काली अँधेरी रात से हो सकता है
डर लगता हो तुमको
मैं तो अब भी स्याह रात में
तेरी याद का दिया जलाती हूँ।
ये दिन तो गुजर जाता है
दुनिया के रस्मो रिवाजों में
रात के आगोश में अब भी,
मैं गीत तेरे गुनगुनाती हूँ।
दिन के शोर शराबे में
सुन नहीं सकता आहें मेरी
इसलिए रात के संन्नाटे में
तुझे मैं पुकारा करती हूँ।
सूरज की सुर्ख तपिश में
जो घाव दिए तुने मुझको
शीत रात्रि में आँखों के नम् पानी का
मलहम उनपर लगाती हूँ।
ऐसी ही एक रात में हाथ पकड़,
फिर मिलने का वादा किया था तुने
उसी आस के सपने इन पलकों पर ,
हर अकेली रात मैं सजाती हूँ।
उजाले मैं देख नहीं सकती
जो तस्वीर तेरी इन आँखों से
रात के घुप्प अँधेरे मैं उसे
इन उँगलियों से पड़ जाती हूँ।
जीने को जिन्दगी अपनी ,
करते हों इंतज़ार लोग सुबह का
में तो अँधेरी काली रातों में
अपना जीवन जी जाती हूँ.
No comments:
Post a Comment