़ा किसको,
हमदम के दिल में ही जब
मोहब्बते वफ़ा नही दिखती.
चाहा हमने -जिसे जीजान से,
माना अपना खुदा जिसको,
उसके तो दिल के आईने में,
मेरी तस्वीर ही नही दिखती

काश .......

काश तुम -तुम ना होते,
काश हम – हम ना होते.
जब ये ठंडी हवा ,
गालों को छूकर
बालों को उड़ा जाती,
जब मुलायम ओस पर
सुनहरी धूप पड़ जाती
काश उस गीली ओस पर
तब हम,
तुम्हारा हाथ थामे चल पाते.
जब कोई अश्क चुपके से,
इन आँखों से लुढ़कने लगता,
ये दिल किसी की याद में
चुपके से सुबकने लगता,
काश तब तुम्हारे मज़बूत कंधों पर,
हम सर रखकर रो पाते.
चलते चलते अचानक,
ये पाओं किसी काँटे पर पड़ जाते,
दिल के कुछ घाव यूँ फिर
ख़ून बन रिस जाते,
काश तब तुम अपने होटों से छूकर
वो दर्द मेरा मिटा जाते.
जब ये झिलमीलाते तारे अपने,
चाँद से मिलने आ जाते,
ओर ये चाँद अपनी रात के
आगोश में समा जाता,
 तब तुम होले से मेरे कान मैं,
शॅब्बा-खेर गुनगुना जाते.
काश हम- हम ना होते,
तुम-तुम ना होते……..

Sunday, April 26, 2009

जीवन सार

कभी देखो इन बादलों को!
जब काले होकर आँसुओं से भर जाते हैं,
तो बरस कर इस धरा को धो जाते हैं.
कभी देखो इन पेड़ों को,
 पतझड़ के बाद भी,
फिर फल फूल से लद जाते हैं,
ओर भूखों की भूख मिटाते हैं.
कभी देखो इन नदियों को,
पर्वत से गिरकर भी,
चलती रहती है,
अपना अस्तित्व खोकर भी
सागर से मिल जाती है.
 फिर क्यों हम इंसान ही ,
 दुखों से टूट जाते हैं,
एक गम का साया पड़ा नही की,
मोम बन पिघल जाते हैं.
क्यों हम नही समझते
इन प्रकृति के इशारों को,
हर हाल में चलने के इस ,
जीवन के मनोभावों को.
कभी इस बादल की तरह,
अपने आँसुओं से ,
किसी के पाओं धो कर देखो!
कभी इन पेड़ों की तरह,
अपने दुख के बोझ को,
किसी के सुख में बदल कर देखो.
इस नदियों की तरह,
 किसी की पूर्णता के लिए,
ख़ुद को मिटा कर देखो.
कायनात ही
इंसान के सुख-दुःख का आधार है
 इस प्रकृति के इशारों में ही ,
जीवन का सार है.

हसरत. ...

हसरतों के चरखे पर,
धागे ख़्वाबों के बुनते रहे
यूँ ही हम गिरते रहे ,
यूँ ही हम चलते रहे. पहले क़दम पर फ़ासला था,
कई कोसों दूर का,
फिर भी हम हँसते हुए
सीड़ी दर सीड़ी चड़ते रहे. ना जाने क्या खोया,
जाने पाया क्या दोर’ए सफ़र
फूल कांटें राह के,
हालाँकि हम चुनते रहे. फूल तो मुरझा गए,
भर गए काँटों के घाव भी
पर पदचापों की एक धीमी सी,
आवाज़ हम सुनते रहे. एहसासे मक़सद होता रहा,
यूँ तो हमेशा ही तलब,
पहुँचने की उस तक मगर,
राह हम तकते रहे. यूँ तो बहुत क़रीब लगती है,
वो गुमाने मंज़िल मेरी,
चाह जिसकी हम ,
एक अर्से से करते रहे. पर क्या हासिल होगा वो ,
जिसका गुमान किया था कभी.
लगता तो यूँ है की, हम बस
ज़ाया वक़्त करते रहे

अगर यूँ हुआ होता

ख्वाइशों की कश्ती में
अरमानो की पतवार लिए
जब हम निकले थे
सपनो के समंदर में,
तो सोचा न था
वहाँ तूफ़ान भी आते हैं .
कल्पना के पंख लगाये
जब ये मन उड़ रहा था
खुले आसमान में ,
तो ये मालूम न था
कि वहाँ काले बादल भी छाते हैं…
इस दिल के बगीचे में
कुछ कोमल खुशबू लिए
ये सुकुमार कली जब खिली थी,
तो उसने जाना न था कि,
मौसम पतझड़ के भी आते हैं.
उस कश्ती को
तूफां में टिके रहने का सबब लेना था,
उस मन के पंछी को
उड़ान भरने से पहले
घंरौंदा बना लेना था.
उस कली को भी अगर
अहसास ए कुदरत रहा होता,
तो ना डूबती कश्ती
साहिल पर आने से पहले,
ना गिरता पंछी
मंजिल तक जाने से पहले,
उस कली को भी खिलने से पहले
न खिज़ा खा गई होती,
और न अश्क टपक रहा होता
मेरी इस कलम से.

ख्वाइश .

क्या चाहा था, बहुत कुछ तो चाहा ना था
क्या माँगा था खुदा से, बहुत कुछ तो माँगा ना था.
जो मिला ख़ुशनसीबी थी पर थी, गम के आँचल से लिपटी,
लगा बिन मांगे मोती मिला, पर था नक़ली वो मालूम ना था.
हर सुख मिला पर था आँसुओं की आड़ में,
हर फूल मिला पर था काटों के साथ में,
पर जो चाहा था तहे दिल से,
इस जहाँ का वो दस्तूर ना था,
एक छोटा सा सपना इस ख़ुददार दिल का ,
बस हक़ीक़त को मंज़ूर ना था.
आज़ बहुत तन्हा महसूस करते हैं ,
ख़ुदगरज़ों की इस भीड़ में ख़ुद को,
बहुत बेबस पाते हैं हम, रिश्तों के बाज़ार में ख़ुद को,
इस भीड़ से दूर एक कोने की थी आरज़ू,
कोई जहाँ तो चाहा ना था,
बाज़ार से दूर एक घर की थी तमन्ना,
कोई बुलंद क़िला तो माँगा ना था.
सह लेते हर दुख तकलीफ़ हम,
जो मिलता वो एक दिले सुकून,
पलकों पे बैठाते उनको,
जो देते वो एक नॅन्हा सा सुख,
छोटी सी जज़्बे की किरण माँगी थी,
कोई सितारा तो माँगा ना था,एek
एक इंसान की थी आरज़ू ,
किसी खुदा को तो पुकारा ना था.

तमन्ना

ओरों की पूरी होते देख तमन्ना,
हमने भी एक तमन्ना कर ली.
ना जाने कितने ख्वाब देख डाले एक ही रात में,
की ख्वाब देखने से ही हमने नफ़रत कर ली.
खुशनसीब होते हों दुनिया के तम्न्नाई,
हमने तो तमन्ना कर के ज़िंदगी बदल कर ली.
जहाँ मैं सभी को हक़ है तमन्ना करने का,
इस खुशफहमी ने भी आज़ हमसे रुख़्सत कर ली.
एक ही तमन्ना कर के हम पछताने लगे,
ना जाने लोगों ने इतनी तमन्ना कैसे कर ली.
बहुत सोचा की इसकी वजह क्या है?
क्यों हमने ना पूरी होने वाली तमन्ना कर ली?
आख़िर ये सोच कर की हर किसी की तमन्ना पूरी नही होती,
हमने तो आज़ तमन्ना करने से तोबा कर ली…

सच्चा ख्वाब

आज़ तो लगता है जैसे जहाँ मिल गया,
ये ज़मीन मिल गई आसमान मिल गया.
हों किसी के लिए ,ना हों मायने इसके,
मुझे तो मेरा बस एक मुकाम मिल गया.
एक ख्वाब थी ये मंज़िल ,जब राह पर चले थे,
एक आस थी ये ख्वाइश जब ,मोड़ पर मुड़े थे,
धीरे-धीरे ये एक मुश्किल इम्तहान हो गया,
पर आज़ ये हथेली पर आया पूरा चाँद हो गया.
हम कर गुज़रे जो हमारे बस में था,
वो जो बरसों से इस दिल में ,इस जिगर में था,
सपना सुहाना वो साकार हो गया,
और सारा ज़माना यूँ गुलज़ार हो गया.

कसूर

फिर वही धुँधली राहें,
फिर वही तारीक़ चौराहा.
जहाँ से चले थे
एक मुकाम की तलाश में,
एक मंज़िल के
एक ख्वाब के गुमान में
पर घूम कर सारी गलियाँ
आज़,
फिर हैं मेरे सामने-
 वही गुमनाम राहें ,
वही अनजान चौराहा.
तय कर गये एक लंबा सफ़र,
हल कर गये राह की
सब मुश्किलातों को,
पर आज़ खड़े हैं फिर
उसी मोड़ पर,
हो जेसे पूरा सफ़र नागवारा.
जितनी कोशिश करते हैं समझने की,
उतनी ही अजनबी हो जाती है ये दुनिया,
 मालिक ने तो दिया
बस एक चेहरा आदमी को,
उपर कई चेहरे लगा लेता है ये ज़माना.
प्यार के बदले दुतकार मिलती है,
वफ़ा के बदले इल्ज़ाम मिलता है,
शांति की तमन्ना में तकरार का सबब है,
ओर इसी को ज़िंदगी कहता है ये ज़माना.
क्यों हम ही नही समझ पाए आख़िर,
दुनियादारी-जो हर कोई जनता है,
हम ही क्यों बेबस हो जाते हैं अक्सर,
शायद शराफ़त ही है हमारा कुसूर सारा

कौन

क्यों घिर जाता है आदमी,
अनचाहे- अनजाने से घेरों में,
क्यों नही चाह कर भी निकल पाता ,
इन झमेलों से ?
क्यों नही होता आगाज़ किसी अंजाम का
,क्यों हर अंजाम के लिए नहीं होता तैयार पहले से?
ख़ुद से ही शायद दूर होता है हर कोई यहाँ,
इसलिए आईने में ख़ुद को पहचानना चाहता है,
पर जो दिखाता है आईना वो तो सच नहीं,
तो क्या नक़ाब ही लगे होते हैं हर चेहरे पे?
यूँ तो हर कोई छेड़ देता है तरन्नुम ए ज़िंदगी,
पर सही राग बजा पाते हैं कितने लोग?
और कौन पहचान पाता है उसके स्वरों को?
पर दावा करते हैं जैसे रग -रग पहचानते हैं वे,
ये दावा भी एक मुश्किल सा हुनर है,
सीख लिया तो आसान सी हो जाती है ज़िंदगी,
जो ना सीख पाए तो आलम क्या हो?
शायद अपने और बस अपने में ही सिमट जाते हैं वे
और भी ना जाने कितने मुश्किल से सवाल हैं ज़हन में,
जिनका जबाब चाह भी ना ढूँड पाए हम,
शायद यूँ ही कभी मिल जाएँ अपने आप ही,
रहे सलामत तो पलकें बिछाएँगे उस मोड़ पे…