Sunday, April 26, 2009

अगर यूँ हुआ होता

ख्वाइशों की कश्ती में
अरमानो की पतवार लिए
जब हम निकले थे
सपनो के समंदर में,
तो सोचा न था
वहाँ तूफ़ान भी आते हैं .
कल्पना के पंख लगाये
जब ये मन उड़ रहा था
खुले आसमान में ,
तो ये मालूम न था
कि वहाँ काले बादल भी छाते हैं…
इस दिल के बगीचे में
कुछ कोमल खुशबू लिए
ये सुकुमार कली जब खिली थी,
तो उसने जाना न था कि,
मौसम पतझड़ के भी आते हैं.
उस कश्ती को
तूफां में टिके रहने का सबब लेना था,
उस मन के पंछी को
उड़ान भरने से पहले
घंरौंदा बना लेना था.
उस कली को भी अगर
अहसास ए कुदरत रहा होता,
तो ना डूबती कश्ती
साहिल पर आने से पहले,
ना गिरता पंछी
मंजिल तक जाने से पहले,
उस कली को भी खिलने से पहले
न खिज़ा खा गई होती,
और न अश्क टपक रहा होता
मेरी इस कलम से.

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