चाइल्ड ओबेसिटी पर मेरे पिछले लेख में बहुत से पाठकों ने बच्चों में दुबलेपन की शिकायत की.और कहा कि कुछ प्रकाश इस समस्या पर भी डाला जाये .मैं कोई डॉo नहीं हूँ परन्तु इस समस्या के कुछ देखे भाले अनुभव हैं जिन्हें आपसे बांटना चाहती हूँ .शायद कुछ मदद हो सके.
और कुछ का कहना था कि कितना भी खा लें दुबले ही रहते हैं.
मैं शुरू करती हूँ दूसरी बात से – कि कितना भी खा लें मोटे नहीं होते .यहाँ मैं अपने पिछले लेख पर डॉ अमर की टिप्पणी का उल्लेख करना चाहूंगी “भारतीय माँओं के साथ यह सबसे बड़ी समस्या है, कि उन्हें अपना बच्चा हमेशा कमजोर ही नज़र आता है । उनके लिये स्वस्थ बालक के मायने मोटा थुलथुला गबद्दू बच्चा ही है । मुझे उन्हें समझाने में बड़ी माथापच्ची करनी पड़ती है ।.
कुछ बच्चों में दुबलापन अनुवांशिक भी होता है अत: इस तरह के दुबलेपन के बारे में चिंता करने की कोई जरुरत नहीं है.
उसके लिए जरुरी है कि हम उन कारणों का पता लगाएं कि बच्चा खाने के प्रति आखिर उदासीन है क्यों?
जहाँ तक मैंने देखा है बच्चों के खाने के प्रति उदासीनता की वजह जाने अनजाने माता पिता स्वयं ही होते हैं .शुरू में लगाईं गईं खाने की आदतें भी कई बार बच्चों में खाने के प्रति उदासीनता का कारण बन जाती हैं.
कई बार हम देखते हैं कि बच्चों के ठोस आहार की उम्र हो जाने पर भी माता पिता का जोर उसे दूध ही पिलाने पर ज्यादा रहता है. अक्सर देखा गया है सारा समय दूध से भूख मिटाने वाले बच्चों के टेस्ट नहीं डेवलप हो पाते.और उसकी खाद्य पदार्थों के प्रति कोई रूचि नहीं रहती.
काफी समय तक बच्चों को ख़ास बच्चों के लिए अलग से बनाया गया खाना देने से भी बच्चों में खाने के प्रति उदासीनता आ जाती है. जरुरी है कि एक उम्र के बाद बच्चों को हर तरह के खाद्य पदार्थ से परिचित कराया जाये.
भोजन में एकरसता भी कई बार बच्चों को खाने के प्रति उदासीन कर देती है.अधिकतर यह देखा जाता है कि बच्चों को खाना खिलाते हुए अक्सर हम यह भूल जाते हैं कि हम भी कभी बच्चे थे. और लौकी और करेला जैसी सब्जियां हमें भी पसंद नहीं थीं. हम बच्चों के स्वास्थ्य के चलते उन्हें यही सब खाने को बाध्य करते हैं जिससे बच्चा बोर होकर खाना ही छोड़ देता है.
मुझे एक किस्सा याद आ रहा है एक बच्चे से एक बुजुर्गवार बात कर रहे थे उन्होंने उसे कुछ समझाने के उद्देश्य से कहा कि उसका एक दोस्त बहुत पिज्जा खाता था इसलिए उसे पथरी हो गई और उसका ऑपरेशन हुआ है. बच्चे ने छूटते ही जबाब दिया कि इस लिहाज से तो सभी इटालियन को पथरी होनी चाहिए.अब उन बुजुर्ग के पास इसका कोई जबाब नहीं था.अत: बच्चों को बेबकूफ मत समझिये उन्हें जो समझाना है, उसे सही कारण देकर समझाइये. इटली में जो पिज्जा मिलता है वह बाहर मिलने वाले किसी भी पिज्जा से बहुत अलग होता है.आटे के बने परांठे में लगी सब्जियां और नाम मात्र का चीज़ ..क्या किसी भी भरवां परांठे से कम होगा? बेहतर होता कि बच्चे के साथ मिलकर वैसा पिज्जा बनाया जाता जिससे उसे यह अहसास होता कि उसे बेबकूफ नहीं समझा जाता. और उसके स्वाद को बड़े लोग भी समझ सकते हैं .
कुछ मामलों में यह भी देखा जाता है कि बच्चा खाना नहीं खा रहा तो माता पिता उनके लिए उनकी पसंद का खाद्य पदार्थ उपलब्ध करा देते हैं परन्तु खुद वही खाते हैं जो घर में बना है .ऐसा करने से बच्चा सीधा सीधा खाने को २ भागों में बाँट लेता है. कि यह बड़ों का खाना यानी बोर और अस्वादिष्ट और यह बच्चों का – स्वादिष्ट, और कूल .अब जाहिर है कि रोज़ रोज़ उनका तथाकथित कूल खाना देना मातापिता को गवारा नहीं होगा अत: इस स्थिति में बच्चे खाना ही छोड़ देते हैं.
वहीं कुछ माएं बच्चों के खाने को लेकर इतना परेशान रहती हैं कि सारा समय उन्हें बच्चे के खाने की ही चिंता सताती है. और वह उनके पीछे पड़ी रहती हैं. एक चीज़ ना खाने पर उन्हें एक के बाद दूसरी चीज़ पेश करती रहती हैं. जिससे भोजन भोजन ना रहकर बच्चे के लिए ज़बरदस्ती का एक अभियान बन जाता है और वह उसे ना जरुरी करार देकर उससे विरक्त हो जाता है.हमें यह समझना चाहिए कि भोजन एक जरुरत है और बच्चे को जब भूख लगेगी वह अवश्य ही खायेगा.अत: समय से जो बना है वह उसे दें और हो सकता है किसी वजह से वह ना खाए तो कुछ समय के लिए उसे छोड़ दें .कुछ देर बाद वही भोजन उसे दें वह जरुर खा लेगा.और अगर एक समय नहीं भी खायेगा तो कोई पहाड़ नहीं टूटेगा पर भोजन को अभियान ना बनायें.
या हो सकता है कि वे वहां बाकी कि गतिविधियों में इतना मस्त रहते हों कि खाना उन्हें वक़्त की बर्बादी लगती हो.ऐसे में जरुरी है कि उनकी संरक्षिका से बात की जाये और उन्हें हिदायत दी जाये कि खाना खिलाये बैगेर उन्हें नहीं खेलने दिया जाये.
बच्चों में खाने के प्रति उदासीनता के अनगिनत कारण हो सकते है.अत: दिन का एक मील जरुर पूरा परिवार साथ बैठकर खाए उस दौरान बच्चों से उनकी पसंद और नापसंद पर स्वस्थ चर्चा की जाये. खुद भी खाने में, खाना बनाने में रूचि लीजिये और बच्चों को भी उसमें शामिल कीजिये. बच्चों के मन में क्या चल रहा है यह जानना बहुत मुश्किल है अत: जरुरी है उनकी भावनाओं को समझा जाये और उनकी इज्जत की जाये, उनकी समस्याओं को समझा जाये. बेशक वे बेतुकी लगे और उनका सही हल उनसे बातचीत करके निकाला जाये.
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