अब उन पीले पड़े पन्नो से
उस गुलाब की खुशबू नहीं आती
जिसे किसी खास दो पन्नो के बीच
दबा दिया करते थे
जो छोड़ जाता था
अपनी छाप शब्दों पर
और खुद सूख कर
और भी निखर जाता था ।
अब एहसास भी नहीं उपजते
उन सीले पन्नो से
जो अकड़ जाते थे
खारे पानी को पीकर
और गुपचुप अपनी बात
कह दिया करते थे।
भीग कर लुप्त हुए शब्द भी,
अब कहाँ कहते हैं अपनी कहानी
फैली स्याही के धब्बे
अब दिखाई भी नहीं देते
जिल्द पर भी नहीं बनते
अब बेल बूटे
जो रंगे जाते थे बार बार
गुलाबी रंग से.
कलम अब उँगलियों में नहीं बलखाती,
हाँ अब डायरी लिखी जो नहीं जाती ।
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