Monday, May 30, 2011

यूँ ही कभी कभी ...

यूँ ही कभी कभी

ठन्डे पड़ जाते हैं

मेरे हाथ.

तितलियाँ सी यूँ ही

मडराने लगती हैं पेट में.

ऊंगलियाँ

करने लगती हैं अठखेलियाँ

यूँ ही एक दूसरे से .

पलकें स्वत: ही

हो जाती हैं बंद.

और वहाँ

बिना किसी जुगत के ही

कुछ बूंदे

निकल आती हैं धीरे से.

काश कि तेरे पोर उठा लें

और  कह दें उन्हें मोती.

या बिना हवा के ही

उड़ जाये ये लट

तेरी सांसो से.

तो ये धूप भी

पलकों पर  बैठ जाये

और चमक जाये

फूलझड़ी सी.

माना ये सब

बातें हैं फ़िज़ूल की.

पर फिर भी

कभी कभी यूँ ही

थोड़ा सा रूमानी होने में

बुरा क्या है…

 

 

 

 

Friday, May 27, 2011

भोजन अभियान.

चाइल्ड ओबेसिटी पर मेरे पिछले लेख में बहुत से पाठकों ने बच्चों में दुबलेपन की शिकायत की.और कहा कि कुछ प्रकाश इस समस्या पर भी डाला जाये .मैं कोई डॉo  नहीं हूँ परन्तु इस समस्या के कुछ देखे भाले अनुभव हैं जिन्हें आपसे बांटना चाहती हूँ .शायद कुछ मदद हो सके.

कुछ लोगों ने कहा कि बच्चे कुछ नहीं खाते.

और कुछ का कहना था कि कितना भी खा लें दुबले ही रहते हैं.
मैं शुरू करती हूँ दूसरी बात से – कि कितना भी खा लें मोटे नहीं होते .यहाँ मैं अपने पिछले लेख पर डॉ अमर की टिप्पणी का उल्लेख करना चाहूंगी “भारतीय माँओं के साथ यह सबसे बड़ी समस्या है, कि उन्हें अपना बच्चा हमेशा कमजोर ही नज़र आता है । उनके लिये स्वस्थ बालक के मायने मोटा थुलथुला गबद्दू बच्चा ही है । मुझे उन्हें समझाने  में बड़ी माथापच्ची करनी पड़ती है ।. 

आखिर क्यों हमें लगता है कि बच्चा अगर दुबला पतला है तो वह कमजोर है? अगर बच्चा ठीक तरह से भोजन कर रहा है,सक्रीय है, और उसे स्वास्थ्य सम्बन्धी कोई समस्या नहीं तो कोई वजह नहीं कि हम उसे मोटा करने पर तुल जाएँ.मोटापे का स्वास्थ्य से कोई भी लेना देना नहीं है.
कुछ बच्चों में दुबलापन अनुवांशिक  भी होता है अत: इस तरह के दुबलेपन के बारे में चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है.
 कुछ बच्चों को चिकित्सीय सलाह की भी जरुरत होती है जिसके लिए डाक्टरी परीक्षण  जरुरी होता है.
अब बात उन बच्चों की जो ठीक से खाते पीते नहीं इसलिए पतले हैं . यानि भोजन के प्रति उदासीन बच्चों की.
उसके लिए जरुरी है कि हम उन कारणों का पता लगाएं कि बच्चा खाने के प्रति आखिर उदासीन है क्यों?

जहाँ तक मैंने देखा है बच्चों के खाने के प्रति उदासीनता की वजह जाने अनजाने माता पिता स्वयं  ही होते हैं .शुरू में लगाईं गईं खाने की आदतें भी कई बार बच्चों में खाने के प्रति उदासीनता का कारण बन जाती हैं.
कई बार हम देखते हैं कि बच्चों के ठोस आहार की उम्र हो जाने पर भी  माता पिता का जोर उसे दूध ही पिलाने पर ज्यादा रहता है. अक्सर देखा गया है सारा समय दूध से भूख मिटाने वाले बच्चों के टेस्ट नहीं डेवलप हो पाते.और उसकी खाद्य  पदार्थों के प्रति कोई रूचि नहीं रहती.
काफी समय तक बच्चों को ख़ास बच्चों के लिए अलग से बनाया गया खाना देने से भी बच्चों में खाने के प्रति उदासीनता आ जाती है. जरुरी है कि एक उम्र के बाद बच्चों को हर तरह के खाद्य पदार्थ से परिचित कराया जाये.


भोजन में एकरसता भी कई बार बच्चों को खाने के प्रति उदासीन कर देती है.अधिकतर यह देखा जाता है कि बच्चों को खाना खिलाते हुए अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि हम भी कभी बच्चे थे. और लौकी और करेला जैसी सब्जियां हमें भी पसंद नहीं थीं. हम बच्चों के स्वास्थ्य के चलते उन्हें यही सब खाने को बाध्य करते हैं जिससे बच्चा बोर होकर खाना ही छोड़ देता है.
अगर हम यह चाहते हैं कि बच्चा वह खाए जो हम खा रहे हैं .तो जरुरी है हम भी यह समझें कि वह क्या खाना पसंद करता है.अक्सर हम बच्चों की फरमाइश को जंक कह कर सिरे से नकार देते हैं .जरा सोच कर देखिये कि बच्चा अगर कहता है कि उसे बर्गर खाना है तो क्या हम बर्गर को पौष्टिक  नहीं बना सकते ? उसमें लगी सब्जियों की कटलेट क्या हमारी घर में बनी सब्जियों से कम पौष्टिक  होगी ? कभी कभी बच्चों की बात मानकर देखिये – हफ्ते में एक बार कहिये चलो आज सब बर्गर खायेंगे. उनके साथ चाव से उनकी पसंद का खाना खाइए  फिर देखिये हफ्ते के बाकी दिन वह आपकी पसंद का खाना खायेंगे.

मुझे एक किस्सा याद आ रहा है एक बच्चे से एक बुजुर्गवार बात कर रहे थे उन्होंने उसे कुछ समझाने के उद्देश्य से कहा कि उसका एक दोस्त बहुत पिज्जा खाता था इसलिए उसे पथरी हो गई और उसका ऑपरेशन  हुआ है. बच्चे ने छूटते ही जबाब दिया कि इस लिहाज से तो सभी इटालियन को पथरी होनी चाहिए.अब उन बुजुर्ग के पास इसका कोई जबाब नहीं था.अत: बच्चों को बेबकूफ मत समझिये उन्हें जो समझाना है, उसे सही कारण देकर समझाइये. इटली में जो पिज्जा मिलता है वह बाहर मिलने वाले किसी भी पिज्जा से बहुत अलग होता है.आटे के बने परांठे में लगी सब्जियां और नाम मात्र का चीज़ ..क्या किसी भी  भरवां  परांठे से कम होगा? बेहतर होता कि बच्चे के साथ मिलकर वैसा पिज्जा बनाया जाता जिससे उसे यह अहसास होता कि उसे बेबकूफ नहीं समझा जाता. और उसके स्वाद को बड़े लोग भी समझ सकते हैं .

आखिर क्यों घर में कोई मेहमान के आने से हम बड़े चाव से समोसे और जलेबी मंगाते हैं. पर बच्चा अगर एक चिप्स के पैकेट की  फरमाइश करता है तो उसे झिड़क कर मना कर देते हैं .क्या भारतीय जंक फ़ूड जंक नहीं ? सिर्फ विदेशी जंक फ़ूड जंक है?और हमारी इस मानसिकता से बच्चा जिद में आकर खाना ही छोड़ देता है .बच्चे को अपने अनुसार ढालने से,उसे समझाने से पहले यह जरुरी है कि हम समझें.
कुछ मामलों में यह भी देखा जाता है कि बच्चा खाना नहीं खा रहा तो माता पिता उनके लिए उनकी पसंद का खाद्य पदार्थ उपलब्ध करा देते हैं परन्तु खुद वही खाते हैं जो घर में बना है .ऐसा करने से बच्चा सीधा सीधा खाने को २ भागों में बाँट लेता है. कि यह बड़ों का खाना यानी बोर और अस्वादिष्ट और यह बच्चों का – स्वादिष्ट, और कूल .अब जाहिर है कि रोज़ रोज़ उनका तथाकथित कूल खाना देना मातापिता को गवारा नहीं होगा अत: इस स्थिति में बच्चे खाना ही छोड़ देते हैं.

वहीं  कुछ माएं बच्चों के खाने को लेकर इतना परेशान रहती हैं कि सारा समय उन्हें बच्चे के खाने की ही चिंता सताती है. और वह उनके पीछे पड़ी रहती हैं. एक चीज़ ना खाने पर उन्हें एक के बाद दूसरी चीज़ पेश करती रहती हैं. जिससे भोजन भोजन ना रहकर बच्चे के लिए ज़बरदस्ती  का एक अभियान बन जाता है और वह उसे ना जरुरी करार देकर उससे विरक्त हो जाता है.हमें यह समझना चाहिए कि भोजन एक जरुरत है और बच्चे को जब भूख लगेगी वह अवश्य ही खायेगा.अत: समय से जो बना है वह उसे दें और हो सकता है किसी वजह से वह ना खाए तो कुछ समय के लिए उसे छोड़ दें .कुछ देर बाद वही भोजन उसे दें वह जरुर खा लेगा.और अगर एक समय नहीं भी खायेगा तो कोई पहाड़ नहीं टूटेगा पर भोजन को अभियान ना बनायें.

कुछ लोगों की समस्या होती है कि माता पिता दोनों काम पर जाते हैं और बच्चा क्रेच में रहता है और वहां कुछ भी खाकर नहीं आता. उसकी वजह भी हो सकती है कि उसे जो खाना दिया जाता है वह उसकी पसंद का ना होता हो .या बाकी बच्चों से इतना अलग होता हो जिसे खोलने में उसे अपने साथियों के सामने शर्म आती हो.बच्चे यह नहीं समझते कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा वह बस जानते हैं कि उन्हें क्या पसंद है और क्या नापसंद .
या हो सकता है कि वे वहां बाकी कि गतिविधियों में इतना मस्त रहते हों कि खाना उन्हें वक़्त की बर्बादी लगती हो.ऐसे में जरुरी है कि उनकी संरक्षिका से बात की  जाये और उन्हें हिदायत दी जाये कि खाना खिलाये बैगेर उन्हें नहीं खेलने दिया जाये.

बच्चों में खाने के प्रति उदासीनता के अनगिनत कारण हो सकते है.अत: दिन का एक मील जरुर पूरा परिवार साथ बैठकर खाए उस दौरान बच्चों से उनकी पसंद और नापसंद पर स्वस्थ चर्चा की जाये. खुद भी खाने में,  खाना बनाने में रूचि लीजिये और बच्चों को भी उसमें शामिल कीजिये. बच्चों के मन में क्या चल रहा है यह जानना बहुत मुश्किल है अत:  जरुरी है उनकी भावनाओं को समझा जाये और उनकी इज्जत  की जाये, उनकी समस्याओं को समझा जाये. बेशक वे बेतुकी लगे और उनका सही हल उनसे बातचीत करके निकाला  जाये.

Wednesday, May 18, 2011

खाते पीते घर का...

हवा हुए वे दिन जब बच्चे की तंदरुस्ती  से घर की सम्पन्नता को परखा जाता था. माताएं अपने बच्चे की बलाएँ ले ले नहीं थकती थीं कि  मेरा बच्चा खाते पीते घर का लगता है. एक वक़्त एक रोटी  कम खाई तो चिंता में घुल घुल कर बडबडाया  करती थीं ..हाय मेरे लाल ने आज कुछ नहीं खाया शायद तबियत ठीक नहीं है. नानी दादी से जब भी बच्चा मिले उन्हें हमेशा कमजोर  ही लगा करता था..अरे कितना कमजोर हो गया मेरा लाल,  कुछ खिलाती पिलाती नहीं क्या माँ. और जम कर घी और रबडी की पिलाई शुरू , कि देई तो भरी भरी ही अच्छी लगे है.
पर जी अब जमाना बदल गया है अब इस भरी भरी देह को मोटापा कहा जाता है और इसके पक्ष में अब माँ तो क्या दादी नानी भी देखी नहीं जातीं. आज जमाना दिखावट का है .शारीरिक आकार और सौष्ठव  बहुत मायने रखता है .ऐसे में आपका हृष्ट  पुष्ट बच्चा घर से बाहर या स्कूल में अपने साथियों के मध्य हास्य और उपहास  का कारण बन जाता है . .
आजकल बच्चों में मोटापा बढ़ता जा रहा है यानि “चाइल्ड ऑबेसिटी” की समस्या दिन ब दिन बढ़ रही है और बच्चे के साथ साथ माता पिता के लिए एक गहन चिंता का विषय बन रही है .
जिसके कारण के तौर पर सीधा सीधा बच्चे की गलत इटिंग हैबिट  को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है. 
बाजार में बढता जंक फ़ूड का प्रचलन और बच्चों में उनके प्रति आकर्षण को हम सीधा निशाना बना देते हैं और उन्हें गालियाँ देकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री कर लेते हैं.
 “सारे दिन बस चरता ही रहता है ये जुमला उछालते अक्सर हम कुछ बच्चों के माता पिता को देखते हैं .
यह सही है कि बाजारू जंक फ़ूड बच्चों में ऑबेसिटी का एक मुख्य कारण है परन्तु इसके पीछे और भी बहुत से कारण हैं जिन्हें हम नजरअंदाज कर देते हैं. 
बच्चा क्यों सारे दिन चर रहा है, इसका कारण जानना हम जरुरी नहीं समझते .
ज्यादातर देखा जाता है कि तनाव में इंसान अधिक खाता है .और बच्चों में यह तनाव कई बार बहुत ही छोटी छोटी बातों को लेकर हो सकता है .
जैसे घर में हुए छोटे मोटे झगडे. 
स्कूल में किसी साथी से अनबन. 
अपने शारीरिक गठन को लेकर सुनी गई टिप्पणियाँ. 
 परीक्षा में आये कम अंक.  इत्यादि इत्यादि . 
बच्चा इन कारणों को नहीं समझ पाता ,.बाहर से वह आहत हो कर, तनाव लेकर  घर, प्यार की तलाश में आता है. और  घर आकर उसके खाने को लेकर घरवालों  की  कटु टिप्पणियाँ उसे और तनाव ग्रस्त कर देती हैं. खाद्य पदार्थ अक्सर प्यार के, और अपमान से छिपने के  विकल्प के रूप में दीखता है. अत: तनाव में उसका ध्यान सिर्फ खाने पर ही जाता है और वह निराश होकर और अधिक खाना शुरू कर देता है.
कई बार देखा गया है कि मोटापे के चलते माता पिता बच्चों पर खाने पीने की रोक टोक करते हैं .और इन परिस्थितियों में बच्चा बाहरी खाने के प्रति और ज्यादा आकर्षित हो जाता है. 
मतलब यह कि मोटापे का एक कारण गलत और अधिक खाना तो है परन्तु इससे भी ज्यादा  मानसिक होता है और जाने अनजाने हम वह कारण बन जाते हैं.
परन्तु इसके विपरीत थोड़ी सी भी समझदारी से काम लेकर हम बच्चे की इस अवस्था में मदद कर सकते हैं और उसे मोटापे से छुटकारा पाने में सहायक हो सकते हैं..
बच्चा अपने मोटापे के कारण घर से बाहर अपमानित होता है ,उसके साथी बच्चे उसे चिढाते हैं, उसके कोमल मन पर इसका गहरा असर होता है.हाँ बाहर वालों को तो हम नहीं रोक सकते,  परन्तु अपने घर का वातावरण नियंत्रित कर सकते हैं . 
जब वह घर आये तो जरुरी है कि घर वाले उससे प्रेम से व्यवहार करें, 
मजाक में भी उसे चिढायें  नहीं . 
उससे बात करें उसे विश्वास दिलाएं कि शारीरिक सौन्दर्य से ज्यादा मानसिक सौन्दर्य महत्त्वपूर्ण  है.
उसके उन गुणों के बारे में उसे बताएं जिसकी वजह से वह दूसरों से अधिक आकर्षित बनता है. 
आप जितना उसके गुणों की तारीफ करेंगे उसका आत्मविश्वास उतना ही बढेगा और बाहर वालों की टिप्पणियों का असर उसपर कम होता रहेगा.
बच्चे को अच्छी फ़ूड हैबिट और कसरत आदि के लिए उत्साहित अवश्य करें परन्तु कभी भी उसे ऐसा करने के बदले इनाम के तौर पर किसी खाने की वस्तु  का लालच ना दें .ऐसा करके आप ना चाहते हुए भी उसका खाद्य पदार्थ के प्रति आकर्षण बढ़ाते हैं. इसके बदले उसे कोई फिल्म दिखाने का या कहीं घुमाने ले जाने का पुरस्कार दें .
एक बच्चा जो देखता है वही सीखता है जरुरी है कि पूरा परिवार स्वास्थ्य और भोजन के प्रति सतर्क रहे सभी स्वास्थ्य के लिए अच्छा भोजन करें ,व्यायाम करें और अपने निजी प्रस्तुतीकरण के महत्त्व  को समझें. अपने बच्चे के लिए अनुकरणीय बने . धीरे धीरे वह भी उसी दिनचर्या का आदी हो जायेगा.


बच्चे की ज्यादा खाने की आदत के पीछे बहुत से सामाजिक ,शारीरिक और मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं अत:कभी भी .
बच्चे को वजन कम ना करने का दोषी करार ना दें बल्कि उसके पीछे छुप्पी समस्या को तलाशें ,उसे समझें और उसका हल निकालें 

Monday, May 9, 2011

पुरानी कमीज

कल रात
किवाड़ के पीछे लगी खूंटी पर टंगी
तेरी उस कमीज पर नजर पड़ी
जिसे तूने ना जाने कब
यह कह कर टांग दिया था
कि अब यह पुरानी हो गई है.
और तब से
कई सारी आ गईं थीं नई कमीजें
सुन्दर,कीमती, समयानुकूल
परन्तु अब भी जब हवा के झोंके
उस पुरानी कमीज से टकराकर
मेरी नासिका में समाते हैं
एक अनूठी खुशबू का एहसास होता है
शायद ये तेरे पुराने प्रेम की सुगंध है
जो किसी भी नई कमीज़ से नहीं आती
इसीलिए मैं जब तब
उसी की आस्तीनों को
अपनी ग्रीवा पर लपेट लेती हूँ
क्योंकि
कमीजें कितनी भी बदलो
प्रेम नहीं बदला जाता

Friday, May 6, 2011

गुम्बद में अनोखी दुनिया." एडेन प्रोजेक्ट"

इस बार ईस्टर के बाद राजकुमार विलियम की शादी की वजह से २-२ बड़े सप्ताहांत मिले. और शायद यही वजह रही हो कि अचानक लन्दन का मौसम भी बेहद सुहावना हो चला था.अब हमें तो राजकुमार की शादी की खास तैयारियां करनी नहीं थी .ले दे कर एक रिपोर्ट ही लिखनी थी तो सोचा क्यों ना इन सुहानी छुट्टियों का कुछ फायदा उठाया जाये. दुनियाभर से लोग प्रिंस की शादी के लिए लन्दन आ रहे हैं, तो उनके लिए कुछ स्थान खाली कर दिया जाये और दो दिन के लिए लन्दन से बाहर कहीं घूम आया जाये. विचार आया तो उसे क्रियान्वित करने में भी ज्यादा समय नहीं लगा. और हम कुछ मित्रों ने झटपट कार्यक्रम बना डाला. पहले एक दिन समुद्र तट पर बिताने का फिर लन्दन से करीब २२० मील  दूर, कॉर्नवाल स्थित, एक नकली रैन फोरेस्ट देखने का. समुद्र तट का नजारा तो पिछली पोस्ट में दिखा चुकी हूँ आपको. अब बात एडेन प्रोजेक्ट की.

करीब पांच घंटे का “सेंट ऑस्टेल” शहर तक का, कार का सफ़र और थकान का नाम नहीं. यह शायद सिर्फ यूरोप  में संभव है. इतनी खूबसूरत वादियाँ कि नजर हटाने को दिल नहीं चाहता उसपर मौसम खुशगवार हो, और साथ में अपनों का साथ हो. तो हँसते गाते सफ़र कट जाता है.सो हम भी छोटी छोटी सड़कों के द्वारा प्रकृति की गोद से होते हुए सेंट ऑस्टेल के अपने होटल में पहुँच गए. एडेन प्रोजेक्ट का कार्यक्रम दूसरे  दिन का था सो रात का भोजन किया और मित्रों के साथ जम कर अन्ताक्षरी खेलने बैठ गए. अब जब पुरसुकून समय हो और मित्र साथ में, तो आवाज़ के स्वर बढ़ते ही जाते हैं. सो बेचारा होटल मैनेजर  निवेदन करने आया कि रात बहुत हो चुकी है कृपया दूसरे  निवासियों का लिहाज किया जाये और थोड़ा शांत हो जाया जाये.  मन तो नहीं था. पर बात साथी निवासियों की थी और दूसरे  दिन भी पूरे दिन घूमना था सो हमने उस मैनेजर  की बात रख ली और अन्ताक्षरी बंद करके निंद्रा देवी की शरण ले ली.
सेंत ऑस्टेल शहर से एडेन प्रोजेक्ट करीब पांच मील  ही है अत: नाश्ता लगभग ठूंस कर हम लोग निकल पड़े ज्यादा इस बारे में पता ना था बस इतना ही सुना था कि इंसानों द्वारा बनाया गया एक बड़ा सा जंगल है जो बच्चों के लिए काफी शिक्षाप्रद है .वहां जाकर देखा तो वाकई मुँह से वाह निकल गया.एडेन प्रोजेक्ट नाम का यह जंगल दुनिया का सबसे बड़ा ग्रीन हाउस है. जहाँ प्रवेश करते ही सबसे पहले बहुत ही रोचक एक यंत्र चालित झांकी दिखाई पड़ती है.जिसके माध्यम से बच्चों को यह बताने की कोशिश की गई है, कि अगर पेड पौधे  नहीं होंगे तो क्या होगा.पढने के लिए मेज नहीं होगी ,बैठने के लिए कुर्सी नहीं, खेलने के लिए वीडियो गेम नहीं, पहनने के लिए कपडे नहीं और फ्रिज में एक भी खाने की वस्तु नहीं …और नतीजा…सब कुछ ख़तम.
विशाल व्योम 
उसके बाद प्रवेश होता है मुख्य परिसर का .जहाँ बने हैं दो  विशाल प्राक्रतिक वियोम (गुम्बद) और जिनके अन्दर है पूरी दुनिया. अष्टकोण  और पञ्चकोण  के आकार के बने ये वियोम रसोई में प्रयोग होने वाली क्ल्लिंग फ़ॉइल यानि एक तरह के प्लास्टिक की शीट और स्टील की सलाखों से बने हैं. जिनमें से एक टॉपिकल  और दूसरा  मेडिटेरेनियन पर्यावरण  पर आधारित है. जहाँ दुनिया के हर हिस्से की हर प्रजाति के पौधों  को लगाकर संरक्षित किया गया है .सबसे पहले हमने प्रवेश किया ट्रॉपिकल  वियोम में, जो ३.९ एकड़ जगह में बना हुआ है.जो ५५ मीटर ऊंचा, १०० मीटर चौड़ा  और २०० मीटर लम्बा है. और जिसे उष्णकटिबंधीय तापमान और नमी के स्तर पर रखा है, वहां बाहर ही हमें ताकीद कर दिया गया था, कि अपने जेकेट उतार कर जाइये अन्दर ९० डिग्री  फेरानाईट  तापमान है. अब कुछ लोग  ज्यादा ही अक्लमंद  होते हैं, सोचा ऐसे ही बड़ा चढ़ा कर बोला जा रहा है. एक ही जगह पर ६५ और इस गुम्बद में घुसते ही ९० वो भी बिना किसी हीटिंग  सिस्टम के, कैसे हो सकता है …परन्तु गुम्बद के अन्दर प्रवेश करते ही उन्हें अपनी गलती का एहसास हो गया. वाकई गुम्बद के अन्दर का तापमान ९० डिग्री फेरानाईट से ज्यादा था और बेहद गर्मी लग रही थी. बच्चे भारत में होने के एहसास की बातें करने लगे थे. उस गुम्बद नुमा जंगल में एशिया और ट्रॉपिकल देशों में होने वाली सभी सब्जी और फलों के पेड पोधे थे जो वाकई एशिया के किसी शहर में होने का एहसास करा रहे थे.आम, केले, पपीते, गन्ने के पेड , नीचे धनिये  ,करी  पत्ते आदि के पौधे , जमीं में लगे अदरक. अजीब सा नेस्टोलोज़िया फैला रहे थे. यहाँ तक कि बीच बीच में कुछ मॉडल्स   के माध्यम से उन देशों का वातावरण भी बनाने की कोशिश की गई थी. खूबसूरत झरनों और प्रकृति के खूबसूरत रूप को निहारते हुए कहीं से भी यह एहसास नहीं होता था, कि यह कोई प्राकृतिक जंगल नहीं, बल्कि ढाई साल के समय में एक बेजान धरती के टुकड़े पर, विशाल गुम्बद के अन्दर बनाया गया मानव निर्मित जंगल है.
इस तरह सभी देशों की सैर करके हम उस गुम्बद से निकल आये और फिर घुसे दूसरे  भूमध्यीय  गुम्बद में, जो कि इतना गरम नहीं था.और उसके अन्दर मेडेटेरीनियन  पेड पौधों के साथ ही एक बहुत ही खूबसूरत बगीचा भी था.इतने खूबसूरत ट्यूलिप खिले हुए थे, कि किसी चित्रकार की कोई सुन्दरतम कलाकृति जान पड़ते थे.
अफ्रीका 
वहां की छटा देखकर बाहर निकले तो नजर पडी एक बहुत ही निराले फ़ूड कोर्ट पर जहाँ सब कुछ लकड़ी का था .बनाने वाले बर्तन भी और खाने वाले बर्तन भी.सब कुछ एकदम प्राकृतिक जैसा. मुँह में पानी तो आया परन्तु सुबह नाश्ता इस कदर ठूंसा हुआ था कि लालच छोड़ हम आगे बढ़ गए. यह एक हॉल था जहाँ स्कूल के बच्चों द्वारा पर्यावरण की सुरक्षा पर बनाये गए प्रोजेक्ट रखे थे और वहीँ दिखाई गई एडेन प्रोजेक्ट के निर्माण और उद्देश्य से जुडी एक रोचक फिल्म .
फ़ूड कोर्ट 
इस ग्लोबल वार्मिंग के समय में एक बंजर जमीं पर बनाया गया ये ग्रीन हाउस. आशा और सजगता का एक प्रमाण सा है. जो बेहद रोचक अंदाज में अपने पर्यावरण की सुरक्षा के लिए जागरूकता फ़ैलाने का कार्य बहुत ही कुशलता और सफलता से कर रहा है.और जहाँ से बाहर निकलते ही हर बच्चे – बड़े के मन में एक ही बात होती है कि ऐसा ही एक जंगल हम भी अपने घर के पीछे बनायेंगे,  वहां अपनी मनपसंद पौधे उगायेंगे .और अपनी प्यारी धरती को जो हमें इतना कुछ देती है.. — हम अपने हिस्से का योगदान अवश्य देंगे. 

Wednesday, May 4, 2011

चलो यही सही....

सभी साहित्यकारों से माफी नामे सहित .
कृपया निम्न रचना को निर्मल हास्य के तौर पर लें.



आजकल मंदी का दौर है

उस पर गृहस्थी का बोझ है 
इस काबिल तो रहे नहीं कि 
अच्छी नौकरी पा पायें 
तो हमने सोचा चलो 
साहित्यकार ही बन जाएँ 
रोज कुछ शब्द 
यहाँ के वहां लगायेंगे
और नए रंगरूटों को 
फलसफा ए लेखन सिखायेंगे
कुछ नए नवेले लेखक 
रोज पूछने आयेंगे 
गुरु जी छपने के कुछ मन्त्र 
क्या हमें भी मिल जायेंगे .
उन्हें  क्या पता 
कितने तिकड़म लगाये हैं 
तब कहीं जाकर 
इक्का दुक्का कहीं छप पाए हैं 
आखिर जो खुद सुना था
वो भी तो बताना है 
हम है वरिष्ठ साहित्यकार 
ये भी तो जताना है
हम ये राज छुपा जायेंगे 
और बच्चों को शान से 
कायदा समझायेंगे 
बेटा कुछ रचोगे तो बचोगे 
वर्ना कहीं कोने में सड़ोगे 
हमने बहुत पापड़ बेले हैं 
तब यहाँ तक आये हैं 
साहित्य की सेवा में ही 
तन मन धन लगाये हैं.
तुम क्या जानो  कि 
कितनी रातें जागे हैं
तब कहीं जाकर 
कहीं कुछ लिख पाए हैं .
बच्चे ने सुना 
और थोडा घबराया 
फिर गुरु को नमन कर 
 चेला घर आया 
कुछ समय बाद चेले को 
बात समझ में आई 
आखिर वो भी इसी मिट्टी की 
पैदाइश था भाई 
उसने भी यहाँ वहां से 
कुछ कच्चा माल जुटाया
और फिर उसपर पी आर का 
देसी तड़का लगाया 
अब चेला मंच नशीन होकर 
भाषण वही झाड रहा था
समझाया था जो गुरु ने 
स शब्द वो दोहरा रहा था 
आज चेला साहित्यकार बन 
इठला रहा है..
और पीछे की सीट पर बैठा गुरु 
बगले झाँक रहा है 
अरे ना मुराद 
कुछ तो लिहाज कर
और कुछ नहीं तो कम से कम 
एक तो आभार कर.