सभी साहित्यकारों से माफी नामे सहित .
कृपया निम्न रचना को निर्मल हास्य के तौर पर लें.
आजकल मंदी का दौर है
उस पर गृहस्थी का बोझ है
इस काबिल तो रहे नहीं कि
अच्छी नौकरी पा पायें
तो हमने सोचा चलो
साहित्यकार ही बन जाएँ
रोज कुछ शब्द
यहाँ के वहां लगायेंगे
और नए रंगरूटों को
फलसफा ए लेखन सिखायेंगे
कुछ नए नवेले लेखक
कुछ नए नवेले लेखक
रोज पूछने आयेंगे
गुरु जी छपने के कुछ मन्त्र
क्या हमें भी मिल जायेंगे .
उन्हें क्या पता
कितने तिकड़म लगाये हैं
तब कहीं जाकर
इक्का दुक्का कहीं छप पाए हैं
आखिर जो खुद सुना था
वो भी तो बताना है
हम है वरिष्ठ साहित्यकार
ये भी तो जताना है
हम ये राज छुपा जायेंगे
और बच्चों को शान से
कायदा समझायेंगे
बेटा कुछ रचोगे तो बचोगे
वर्ना कहीं कोने में सड़ोगे
हमने बहुत पापड़ बेले हैं
तब यहाँ तक आये हैं
साहित्य की सेवा में ही
तन मन धन लगाये हैं.
तुम क्या जानो कि
कितनी रातें जागे हैं
तब कहीं जाकर
कहीं कुछ लिख पाए हैं .
बच्चे ने सुना
और थोडा घबराया
फिर गुरु को नमन कर
चेला घर आया
कुछ समय बाद चेले को
बात समझ में आई
आखिर वो भी इसी मिट्टी की
पैदाइश था भाई
उसने भी यहाँ वहां से
कुछ कच्चा माल जुटाया
और फिर उसपर पी आर का
देसी तड़का लगाया
अब चेला मंच नशीन होकर
भाषण वही झाड रहा था
समझाया था जो गुरु ने
स शब्द वो दोहरा रहा था
आज चेला साहित्यकार बन
इठला रहा है..
और पीछे की सीट पर बैठा गुरु
बगले झाँक रहा है
अरे ना मुराद
कुछ तो लिहाज कर
और कुछ नहीं तो कम से कम
और कुछ नहीं तो कम से कम
एक तो आभार कर.
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