छोड़ना होगा उसे वह घर
वह आंगन, वह फर्श, वह छत।
जिससे जुड़ा है उसका जन्म, बचपन,
उसका यौवन, उसका जीवन।
कहते हैं लोग इसी में उसकी भलाई है
यही रीत चली आई है।
अब वह खुद ही खुद को संभाले
भोगे अपने सुख दुख अकेले
पुराने नातों को बिसरा दे।
वह ठिठकती है हर कदम पर
निकलने में कमरे से ही देरी करती है
फिर विदा कहते कहते अतिरिक्त समय लगा देती है।
कभी रसोई में तो कभी आँगन में अटक जाती है
फिर दरवाजे पर खड़ी होकर बतियाती है।
बस आ रही हूँ, कह कर, बार बार रुक जाती है।
दरवाजे पर खड़ा दरबान राह दिखाता है
वाहन चालक चिल्लाता है।
करो जल्दी, पहले ही हो गई है देरी
अब और कितनी टालम टोली।
पर कैसे निकल जाए वह
कैसे मान जाए यह, कि जो निकली तो
सुख दुख नहीं रहेंगे साझा
कुछ भी अब न होगा आधा आधा।
कि आने जाने को भी लेनी होगी अब इजाजत
कि हर बात अब होगी एक तिज़ारत।
तो वह जड़वत सी हो जाती है
यहाँ वहाँ मंडराती है।
इस आस में कि रोक ले कोई
अगर जाना ही है नियति तो
न बांधे किसी सीमा में,
दिखा दे मध्य मार्ग कोई।
कि न टूटें पुराने रिश्ते
न छूटें उसके अपने
साझा बने रहें सपनें…
दरअसल, ब्रेक्जिट तो बहाना है
एक बेटी को घर छोड़ के जाना है…
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