यूँ ही कभी कभी
ठन्डे पड़ जाते हैं
मेरे हाथ.
तितलियाँ सी यूँ ही
मडराने लगती हैं पेट में.
ऊंगलियाँ
करने लगती हैं अठखेलियाँ
यूँ ही एक दूसरे से .
पलकें स्वत: ही
हो जाती हैं बंद.
और वहाँ
बिना किसी जुगत के ही
कुछ बूंदे
निकल आती हैं धीरे से.
काश कि तेरे पोर उठा लें
और कह दें उन्हें मोती.
या बिना हवा के ही
उड़ जाये ये लट
तेरी सांसो से.
तो ये धूप भी
पलकों पर बैठ जाये
और चमक जाये
फूलझड़ी सी.
माना ये सब
बातें हैं फ़िज़ूल की.
पर फिर भी
कभी कभी यूँ ही
थोड़ा सा रूमानी होने में
बुरा क्या है…
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