Monday, April 27, 2009

ज़ब्ते ग़म


आँखों से गिरते अश्क को बूँद शबनम की कहे जाते हैं
जब्त ए ग़म की आदत है
हम यूँ ही जिए जाते हैं ।

गर न मिले सर रखने को शाना,बहाने का अश्क फिर क्या मजा।
रख हाथ गेरों के शाने पर, हम यूँ ही थिरकते जाते हैं
जब्त ए ग़म की आदत है, हम यूँ ही जिए जाते हैं।

होटों पे महबूब का नाम लिए,हो गए फ़ना कितने यहाँ
मगर
हम जहन में उनका नाम लिए, यूँ जी कर दिखलाते हैं
जब्त ए ग़म की आदत है
हम यूँ ही जिए जाते हैं 

तोहींन ऐ जज्बा है अगर, बयां कर उसे वो रो दिए
छिपा होटों की हंसीं में, इस कदर
हम जज्बे का गुमां बढाते हैं
जब्त ऐ ग़म की आदत है
हम यूँ ही जिए जाते हैं.

No comments:

Post a Comment