Monday, April 27, 2009

उलझे धागे

धागे जिंदगी के कभी कभी
उलझ जाते हैं इस तरह
की चाह कर फिर उन्हें
सुलझा नही पाते हैं हम.
कोशिश खोलने की गाँठे
जितनी भी हम कर लें मगर

उतने ही उसमें बार बार
फिर उलझते जाते हैं हम.
धागों को ज़ोर से खीचते भी
कुछ भय सा लगने लगता है
वो धागे ही टूट ना जाएँ कहीं
यूँ दिल ये धड़कने लगता है.
अभी तो सिर्फ़ उलझे हैं धागे
उम्मीद है सुलझ जाएँगे कभी
जो टूट गये वो धागे तो फिर
क्या वो जुड़ पाएँगे कभी?.
अरमान था इन धागों में
पिरो दूँगी अपने मोती सारे
बना दूँगी एक माला जिसमें
होंगे बस प्रेम के मोती-धागे
आलम ना जाने हुआ क्या
नाज़ुक पड़ गये मेरे धागे
पड़ गईं गाँठे धागों में
और बिखर गये मोती सारे
अब एक छण भी एकांत का
ना मैं गवायाँ करती हूँ
कभी समेटती हूँ मोती
कभी गिरह सुलझाया करती हूँ
काश गूँथ जाए फिर मोती उसमें
ये आस मेरी ना रहे अधूरी
बस बन जाए मेरी ये माला
बुझने से पहले नयनो की ज्योति.

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