खुशनुमा सी एक शाम को यूं ही बैठे,
मन पर पड़ी मैली चादर जो झाड़ी तो,
गिर पड़े कुछ मुरझाये वो स्वप्नफूल,
बरसों पहले दिल में दबा दिया था जिनको.
पर जैसे दिल में कहीं कोई सुराग था,
की हौले हौले सांस ले रहे थे सपने,
पा कर आज अंशभर ऊष्मा ली अंगडाई,
उमंग खिलने की फिर से जाग उठी थी उनमें,
मेरे वजूद के कन्धों को हिला हिला कर,
वो जगा रहे थे सोई अंतरआत्मा को,
हुई भोर चल उठ कर अब कोई जतन तू,
हो करुण कहने लगे यूं झकझोर कर वो,
थोड़े प्रयत्नजल से और सींच दे,
बस थोड़े आत्मबल की तू गुडाई कर,
डाल थोडी सी उम्मीद की सूर्यकिरण,
और देख बंद आशा के द्वार खोल कर,
लहरायेंगे बलखायेंगे तेरी आँखों में,
खिलकर सुगंध भरेंगे इस जहाँ में,
सुंदर सबल हो बढ चलेंगे यूं धरा से,
और पाएंगे स्थान प्रितिष्ठित आसमान में.
Monday, April 27, 2009
स्वप्नफूल
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