Monday, April 27, 2009

NRI

सुबह की चाय की प्याली और
रफ़ी के बजते गीतों के साथ
एक हुड़क आज़ भी
दिल में हिलकोरे सी लेती है
दिल करता है छोड़ छाड़ कर
ये बेगाना देश और ये लोग
ऊड जाएँ इसी पल
थाम कर अपनो के प्रेम की कोई डोर।
मन पंछी उड़ान भर रहा था
उसके अपने ख़यालों में कि
हक़ीक़त ने ली अंगड़ाई
और ला पटका उसे धरातल पे।
लगा सोचने अपनी धरती
अपने लोग और रीत रिवाज़
क्या अब दे पाएँगे उसको
जीवन के ये सुख सारे
क्या विदेश में पले बच्चों को
वो वहाँ स्थापित कर पाएँगे
जहाँ उनके उच्चारण पर साथी उनके
अंग्रेज का बच्चा कह चिढ़ाएँगे
यहाँ रंगभेद की नीति झेली तो
वहाँ जातिवाद का शिकार हो जाएँगे
उखाड़ कारोबार की जड़ें यहाँ से
क्या वहाँ फिर रोप पाएंगे
उस बहन के सपनो का क्या
जो सजे हैं विदेशी दहेज की आस से
और घरवालों की महेंगी ख्वाईशें
वे वहाँ कैसे पूरी कर पाएँगे
इतने दिलो को तोड़ कर
क्या वे अपना दिली सुकून पा पाएँगे?
इसी कशमकश में बीती रैना
भोर हुई तो विचार यूँ झटके सारे।
सोचा कर ज़िमेदारियों को पूरा
बुढ़ापे में वतन चले जाएँगे
जिस धरती पर जनम लिया था
उसी मिट्टी में गर्क तो हो पाएँगे.

No comments:

Post a Comment