Sunday, April 26, 2009

हसरत. ...

हसरतों के चरखे पर,
धागे ख़्वाबों के बुनते रहे
यूँ ही हम गिरते रहे ,
यूँ ही हम चलते रहे. पहले क़दम पर फ़ासला था,
कई कोसों दूर का,
फिर भी हम हँसते हुए
सीड़ी दर सीड़ी चड़ते रहे. ना जाने क्या खोया,
जाने पाया क्या दोर’ए सफ़र
फूल कांटें राह के,
हालाँकि हम चुनते रहे. फूल तो मुरझा गए,
भर गए काँटों के घाव भी
पर पदचापों की एक धीमी सी,
आवाज़ हम सुनते रहे. एहसासे मक़सद होता रहा,
यूँ तो हमेशा ही तलब,
पहुँचने की उस तक मगर,
राह हम तकते रहे. यूँ तो बहुत क़रीब लगती है,
वो गुमाने मंज़िल मेरी,
चाह जिसकी हम ,
एक अर्से से करते रहे. पर क्या हासिल होगा वो ,
जिसका गुमान किया था कभी.
लगता तो यूँ है की, हम बस
ज़ाया वक़्त करते रहे

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