Saturday, September 21, 2019

इंतज़ार और दूध -जलेबी...

वोआते थे हर साल। किसी न किसी बहाने कुछ फरमाइश करते थे। कभी खाने की कोई खास चीज, कभी कुछ और। मैं सुबह उठकर बहन को फ़ोन पे अपना वह सपना बताती, यह सोचकर कि बाँट लुंगी कुछ भीगी बातें। पता चलता कि एक या दो दिन बाद उनका श्राद्ध है। मैं अवाक रह जाती। मुझे देश से बाहर होने के कारण ये तिथियां कभी पता ही नहीं चलती थीं। मैंने कभी जानने की कोशिश भी नहीं की। न मुझे इनसब पर विश्वास था न ही बाहर कुछ भी करने की सुविधा थी और कहा गया था कि बेटियां श्राद्ध नहीं करतीं।

फिर बहन कहती, मम्मी से कह देती हूँ उनकी फरमाइश की चीज दान कर देंगी। मुझे यह आदत सी पड़ गई। अब मैं खास उन दिनों का पता करती, उन्हें याद रखती और उनके सपने में आने का और कुछ फरमाइश का इंतजार करती। दूसरे दिन बहन को बता देती। कई साल यह सिलसिला चला।

फिर एक दिन अचानक याद आया कि पापा, सुविधा, साधन न होने की स्थिति में अपने दादा, दादी का श्राद्ध दूध, जलेबी मंदिर में भिजवा के कर दिया करते थे। मुझे जाने क्या सूझा, दूध जलेबी लेकर मंदिर में दे आई।
बस…तब से उन्होंने सपने में आना ही बंद कर दिया।
पर मैं अब भी उन दिनों में उनसे सपने में मिलने का इन्तज़ार हर साल करती हूँ। चाहती हूं वो आएं, और कुछ इच्छा जताएं। पर अब वो नहीं आते…और मैं फिर चुपचाप दूध जलेबी दे आती हूँ।

Tuesday, August 20, 2019

एयरपोर्ट... "ये उन दिनों की बात है"

ये उन दिनों की बात है, जब हवाई यात्रा आम लोगों के लिए नहीं हुआ करती थी और हवाई अड्डे तो फिर बहुत ही खास होते थे. आने वाले को लेने, पूरा कुनबा सज धज कर आया करता था.😊
साथ में फूल भी होते थे और कैमरा भी. अब क्योंकि यात्रा ख़ास होती थी तो सामान भी खास होता था और उसके साथ सामान की ट्रोली चलाना भी एक शान की बात.
तब आमतौर पर हवाई जहाज विदेश जाने के लिए ही उपयोग में लाये जाते थे तो अपनी पहली हवाई यात्रा (मास्को जाने के लिए) से पहले जो सबसे पहला सवाल मैंने पापा से पूछा था वह था – पापा, हवाई जहाज में टॉयलेट कहाँ होता है?

Monday, August 19, 2019

कैमरा... 'ये उन दिनों की बात है'

ये उन दिनों की बात है जब कैमरा की घुंडी घुमाकर रील आगे बढ़ाई जाती थी।

एक क्लिक की आवाज के साथ रील आगे बढ़ जाती थी

एक रील में 15 , २३ या ३६ फोटो होते थे… जो कभी कभी एक ज्यादा या एक कम भी हो जाते थे.

पूरे फोटो खिंच जाने पर कैमरे की एक टोपी घुमाकर रील रिवाइंड की जाती थी

फिर उसका शटर दबाकर रोल निकाला जाता था

और फिर खुद ही होस्टल के बाथरूम को डार्क रूम बनाया जाता था

एक टब या तसले में, पानी और सैल्युशन मिलाकर नैगेटिव धोये जाते थे

फिर रोल डेवलोप करके प्रिंट सुखाये जाते थे.

और तब भी रंगीन फोटो ब्लैक एंड वाइट से नजर आते थे .

और तब तक बाथरूम के दरवाजे पर चिप्पी चिपकाई जाती थी- “Не входить”

#ये उन दिनों की बात है ….

 

 

Friday, August 2, 2019

देशी चश्मे से लन्दन डायरी : पुस्तक समीक्षा (डॉ अरुणा अजितसरिया (एम बी ई)

 ‘पुरवाई’ से साभार 

डायरी साहित्य की एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक बिना किसी लाग लपेट के अपनी बात कहने को स्वतंत्र होता है क्योंकि उसका सर्वोपरि पाठक वह स्वयं होता है। पर उसे प्रकाशित करना अपने व्यक्तिगत विचारों को अपने से इतर पाठक तक पहुँचाना है। साहित्य की सभी विधाओं में से डायरी एक ऐसी विधा है जिसमें लेखक को उसके व्यक्तित्व से अलग करना संभव नहीं। डायरी की इस विधागत विशेषता का शिखा ने भरपूर उपयोग किया है।
वर्षों से लन्दन में बसी शिखा वार्ष्णेय ने लन्दन की डायरी में लन्दन में होने वाली गतिविधियों को अपनी पैनी दृष्टि से देखा और उकेरा है। अपने दैनिक जीवन के साधारण से लगने वाले अनुभवों और प्रसंगों के बारे में लिखते समय शिखा का ध्यान घटना विशेष तक सीमित न रह कर उसके भीतर की परतों को उधेड़ कर उसके भीतर किसी न किसी सामाजिक मुद्दे को उद्घाटित करता है। डायरी पढ़ते समय मुझे लगा कि इसके पाठक कई अलग-अलग स्तर के होंगे। कुछ लन्दन के जीवन की जानकारी लेने के लिए एक के बाद एक प्रसंग सरसरी निगाह से पढ़ कर आगे बढ़ जाएंगे, लेकिन एक दूसरा वर्ग उन पाठकों का होगा जो हर एक प्रसंग के भीतर छिपे प्रश्नों को अनावृत कर उसपर देर तक सोचना चाहेंगे।
लन्दन के जीवन के ये विवरण यहाँ के जीवन का विवरण मात्र न होकर उसकी पूरी पड़ताल करते हैं। प्रसंग पूरा पढ़ने के बाद उन मुद्दों पर सोचने को विवश करते हैं जिनका वे संकेत मात्र करके आगे बढ़ जाती हैं और वहीं से पाठक का विचार मंथन शुरू होता है।
अपने शीर्षक को सार्थक करती हुई यह डायरी लन्दन के जीवन के कुछ परिदृश्यों की झांकी देती है। शिखा ने उन्हें अपनी देशी निगाह से देखा, उनके भीतर के सामाजिक सरोकारों का संकेत भर करके छोड़ देना डायरी को साधारण पाठक के लिए रोचक बनाता है और चिंतक को अपनी तरह से उसका विश्लेषण करने का मौका देता है।
रानी ऐलिज़ाबेथ की हीरक जयंती का प्रसंग, ‘अपनी जनता से मिलने का दौरा (जुबली टूर) पिछले दिनों रेडब्रिज नाम के इलाके से शुरू किया। इस इलाके में उस दिने करीब 1 किलोमीटर तक सुबह 7 बजे से ही लगभग 10,000 लोग जमा हो गए थे। इलाके के सभी प्राईमरी और सेकेंडरी स्कूलों के कुछ चुनिंदा बच्चों को रानी से मिलने का गौरव प्रदान करने के लिए वहीं सड़क पर धूप में पहले जमा कर दिया गया था।    माँएं अपने नवजात बच्चों को लिए रानी के दुर्लभ दर्शनों के लिए घंटों सड़क पर खड़ी इंतज़ार करती रहीं। निर्धारित समय पर रानी की सवारी आई साथ में एडिनबरा के राजकुमार भी। कार से उतरकर दोनों तरफ लोगों की भीड़ से घिरी एक सड़क पर कुछ दूर चलीं। जो लोग सड़क के निकट थे उन्हें एक झलक नसीब हुई। …फिर वह अपनी कार में स्कूली बच्चों के बीच से निकलीं। बच्चों को कार से एक हाथ हिलता दिखाई दिया और कुछ बड़े बच्चों को एक झलक चेहरे की भी दिख गई और बस हो गया रानी का गौरवपूर्ण दर्शन समारोह संपन्न।’
पूरे विवरण के पीछे छिपा व्यंग्य राज परिवार के जन साधारण से संपर्क करने के कृत्रिम प्रयास को बिना किसी लाग लपेट के सामने ले आता है। इतना ही नहीं, भारत में जन्मे ईस्ट इंडिया कंपनी के चीफ एक्ज़ीक्यूटिव संजीव मेहता का इस उपलक्ष्य में 125,000 के सोने के सिक्कों पर हीरों का मुकुट पहने रानी की छवि बनाना जबकि यूरोप आर्थिक मंदी और बेरोज़गारी से गुज़र रहा है। वैभव के इस अशोभन प्रदर्शन की विसंगति पर विचार करने का काम पाठक पर छोड़ कर शिखा प्रसंग को यही समाप्त कर देती हैं।
इस युग में बुढ़ापा और अकेलापन समानार्थी होते जा रहे हैं। यह समस्या किसी एक देश की न होकर कमबेशी रूप से सर्वदेशीय है। बेटा-बेटी, पोता-पोती से भरा पूरा परिवार रहते हुए भी आज के वृद्ध अपने अकेलेपन से आक्रांत हैं। वे जीवन के शेष दिन पिक्चर गैलरी में फोटोफ्रम में जड़े पारिवारिक चित्रों को देखकर ही अपने परिवार के अस्तित्व का अहसास करते हैं। शिखा का प्रश्न है, ‘क्या प्यार और अपनेपन की ज़रूरत सिर्फ बच्चों और जवानों को होती है?’
दूसरी तरफ नई पीढ़ी के सरोकार हैं। मकानों के बढ़ते हुए भाड़े और मूल्य चुकाने में असमर्थ युवा पीढ़ी अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद स्वतंत्र रूप से रहने के बदले अपने माता पिता के पास लौटने को विवश हो रहे हैं। इस निर्णय के पीछे मातापिता का प्यार न होकर उनकी आर्थिक सीमा के यथार्थ से शिखा पूरी तरह से परिचित हैं।
‘लुढ़कने वाले बच्चे’ नामक प्रसंग में उनकी यथार्थवादी दृष्टि के दर्शन होते हैं। लंदन की सड़कों पर बढ़ते हुए जघन्य, हिंसक अपराध, नेशनल हेल्थ सर्विस की वेटिंग लिस्ट, स्त्रियों के प्रति आए दिन होने वाले यौन अपराध आदि के प्रसंग नर्सरी राइम्स में वर्णित लन्दन की सुन्दर छवि पर एक प्रश्न चिन्ह लगाते हैं। इस प्रकार के विषयों की विविधता और दृष्टि का पैनापन इस डायरी को पठनीय बनाता है। यह डायरी लन्दन घूमने आने वालों के लिए गाइडबुक नहीं यहाँ के कुछ सामाजिक मुद्दों को अत्यंत सरल भाषा में निष्पक्ष रूप से प्रस्तुत करने का एक सराहनीय प्रयास है।
देशी चश्मे से लन्दन डायरी,
लेखिकाः शिखा वार्ष्णेय,
प्रथम संस्करणः 2019,
प्रकाशकः समय साक्ष्य, देहरादून-248001,
पृष्ठ संख्याः 183, मूल्यः रु.200/- मात्र
Aruna Ajitsaria MBE, Email: arunaajitsaria@yahoo.co.uk

Sunday, July 28, 2019

एक अनूठी रोचक पुस्तक ‘देशी चश्मे से लंदन डायरी’ (डॉ. उषा किरण)

 

पूरी किताब लिखकर छपवाने के बाद पुस्तक की लेखिका शिखा वार्ष्णेय जब बेहद, मासूमियत से हमसे पूछतीं हैं कि मेरी किताब ‘देशी चश्मे से लंदन डायरी’ किस विधा के अन्तर्गत आएगी तो उनकी सादगी पर बहुत प्यार आता है और कहीं पढ़ी ये पंक्तियाँ बरबस याद आ जाती है…. ‘लीक पर वे चलें जिनके पग हारे हों’।

अब चाहें किसी भी विधा में आती हो पर उक्त पुस्तक बेहद मनोरंजक, ज्ञानवर्धक व संग्रहणीय है जिसे शिखा वार्ष्णेय ने बहुत दिल से काफी रिसर्च व ऑब्जर्ब करने के पश्चात लिखा है। ऐसा लगता है जैसे हमारे लिए कोई झरोखा खोल दिया है लंदन से या फिर जैसे कोई हमारी बहुत आत्मीय स्वजन दोनों देशों के बीच एक ऐसा दर्पण लेकर खड़ी हैं जिसमें एक तरफ तो लंदन व आसपास की सांस्कृतिक, राजनैतिक, आर्थिक, भौगोलिक एवम् सामाजिक झलक देखने को मिलती है तो दूसरी तरफ हम विदेशी परिप्रेक्ष्य में अपनी संस्कृति, सभ्यता व नैतिक मूल्यों को भी तुलनात्मक रूप से तौलते चलते हैं।

जब भी हमारे बच्चे या हम लंदन जाना चाहें या कि जा रहे है या जाकर लौटे हों तो जो प्रश्न लगातार दिमाग में बंवडर मचाते हैं उन सभी का उत्तर है इस पुस्तक में।

लंदन की साफ-सुथरी सड़के, वैभव-पूर्ण ऊँची इमारतें, बहुत सुंदर साफ हरे-भरे पार्क, सभ्यता, तमीज, अनुशासन, खूबसूरत गोरे-चिट्टे, लम्बे जैसे साँचे में ढ़ले मोम के पुतले जैसे लोगों को देख बरबस मूंह से निकलता है- ‘”गर फिरदौस बर रूये ज़मी अस्त हमी अस्तो हमी अस्तो”  ’ लगता है स्वर्ग ऐसा ही होता होगा! कहीं कोई समस्या ही नहीं होती होगी यहाँ के लोगों को परन्तु जब शिखा की लंदन डायरी पढ़ी तो सारा भ्रम जाता रहा कि नहीं आखिर तो हम इंसान हैं चाहे जहाँ रहें पूर्ण कैसे हो सकते हैं। सभी की अपनी उपलब्धियाँ हैं तो परेशानियाँ और समस्याएं भी है जिनसे वे लगातार जूझ रहे हैं।

बचपन में जैसे बाइस्कोप वाला चंद पैसों में चुटकियों में हमें भारत भ्रमण करा देता था ठीक वैसे ही 63 आलेखों के माध्यम से शिखा हमें बेहद रोचक-शैली में एक के बाद एक लेख पढ़ने के लिए मजबूर कर देती है। पहले आलेख ‘पुरानी साख व गौरवपूर्ण इतिहास’ में वे वहाँ के राजसी ठाठ-बाठ के बारे में बताते हुए कहती हैं कि आज ब्रिटेन भी बाकी देशों की तरह आर्थिक मंदी से गुजर रहा है ऐसे में इंगलैंड की रानी का हीरक-जयंती पर शाही सेलिब्रेशन में खुल कर खजाना लुटाने पर वे अपनी प्रतिक्रिया देती हैं कि ‘पूरा यूरोप किस आर्थिक मंदी से गुजर रहा है अब यह किसी से छुपा नहीं है पर बढ़ती बेरोजगारी व गरीबी जैसी समस्याओं का असर कहीं पड़ता नहीं दिखाई देता।

दूसरे आलेख ’लोमड़ी का आंतक’ जब हम पढ़ते हैं तो हँसी आ जाती है। ‘लो जी लंदनवासियों, हम जाने कब से बंदरों, गली के आवारा कुत्तों, सांपों, मक्खियों, मच्छरों से दो-दो हाथ कर रहे है और तुमसे एक लोमड़ी मौसी नहीं संभल रहीं, नाक में दम कर रखा है उनका. वे लिखती है कि ‘यू के एक ऐसा देश है जहाँ सर्वोच्च पद पर महारानी के रूप में स्त्री ही आसीन है वहाँ भी स्त्रियों के खिलाफ अपराध व भेदभाव के किस्से प्रायः सुनाई दे जाते हैं’ पढ़ कर हम कुछ सोचने पर विवश हो जाते हैं। पर वहीं जब हम पढ़ते हैं कि स्कूलों में लड़कों व लड़कियों को समान रूप से सिलाई, कुकिंग, छोटी-मोटी रिपेयरिंग, बुजुर्गों की देखभाल सिखाई जाती है तो अच्छा लगता है।

हमारे अंधविश्वास पर, हंसने वालों, तोहमतें लगाने वालों की आँखों में आँखें डाल ‘अंधविश्वास की व्यापकता’ आलेख में शिखा पूछती हैं कि भाई ठीक है हमारी रोजमर्रा की न जाने कितनी बातों को अंधविश्वास या रूढ़िवादिता कहा जाता है परन्तु भारत से बाहर लगभग सभी देशों व समाज में इस तरह की धारणाएं प्रचलित हैं। वे कहती है हाँ हम पत्थर की मूर्ति पूजें तो अंधविश्वासी और ये जो  ‘स्टोन हैज’ को विरासत समझ सहेज रहे हैं वो क्या हैं? हम भूतों चुडैलों को मानते हैं तो आपके यहाँ भी तो हान्टेड हाउस हैं जहाँ प्रेतात्माएं टहलती हैं। हैलोइन जैसे त्यौहार तो आप भी मनाते हैं… ठीक है हम परियों की, फरिश्तों की कहानियों से बच्चों को सपने दिखाते हैं तो आपके सांता क्लॉज भी तो बच्चों को भरमाते ही हैं। यदि हम पुनर्जन्म में आस्था रखते हैं तो मरने के अगले ही दिन पुनः ईसा मसीह का जिंदा हो जाना भी तो वही है न?

अपने देश पर गर्व महसूस होता है जब ये ‘प्रवासी का महत्व’ आलेख में बताती हैं कि ब्रिटेन में भारत का चिकन टिक्का राष्ट्रीय पकवान माना जाता है। वह ब्रिटेन जिसकी आर्थिक उन्नति में विदेशी यात्रियों का बहुमूल्य योगदान है जिसके प्रसिद्ध विश्वविद्यालय की शान विदेशों से आने वाले छात्र ही बढ़ाते हैं।

अच्छा लगा पढ़ कर कि वहाँ के लोग हर संस्कृति को अपना लेते हैं। क्रिसमस के साथ होली, दीवाली, ईद, नवरात्रि, गरबा सब त्यौहारों को मिलजुल कर अनुशासित ढंग से मनाते हैं। वे लिखती हैं कि ‘मतलब साफ है आपको अपने हाथ फैलाने का हक है पर वहीं तक जहाँ से किसी और की नाक नहीं शुरू होती’। वे पतझड़ को भी उत्सव की तरह मनाते हैं।

लिखती हैं कि जब भी इंडिया में कोई बड़ा हादसा होता है तो उसकी धनक लंदन प्रवासी भारतीयों के मन में भी छटपटाहट पैदा करती है। उनको भी बुरा लगता है क्योंकि इससे विदेशों में हमारे देश की छवि खराब होती है। वे मदद करने की भी कोशिश करते हैं।

‘ऐसा भी चुनावी प्रचार’ में लेखिका लिखती है कि हमारी तरह लाउडस्पीकर का शोर नहीं, कहीं कम्बल नहीं बंटते, घर-घर जाकर हाथ जोड़ने की भी परम्परा नहीं, साफ-सुथरी दीवारें, एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप के स्थान पर वे सब सिर्फ अपनी पॉलिसी एवं कार्यो का ब्यौरा देते हैं। यह सब चुनावी बवंडर से गुजरे हम भारतवासियों को अनुकरणीय लगता है। साथ ही हैरानी होती है यह पढ़ कर कि यू के के प्रधानमंत्री व एम पी भी मेट्रो से ऑफिस जाने में गुरेज नहीं करते। साधारण घर में रहते हैं, आम लोगों की तरह लाइन में लगते हैं। मेयर ‘बोरिस जॉनसन’ साइकिल से ऑफिस जाते थे।

‘गलियों के गैंग’ पढ़कर ज्ञान होता है कि वहाँ गैंग्स की गुंडागर्दी से जूझ रहे समाज व अभिभावकों के लिए कितनी चिंता का विषय है। इसके अलावा बच्चों पर बढ़ता शिक्षा का दबाव, बढ़ती स्वास्थ्य समस्याएं, मंदी की मार पर भी प्रकाश डाला है। अधिकारों की दुविधा जैसे लेख पढ़ कर लगता है कि बहुत कुछ समस्याएं समान हैं। आपने युवकों की समस्याओं लाइफ स्टाइल व मानसिकता पर भी लिखा है। सोलह वर्ष की आयु के पश्चात माता -पिता से अलग रहने की मजबूरी और भविष्य में पुनः संयुक्त-परिवार की संभावना पर भी प्रकाश डाला है। शिक्षा व्यवस्था में परिवर्तन व प्रतियोगिताओं के बढ़ते प्रेशर के कारण वहाँ के बच्चों का दर्द शिखा को द्रवित कर देता है क्योंकि वहाँ भी फ्रस्टेटेड होकर वे आत्महत्या कर रहे हैं।

माँ के भी नौकरी करने के कारण बच्चों की परवरिश की समस्या दोनों देशों में लगभग समान ही है। नैनी व क्रच के विकल्प मौजूद है पर सारे दिन माँ से अलग रहकर बच्चा माँ के सीने से लग रात में यही पूछेगा कि ‘कल स्कूल से लेने आप आओगी न मम्मा…’। इस पुस्तक में बुजुर्गो की समस्याओं पर भी प्रकाश डाला गया है। जहाँ हमारे देश में तीन पीढ़ियाँ आज भी कई परिवारों में हंसी-खुशी साथ रह लेती हैं, एक दूसरे का सहारा बनती हैं वहीं इंग्लैंड में ज्यादातर लोग अकेले जीवन बिता रहे हैं। परन्तु कहीं न कहीं असहिष्णुता व आधुनिकता के चलते हम भारतीय भी इस व्यवस्था को अपनाते जा रहे हैं। जो बहुत दुखद है।

बहुत अच्छा लगा पढ़ कर कि जहाँ हमारे यहाँ हिन्दी की उपेक्षा होती है लोग इंगलिश बोलने में शेखी समझते हैं वहीं लंदन में हिन्दी को बहुत सम्मान प्राप्त है। स्कूलों में भी हिन्दी बहुत चाव से सीखते हैं व समय-समय पर हिन्दी में विभिन्न प्रतियोगिताएं आयोजित होतीं हैं। वे हास्य के मूड में काका हाथरसी को याद करती हैं क्योंकि कभी उन्होंने रूस जाकर हिन्दी सीखने की बात की थी. कहती हैं वे आज होते तो कहते-

‘पुत्र छदम्मी लाल से बोले केसरी नंदन,

हिन्दी पढ़नी होय तो जाओ बेटा लंदन।‘

एक समय था जब दुनिया के हर कोने से बेहतर इलाज़ के लिए लोग लन्दन जाते थे आज उसी लंदन शहर में अपने नागरिकों के लिए बेहतर स्वास्थ्य-व्यवस्था नहीं है। वहाँ की कमजोर होती अर्थव्यवस्था पर भी उक्त पुस्तक प्रकाश डालती है।

‘यहाँ भी बाबा’ पढ़ कर हैरानी होती है कि सैकड़ों एशियन लंदन में झाड़-फूंक या भूत- आत्माओं के भगाने के चक्कर में पैसों व जान से हाथ धो बैठते हैं।

‘योगा डे’ की तर्ज पर ही कुत्तों के लिए ‘डोगा डे’ की भी कक्षाएं चलती हैं। धन्य हो! पढ़ कर हंसी आ जाती है। ‘डब्बा वाला ऑफ़ लंदन वे कहती है कि किसी अंग्रेज को खाने की इतनी चिन्ता करते नहीं देखा जितनी हम भारतीयों को रहती है कि ‘बेटा शादी कर लो तब विदेश जाना वर्ना खाने-पीने की परेशानी होगी’। तो भई जिनके भी बच्चे लंदन जाना चाहते है या जा रहे हैं बेफिक्र होकर जाएं शिखा ने बताया कि हर तरह का डब्बा वाला, भारतीय खाने की व्यवस्था है वहाँ भी।

लिखती है कि हैरानाी होती है कि यहाँ युवाओं में विवाह-संस्था के प्रति सम्मान माता-पिता व बुजुर्गों का सम्मान करने वाली युवा पीढ़ी बेहद सुलझी व इरादों में स्पष्ट है। इसके अतिरिक्त स्कूल बस का महत्व वी.आई.पी. कल्चर खेलों के प्रति बढती आशा, ऐसा भी दान (शुक्राणु दान), हॉर्न- संस्कृति, अधिकारों की दुविधा आदि विषयों पर भी बहुत बेबाकी से रोचक व ज्ञानवर्धक तरीके से लेखिका ने अपने विचार प्रस्तुत किए हैं।

वे बताती है कि बेशक भारतीय भारत से निकल आयें पर उनके अंदर से भारत को नहीं निकाला जा सकता। भारत और उसकी संस्कृति किसी न किसी रूप में उनके अंदर सांसें लेती ही रहती है। यहाँ के रहन-सहन, व्यवहार, परम्पराओं को भले ही हमने छोड़ दिया है परन्तु अभी भी वहाँ उसे दिल में बसा रखा है और उसमें बहुत बड़ा हाथ टीवी चैनलों से प्रसारित होने वाले धारावाहिक फिल्मों व हिन्दी गानों का भी है।

थेम्स के किनारे लगे साउथ ईस्ट सांस्कृतिक मेले व उसमें सजे भारतीय व्यंजनों के स्टाल देख याद कर वह कह उठती हैं-

‘नींद मिट्टी की महक सब्जे की ठंडक

मुझको अपना घर बहुत याद आ रहा है।

शिखा के रंग-रूप पर बिल्कुल भी न जाएं क्योंकि उनका दिल पक्के हिन्दुस्तानी रंग में रंगा है और वे भारतीय संस्कृति व सभ्यता से पूर्णतः लबरेज है जो कि आपको इस पुस्तक को पढ़कर साफ नजर आ जाएगा।

तो यदि आप या आपके बच्चे या परिचित जो कोई लंदन जा रहे हों या वहां के बारे में कैसी भी उत्सुकता हो तो आपको ‘देशी चश्में से लंदन डायरी’ अवश्य पढ़नी चाहिए और अपने मित्रों व परिचितों को गिफ्ट भी करनी चाहिए।

मैं शिखा को इतनी ज्ञानवर्धक व रोचक पुस्तक लिखने के लिए बधाई देती हूँ। लीक से हट कर लिखी यह पुस्तक कहीं मील का पत्थर साबित होगी।

और अंत में शीतल माहेश्वरी को भी बधाई दिए बिना लेखन अधूरा रह जाएगा। प्रथम प्रयास है यह उनका पर लंदन की जगमगाहट व ग्लैमर को उन्होंने बखूबी कवर पेज में समेटा है.

डॉ. उषा किरण

हेड ऑफ़ दि डिपार्टमेंट(फाइन आर्ट)

मेरठ कॉलेज

मेरठ

***

पुस्तक – देशी चश्मे से लन्दन डायरी (2019)

लेखिका – शिखा वार्ष्णेय

प्रकाशक – समय साक्ष्य

मूल्य – 200 रु

पुस्तक amazon.in पर उपलब्ध

 

 (शिवना साहित्यिकी का वर्ष : 4, अंक : 14 त्रैमासिक : जुलाई-सितम्बर 2019 से साभार)

Sunday, May 19, 2019

गर्मी की छुट्टियाँ

ग्रीष्मकालीन अवकाश, स्कूल वर्ष और स्कूल के शैक्षणिक वर्ष के  बीच गर्मियों में स्कूल की एक लम्बी छुट्टी को कहते है। देश और प्रांत के आधार पर छात्रों और शिक्षण स्टाफ को आम तौर पर छ: से आठ सप्ताह के बीच यह अवकाश दिया जाता है। जहाँ भारत में यह अवकाश सामान्यत: पाँच से छ: सप्ताह का होता है वहीँ संयुक्त राज्य अमेरिका में, गर्मियों का ब्रेक लगभग ढाई महीने का होता है जबकि ब्रिटेन, नीदरलैंड और जर्मनी में छह से आठ सप्ताह की तुलना में आयरलैंड, इटली, लिथुआनिया और रूस में, गर्मियों की छुट्टियां आम तौर पर तीन महीने की होती हैं.

अब सवाल यह आता है कि आखिर इस गर्मी की छुट्टी की उत्पत्ति हुई कैसे ?

इस विषय में कई मिथक हैं। इनमें से एक यह है कि गर्मियों की छुट्टी अंग्रेजी परिवार के कैलेंडर से उत्पन्न हुई है। इस मिथक के अनुसार, यह माना जाता था कि स्कूल के बच्चे खेतों में अपने माता-पिता की मदद करने के लिए गर्मियों के दौरान कुछ छुट्टियां लेते थे। इस कहानी में कितनी सच्चाई है पता नहीं परन्तु गृह युद्ध से पहले, स्कूली बच्चों ने गर्मियों के दौरान स्कूल से कभी कोई छुट्टी नहीं ली। अमेरिकी विद्यालयों के ग्रीष्मकालीन अवकाश के इतिहास को देखने से पता चलता है कि 1842 में, डेट्रायट शहर में स्कूली बच्चों का एक शैक्षणिक वर्ष 260 दिनों तक चला था।

असल में, अमेरिका में गर्मियों की छुट्टी के मूल में अमेरिकी समाज में बढ़ता मध्यम और उच्च वर्ग का परिवेश था। गर्मियों के समय, अधिकांश धनी और संपन्न परिवार अपने बच्चों के साथ गर्मी के मौसम से बचने के बहाने शहर से बाहर किसी ठंडी जगह पर चले जाते थे। इससे स्कूल की उपस्थिति और पढाई प्रभावित हुई क्योंकि उस समय स्कूल की उपस्थिति अनिवार्य नहीं थी। जब यह लगातार जारी रहने लगा तब, विधायक और श्रमिक संघ के अधिवक्ताओं ने स्कूली बच्चों के लिए गर्मी की छुट्टी यानि एक लम्बे ब्रेक के लिए तर्क दिए. उनका कहना था कि पूरे वर्ष भर पढ़ाई करना बच्चों के लिए ठीक नहीं है क्योंकि मस्तिष्क एक मांसपेशी है जिसे आराम देने की भी आवश्यकता होती है।

यूँ भारत में गुरुकुल प्रणाली होने के कारण इन छुट्टियों उल्लेख नहीं मिलता संभवत: अंग्रेजी स्कूल शिक्षा प्रणाली के साथ ही यह व्यवस्था आई होगी और इसका उद्देश्य एवं कारण मुख्यत: दो रहे होंगे एक तो मौसम – स्कूलों में समुचित व्यवस्था के आभाव में अत्यधिक गर्मी से बचने के लिए (और ठन्डे स्थानों में ठण्ड से बचने के लिए) तथा पूरे वर्ष पढ़ाई के उपरान्त पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य गतिविधियों के लिए भी छात्रों के हित में एक लम्बे अवकाश की आवश्यकता महसूस की गई होगी. इसके अलावा परिवार के प्रति अलगाव न हो, बच्चे अपने घर परिवार के लोगों के साथ भी समुचित समय बिता पायें एवं स्कूल से जुड़े अन्य बचपन के तनाव जैसे कि पीयर प्रेशर और होमवर्क के भारी बोझ से दूर रहें इसके लिए भी छुट्टी की आवश्यकता मानी गई होगी.

दूसरा – अध्यापक आदि को प्रशिक्षित करने व अगले वर्ष के लिए तैयारी करने के लिए समय मिले इस कारण भी इस अवकाश की योजना बनाई गई होगी .

जैसे-जैसे समय बीता, गर्मियों की छुट्टी एक आदर्श बन गई और स्कूल वर्ष के कैलेंडर से लगभग 40- 60 दिन हट गए।

धीरे-धीरे, गर्मियों की छुट्टियां उन व्यापारिक लोगों के लिए एक प्रकार का व्यवसाय बन गईं, जिन्होंने इस ग्रीष्मकालीन अवकाश का लाभ उठाकर इसे एक व्यवसाय उद्योग और उद्यम में बदल दिया।

अब सामान्यत: इन छुट्टियों में नानी का घर आबाद करने वाले बच्चे दूर शहर या देश के पर्यटन के लिए उत्सुक होने लगे. जहाँ गर्मियों की छुट्टियां नानी के घर जाकर रिश्तेदारों से मिलने, नए दोस्त बनाने, आसपास के इलाकों में भ्रमण करने और नै पुराणी परम्पराएं सीखने का उपयुक्त माध्यम और स्थान हुआ करती थीं वहीँ अब ये महंगी यात्राओं, होटल और विलासिता का पर्याय होने लगीं. कालांतर में हालात यह हुए कि बच्चों के सर्वागीर्ण विकास और आराम के मद्देनजर बनाईं गईं ये छुट्टियां बच्चों और उनके माता – पिता के लिए अतिरिक्त कार्य और तनाव का कारण बन गईं. क्योंकि एक तो प्रतियोगिता के इस दौर में स्कूल से ही छुट्टियों में भी खूब गृहकार्य दिया जाता है. दूसरा छुट्टियां बच्चों की होती हैं उनके अविभावकों की नहीं. ऐसे में उनपर बच्चों की दूर देश घूमने की इच्छा अतिरिक्त आर्थिक और मानसिक बोझ डालती है और छुट्टियाँ मौज मस्ती से हटकर एक अभियान का रूप ले लेती हैं. ऐसे में क्या ही अच्छा हो यदि बच्चों को इन छुट्टियों का सदूपयोग करना सिखाया जाए. उन्हें घर और समाज से जुड़े वे कार्य और बातें सिखाई जाएँ जो उन्हें स्कूल में नहीं सिखाई जातीं जो उन्हें एक अच्छा नागरिक बनने में मदद करें. उन्हें यह समझाया जाए कि घूमना व्यक्ति के लिए समाज और दुनिया को वृहद् रूप में देखने और समझने के लिए होता है, विलासिता के लिए नहीं.

Monday, April 22, 2019

जाना होगा उसे (???)

 

छोड़ना होगा उसे वह घर

वह आंगन, वह फर्श, वह छत।

जिससे जुड़ा है उसका जन्म, बचपन,

उसका यौवन, उसका जीवन।

कहते हैं लोग इसी में उसकी भलाई है

यही रीत चली आई है।

अब वह खुद ही खुद को संभाले

भोगे अपने सुख दुख अकेले

पुराने नातों को बिसरा दे।

वह ठिठकती है हर कदम पर

निकलने में कमरे से ही देरी करती है

फिर विदा कहते कहते अतिरिक्त समय लगा देती है।

कभी रसोई में तो कभी आँगन में अटक जाती है

फिर दरवाजे पर खड़ी होकर बतियाती है।

बस आ रही हूँ, कह कर, बार बार रुक जाती है।

दरवाजे पर खड़ा दरबान राह दिखाता है

वाहन चालक चिल्लाता है।

करो जल्दी, पहले ही हो गई है देरी

अब और कितनी टालम टोली।

पर कैसे निकल जाए वह

कैसे मान जाए यह, कि जो निकली तो

सुख दुख नहीं रहेंगे साझा

कुछ भी अब न होगा आधा आधा।

कि आने जाने को भी लेनी होगी अब इजाजत

कि हर बात अब होगी एक तिज़ारत।

तो वह जड़वत सी हो जाती है

यहाँ वहाँ मंडराती है।

इस आस में कि रोक ले कोई

अगर जाना ही है नियति तो

न बांधे किसी सीमा में,

दिखा दे मध्य मार्ग कोई।

कि न टूटें पुराने रिश्ते

न छूटें उसके अपने

साझा बने रहें सपनें…

दरअसल, ब्रेक्जिट तो बहाना है

एक बेटी को घर छोड़ के जाना है…

 

Wednesday, March 20, 2019

कुमायूँनी होली -

क्या अब भी होली की टोली
घर घर जाया करती है ?
क्या सांझ ढले अब भी 
महफ़िल जमाया करती है।

क्या अब भी ढोलक की थापों पे
ठुमरी, ख्याल सजाये जाते हैं ?
“जोगी आयो शहर में व्योपारी”
क्या अब भी गाये जाते हैं।

क्या अबीर गुलाल की बिंदी
हर माथे पे लगाई जाती है ?
क्या गुटके रेता की अब भी
थाली जिमाई जाती है।

क्या अब भी खड़ी, बैठकी होली का
रिवाज निभाया जाता है ?
हुड़दंगी होली से अलग क्या
सांस्कृतिक पर्व मनाया जाता है।

छोड़ आये हम वो गलियाँ…

Tuesday, February 5, 2019

फिर वही सुबह...

आज शायद 22 साल बाद फिर इस शहर में यह सुबह हुई है। रात को आसमान ने यहाँ धरती को अपने प्रेम से सरोबर कर दिया है। गीली मिट्टी की सुगंध के साथ धरा महक उठी है।
आपके इस शहर में आज फिर हूँ। हर तरफ आपके चिन्ह दिखाई पड़ते हैं। वह नुमाइश ग्राउंड में लगे बड़े से पत्थर पर आपका नाम, घर के हर कमरे में आपके हंसते हुए चेहरे वाली आपकी तस्वीरे और हर मिलने जुलने वाले की जुबान पर आपका नाम।
आपके इस शहर में हूँ आज, इस दिन। शादी के बाद पहली बार आपके जन्मदिन पर। मेरी शादी के समय का वह समय किसी फिल्म की तरह नजरों के सामने घूम रहा है। एक दिन बाद मेरी एक नई ज़िन्दगी शुरू होने वाली थी और एक दिन पहले आपने अपने जन्मदिन का केक उसी उत्सव स्थल पर काट कर जैसे मौन संदेश दिया था कि जाए तू कहीं भी हम हैं साथ और हमेशा रहेंगे। तब से आजतक आपको हमेशा अपने साथ ही पाया । हालांकि एक सुरक्षा कवच हमेशा अपने शीश पर पाया, जब आप सदेह थे तब भी और अब जब सिर्फ एहसास है तब भी। पर फिर भी मन कहता है कि काश एक बार फिर आकर केक काट कर आप कह जाते…मैं हूँ न !
हैप्पी बर्थडे पापा।

Monday, October 1, 2018

एक नया अध्याय

बच्चे न तो आपकी मिल्कियत होते हैं न ही फिक्स डिपॉजिट जिन्हें आप जब चाहें, जैसे मर्जी चाहें रख लें या भुना लें। बच्चे तो आपके माध्यम से इस समाज और दुनिया को दिया गया सर्वोत्तम उपहार हैं जिन्हें आप अपनी सम्पूर्ण क्षमता और अनुराग के साथ पालते हैं, निखारते हैं और इस दुनिया के लायक बनाते हैं। उनपर आपका कर्तव्य और अधिकार अब पूरा होता है। अब वक्त है उन्हें अपनी उड़ान स्वयं लेने देने का। पसार कर अपने पंखों को छोड़ देना इस उन्मुक्त गगन में उड़ने को, लेने देने को उनके सपनों को आकार और फिर उन्हें पूरा करने को। अबतक बच्चे ने आपसे, स्कूल से, इस समाज से जो भी सीखा, अब वक्त है वह सब कुछ इस समाज को लौटाने का।

बच्चे के जीवन का नया अध्याय शुरू होता है.

ज़रा सोच कर देखिये, हम बच्चा क्यों चाहते हैं? क्या इसलिए कि वह बड़ा होकर भी हमारी गोद में बैठा रहे, हमारी सेवा करे, और मरने के बाद हमारा क्रियाकर्म कर हमें स्वर्ग में जगह दिलाए?

क्या बच्चे के रूप में हम अपनी स्वार्थ पूर्ती का एक साधन चाहते हैं? या फिर एक ऐसा इंसान चाहते हैं जो स्वयं खुश रहे और समाज में सकारात्मक योगदान देकर हमें भी प्रसन्नता प्रदान करे. एक माता -पिता को सबसे अधिक ख़ुशी होती है अपने बच्चे को खुश और कामयाब देखकर. उनका सीना गर्व से फूलता है तो समाज में अपने बच्चे का मान – सम्मान देखकर. बच्चे की प्रशंसा- प्रशस्ति से वे सबसे अधिक सुख महसूस करते हैं और इसके लिए जरुरी है कि एक समय के बाद उसके व्यक्तित्व के विकास के लिए उसे अपनी सरपरस्ती से थोड़ा अलग किया जाये. अपने व्यक्तिगत स्वार्थ को छोड़कर बच्चे की ख़ुशी और समाज के प्रति उसकी जिम्मेदारियों को समझकर उसे उसके कर्तव्यों की पूर्ती के लिए प्रोत्साहित किया जाये. उसे यह यकीन दिलाया जाए कि वह चाहे हमारे पास रहे या दूर, हमारा स्नेह, आशीर्वाद और सामीप्य उसके साथ है और हर परिस्थिति में उसके साथ रहेगा. वह हमारा बच्चा है, हमारा ही रहेगा पर अब वह एक अलग इंसान भी है, इस समाज का एक उत्कृष्ट नागरिक बनने की ओर अग्रसर है. अब उसकी जिम्मेदारियां बढ़ रही हैं, उसके सपने साकार होने की तरफ हैं और उसके जीवन का मकसद उसे पूरा करना है. इस मकसद में आपके दिए संस्कार और शिक्षा उसके काम आएगी. आपका प्यार और साथ उसका संबल बने न कि रूकावट.

यूँ मानव स्वभाव तो बदलता नहीं. कुछ मोह माया तो स्वाभाविक है. अंग्रेज माएं भी बेटे को हॉस्टल में छोड़ते हुए गले लगाकर रोती है, अंग्रेज पिता भी पीछे से चिल्लाकर कहता है…मौज करना पर “पीना” मत. छोटी बहन चहकती हुई हाथ हिलाती है और एक बेहतरीन, पढ़ाकू टाइप यूनिवर्सिटी में भी, फ्रेशेर्स के लिए “वेलकॉम पैक” में सीनिअर कंडोम रखते हैं. दि यूनी लाइफ विगेन…

तो मुबारक नई उड़ान, नया संसार, नई जिम्मेदारियां और नया आकाश।

Give the world the best and the best will come back to you.

(एक नया दिन, एक नई शुरुआत – यूनिवर्सिटी का पहला दिन)

Saturday, April 14, 2018

क्या ? क्यों ? किसके लिए ?

बहुत दिनों से कुछ नहीं लिखा। न जाने क्यों नहीं लिखा। यूँ व्यस्तताएं काफी हैं पर इन व्यस्तताओं का तो बहाना है. आज से पहले भी थीं और शायद हमेशा रहेंगी ही. कुछ लोग टिक कर बैठ ही नहीं सकते। चक्कर होता है पैरों में चक्कर घिन्नी से डोलते ही रहते हैं. न मन को चैन, न दिमाग को, न ही पैरों को. तीनो हर समय चलायमान ही रहते हैं. पर लिखना कभी इनकी वजह से नहीं रुका। वह चलता ही रहा,कभी विषय भी ढूंढना नहीं पड़ा.  उठते , बैठते , खाना पकाते , झाड़ू मारते, बर्तन धोते, टीवी देखते यहाँ तक कि डिलीवरी बैड पर दर्द सहते और सोने की कोशिश करते भी, कुछ न कुछ लिखा ही जाता रहा, कभी कागज़ पर तो कभी मन पर.

परन्तु आजकल न जाने क्यों, न लिखने के बहाने ढूंढा करती हूँ. विषय ढूंढने निकलती हूँ तो सब बासी से लगते हैं. वही स्त्रियों पर अत्याचार, वही मजबूर बीवी और माँ, वही एक दूसरे को काटने- खाने को दौड़ते बुद्धिजीवी, वही छात्रों- बच्चों को सताती शिक्षा व्यवस्था, वही चूहा दौड़ और वही कभी इधर तो कभी उधर लुढ़कते हम. क्या लिखा जाए इन पर? और कब तक ? और आखिर क्यों ? जब भी मस्तिष्क को स्थिर कर कुछ लिखने बैठती हूँ, ऐसे ही न जाने कितने ही सवाल गदा, भाला ले हमला करने लगते हैं.और मैं उन सवालों के जबाब ढूंढने के बदले उन हमलों से बचने की फिराक में फिर यहाँ – वहाँ डोल जाती हूँ. मुझे समझ में नहीं आता आखिर क्यों मैं लिखूं ? किसके लिए ? क्योंकि जिसके लिए मैं लिखना चाहती हूँ उन्हें तो मेरे लिखने न लिखने से कोई फर्क नहीं पड़ता।

टीवी पर चल रहा है महाभारत और दृश्य है द्रोपदी के अपमान का, सर झुकाये खड़े हैं पाँचों योद्धा पति और न जाने कितने ही महा विद्द्वान ज्ञानी। मुझे आजतक नहीं समझ में आया कि आखिर ऐसी भी क्या मजबूरी थी कि सब मौन थे. क्यों नहीं एक- एक आकर खड़ा हो सकता था सामने लड़ने को मरने को ?

यह सदियों पहले की कहानी है परन्तु समाज का स्वरुप, ये मजबूरियाँ आज भी वही हैं-

अभी कुछ दिन पहले ही एक मित्र ने एक संभ्रांत तथाकथित बेहद पढ़े लिखे परिवार और समाज में उच्च – जिम्मेदाराना ओहदे पर आसीन एक पिता की एक बेटी पर हुए बहशियाना व्यवहार का किस्सा सुनाया। वो बच्ची जी रही है ऐसे ही टूटी हुई, अपने पति का ज़ुल्म सहती हुई परन्तु उसके संभ्रांत परिवार को ही उसकी परवाह नहीं।

एक और, दो बच्चों की पढ़ी लिखी माँ सह रही है अपने ही घर में अनगिनत शारीरिक और मानसिक अपमान। उसमें पीस रहे हैं बच्चे, स्कूल में फ़ैल हो रहे हैं, परन्तु नहीं निकलना चाहती वह उस नरक से. न जाने क्यों? क्या मजबूरी है ?

आत्मविश्वास की कमी, समाज का डर, उन अपनों की इज्जत का खौफ जिन्हें उसकी इज्जत की परवाह नहीं। आखिर ऐसी कौन सी मजबूरी की घुट्टी हमारे समाज की रगों में है कि सदियां दर सदियाँ बीत जाने पर भी असर ख़त्म नहीं हुआ.

और अब ये नन्ही बच्चियों पे होते दुष्कर्म, दरिंदगी की हद्द तक. पर गुनाह की बात छोड़ कर होती है उससे जुड़ी हर बात पर चर्चा. स्थान पर, धर्म पर, कारण पर , कपड़ों पर, परिवेश पर, राजनीति पर. बस अछूता रह जाता है तो ‘गुनाह’.

मैं सुनती हूँ ये किस्से, लिखती हूँ, समझाती हूँ, साधन भी जुटाती हूँ अपनी तरफ से. लेकिन क्या होता है कोई परिणाम? सब कुछ रहता है वहीँ का वहीँ और मेरा , उसका, इसका, उनका, सबका लिखना – रह जाता है बस, कुछ काले अक्षर भर. इति हमारे धर्म की, हमारी अभिव्यक्ति की प्यास की, एक स्वार्थ की पूर्ती भर. जैसे वे मजबूर रो लेती हैं हमारे समक्ष, हम रो लेते हैं लिख कर.

बस इससे ज्यादा कुछ है क्या ? फिर क्या लिखूं? क्यों लिखूं ? लोग मुझसे पूछते हैं कि मैं हिंदी में क्यों लिखती हूँ? मैं जबाब देती हूँ क्योंकि मुझे अच्छा लगता है. तो क्या सिर्फ खुद को अच्छा लगने के लिए लिखती हूँ मैं? मुझे आज भी याद है पत्रकारिता की पढाई के दौरान एक प्रोफ़ेसर का एक खीज भरा वक्तव कि “ये विदेशी छात्र रहते यहाँ हैं और लिखना चाहते हैं अपने देश पर” तो क्या लेखन, विषय और सरोकार बंधे होते हैं सीमाओं में?

इन्हीं सवालों के जबाब ढूंढ रही हूँ आजकल।  मन उलझा है, जल्दी ही कुछ सुलझेगा उम्मीद पर दुनिया ही नहीं मैं भी टिकी हूँ।

Sunday, April 1, 2018

एक वो...

हाँ मैंने देखा था उसे उस रोज़

जब पंचर हो गया था

उसकी कार का पहिया

घुटने मोड़े बैठा था गीली मिट्टी में

जैक लिए हाथ में

घूर रहा था पहिये को

और फिर बीच बीच में आसमान को

शायद वहीँ से कुछ मदद की आस में

गंदे नहीं करने थे उसे अपने हाथ

पर गालों पर लग चुकी थी ग्रीस

जतन में उड़ाने के मक्खियां

फिर झुंझला कर जब उठा वो झटके से

हाँ तब देखा था मैंने उसे

 

और फिर तब

एक चाय के खोमचे पर

एक बैंच पर दो चाय के गिलास

बैठा था जब वो

उस चाय वाले लड़के राजू के साथ

बतियाता उससे उसके गाँव का हाल

और सुनाता अपने लड़कपन के किस्से

राजू के ठहाकों के बीच

जब फैलते थे उसके भी होंट

हाँ तब देखा था मैंने उसे

 

फिर मिला था एक बार

जॉगर्स पार्क में

पड़ोस वाली अम्मा जी से

ठिठोली करता हुआ

छूता उनकी ठुड्डी को

कभी पल्ला ढकता सर पर

झूठा गुस्सा दिखाती अम्मा की

चमकती आंखों में

जब झांकता वो

अपनी लाठी उठा अम्मा धमकाती उसे

और वह लुढक जाता उनकी गोद में

हाँ तब भी देखा था मैंने उसे.

 

फिर गाहे बगाहे

कभी किसी नुक्कड़ पर

किसी सड़क पर

किसी पार्क में

मिल ही जाता था वो

 

पर अब

न जाने कब से

नजर नहीं आता वो

खो गया है शायद इस बेढंगी दुनिया में

अपने से फुर्सत नहीं उसे या

दूसरों का बोझ ज्यादा है

शयद इसीलिए अब कहीं नहीं दिखता

मेरे सपनो का कोई शहजादा.

 

Thursday, March 8, 2018

कुछ पा लिया कुछ बाकी है.

अधिकार हमने ले लिए

सम्मान अभी बाकी है।

बलिदान बहुत कर लिए,

अभिमान अभी बाकी है।

फर्लांग देहरी दिए बढ़ा,

आसमाँ पे अपने कदम।

खोल मन की सांकले,

निकास अभी बाकी है।

रूढ़ियों के घुप्प अंधेरे

चीर बनकर ‘शिखा’

स्त्रीत्व से चमकता,

स्वाभिमान अभी बाकी है।