Monday, June 30, 2014

हंगामा क्यों है बरपा...

हमारे देश में सैक्स और संस्कृति दो शब्द ऐसे हैं जिन पर जब चाहे हंगामा करा लो. एक जुबान से निकला नहीं कि हंगामा और दूसरा न निकले तो हंगामा। हमें बच्चों के सामने सैक्स से सम्बंधित माँ बहन की गाली देने से परहेज नहीं है, खजुराहो, कोणार्क की मूर्ति कला देखने- दिखाने से परहेज नहीं है परन्तु बच्चों को उनके ही शरीर के बारे में शिक्षा देने से परहेज है.

युवावस्था में कदम रखते बच्चों को हम दुनिया भर की बाकी बातें सीखा देना चाहते हैं, मोटी – मोटी  किताबें , कोचिंग, प्रतियोगिता, पैसा कमाना सब, परन्तु उसके अपने ही शरीर में हो रहे बदलावों के बारे में बात करना भी गुनाह है. हम सोच कर बैठ जाते हैं कि यह परिवर्तन तो प्राकृतिक हैं प्रकृति अपने आप सिखा देगी, तो क्या बोलना, चलना आदि प्राकृतिक नहीं ? तो वह हम अपने बच्चों को सिखाने की कोशिश क्यों करते हैं? यहाँ यह भी भ्रम देखने में आता है कि सैक्स एजुकेशन का मतलब बच्चों को सैक्स सिखाना या उसकी और प्रेरित करना है, जबकि सैक्स एजुकेशन का यह मतलब कदापि नहीं है. यह कोई अलग विषय नहीं है, इसकी कोई अलग किताब नहीं होती है, और इसे पढ़ाकर इसका कोई इम्तिहान भी नहीं लिया जाता। यह तो बच्चों के सम्पूर्ण स्वाथ्य विकास के लिए होने वाली नैतिक और सामाजिक शिक्षा की तरह ही एक शिक्षा है जिसे सही समय पर, सहजता और सही तरीके उन्हें उपलब्ध कराना, परिवार के साथ – साथ स्कूलों और शिक्षकों की भी जिम्मेदारी है. 

बच्चा जब से पैदा होता है और जैसे जैसे बढ़ता है उसका शरीर , मष्तिष्क और जरूरतें सभी बढ़ती हैं और हम उसकी बढ़ती अवस्था की जरुरत और उसके सम्पूर्ण स्वस्थ्य विकास के लिए उसे सभी प्रकार की शिक्षा देते हैं. फिर एक उम्र में उसके शरीर और सोच में हो रहे महत्वपूर्ण परिवर्तन की तरफ इतने अनजान क्यों बने रहना चाहते हैं. बच्चों की उस महत्वपूर्ण अवस्था में जहां उन्हें  सबसे ज्यादा सलाह और सहारे की आवश्यकता होती है, उनकी सहायता कोई नहीं करता।

ज्यादातर स्कूलों में जीव विज्ञान के अंतर्गत आया “प्रजनन” पाठ या तो फौरी  तौर पर पढ़ा कर खत्म कर दिया जाता है या कह दिया जाता है इसे घर में पढ़ लेना। और घर में आकर जब बच्चा अपनी जिज्ञासाओं के बारे में पूछता है तो या तो उसे डाँट कर भगा दिया जाता है या यूँ ही कुछ जबाब देकर टाल दिया जाता है. ऐसे में अपने ही शरीर में हो रहे बदलावों से बेखबर और परेशान बच्चे या तो बाजारू सामग्री का इस्तेमाल कर उसे जानने की कोशिश करते हैं या फिर अधकचरे ज्ञान को लेकर फिरते रहते हैं. जो समाज और उनकी खुद की सोच को दूषित करने की वजह बनता है.
पहले संयुक्त परिवारों में घर के बुजुर्ग आदि फिर भी इस अवस्था में उनकी सहायता किया करते थे, अपने अनुभव और परिपक्वता से उन्हें सही दिशा देने की कोशिश करते थे परन्तु कालांतर में एकल होते परिवारों में यह विकल्प भी जाता रहा है. तो अब ये बच्चे अपनी जिज्ञासाओं का टोकरा लेकर आखिर कहाँ जाएँ? ऐसे में, एक ऐसी अवस्था में जहाँ एक बच्चा एक जिम्मेदार नागरिक बनने की तरफ कदम रखता है, जहाँ उसके स्वस्थ शारीरिक और मानसिक विकास का नया अध्याय लिखा जा रहा होता है वहां उसे सही दिशा दिखाने वाला कोई नहीं होता और परिणाम स्वरुप उसकी अनसुलझी जिज्ञासाएँ कुंठा का रूप ले लेती हैं.

समय बदल रहा है और पहले की अपेक्षा बच्चों का शारीरिक और मानसिक विकास अब कहीं जल्दी होना आरम्भ हो जाता है, उस पर प्रतिपल बढ़ता बाहरी दुनिया से संपर्क बच्चों को वक़्त से पहले ही वयस्क बना रहा है, हम समय के साथ होते इन परिवर्तनों को तो नहीं रोक सकते परन्तु बदलते परिवेश और समय के साथ अपने बच्चों को शिक्षित अवश्य ही कर सकते हैं. 
सिर्फ यह कह देने भर से कि यह पश्चिमी देशों का कुप्रभाव है और हमारी संस्कृति का हनन, हम न तो समय को रोक सकते हैं न इससे उपजने वाली समस्यायों को. हाँ उनका समुचित उपाय जरूर सोचकर उसके अनुसार अपने बच्चों की परवरिश कर सकते हैं.

ज्यादातर पश्चिमी देशों में क्लास ६ में जीव विज्ञान के एक अध्याय के अंतर्गत इस शिक्षा की शुरुआत की जाती है. सभी बच्चे ११-१२ साल के होते हैं और इस पाठ को सहजता से पढ़ाने और बच्चों को सही ढंग से समझाने में मदद मिले इसलिए उनके अविभावक, माता पिता व दादा दादी आदि को भी आमंत्रित किया जाता है. यह जरुरी है कि इस उम्र में अपने शरीर में हो रहे बदलावों के प्रति उनकी जिज्ञासाओं को सही ढंग से समझाया जाए और इसके लिए स्कूल और घरवाले अपने अपने स्तर पर बच्चों का मार्गदर्शन कर सकते हैं. 


बच्चे समाज का भविष्य होते हैं और यदि ये ही कुंठित होंगे तो एक स्वस्थ्य समाज की कल्पना भी हम नहीं कर सकते। जिस प्रकार उन्हें सुसंस्कृत करना हमारा कर्तव्य है उसी प्रकार उन्हें सुशिक्षित करना भी हमारा कर्तव्य है और यह उनके स्वयं के शारीरिक और मानसिक बदलाओं को नजरअंदाज करके नहीं किया जा सकता। किसी भी प्रकार की शिक्षा से संस्कृति की हानि नहीं हो सकती. शिक्षा और संस्कृति एक दूसरे एक पूरक होते हैं, दुश्मन नहीं। और एक दूसरे की सहायता से ही स्वस्थ्य और सभ्य समाज का  निर्माण किया जा सकता है.

समवेत शिखर में प्रकाशित। 

Friday, June 27, 2014

आलू चना...

कल एक आधिकारिक स्क्रिप्ट पर आये फीडबैक को देखकर मेरे एक कलीग कहने लगे, – “ऐसे फीडबैक देते हैं तुम्हारे यहाँ? लग रहा है सिर्फ कमियां ढूंढने की कोशिश करके पल्ला झाड़ा गया है, बजाय इसके कि इसमें सुधार के लिए कोई गाइड लाइन दी जाती” 
अब मैं उन्हें यह क्या बताती कि शायद हमारे उन अधिकारी को इसी काम के लिए रखा गया हो या नहीं तो उन्हें शायद अपना यही काम समझ आया हो, और उनका रुतबा और काम इसी से जस्टिफाई होता हो कि वह कमियां बताईं जाएँ जो कि उस दस्तावेज में हों ही नहीं, व किसी और को नजर ही ना आएं, जिससे वे अपना सबसे समझदार और काबिल होना सिद्ध कर दें.

वो क्या है न कि, जैसे आलू और चना हमारे देश का पसंदीदा और सर्व सुलभ खाद्य पदार्थ है वैसे ही आलोचना हमारा पसंदीदा व्यवहार है. जो कोई भी, किसी भी क्षेत्र में, किसी की भी, किसी भी समय कर सकता है. कमियां निकालना हमारा स्वभाव है और उन्हें निकालकर खुद को बुद्धिमान दिखाना हमारा फ़र्ज़, जिसका पालन हर स्तर पर, हर ओहदे का इंसान बहुत ही निष्ठा से करता है. घर में नहीं दाने, अम्मा चली भुनाने की तर्ज़ पर, हम अपने अल्प ज्ञान को आलोचना के रूप में बघारकर अपने बुद्धि के दाने भुनाने की भरपूर कोशिश करते हैं और अपने परम धर्म की अदायगी करके निश्चिन्त हो लेते हैं.


यहाँ ये बात दीगर है कि आलोचना का मतलब भी यहाँ आलू, चने जैसा ही सरल हो जाता है जो हर एक के बस में है और हर एक का इसपर अधिकार है.

प्रतिक्रिया, समीक्षा, और आलोचना तीनो शब्दों को मिलाकर कर आलू चना का मिक्चर सा बना लिया गया है और सभी अपने अहम को  हृष्ट और रुतबे को पुष्ट करने के लिए उसे पिए जाते हैं. 

फिर आप बेशक फीडबैक मांगो, समीक्षा मांगो या आलोचना, सबकी मांग पर यही आलू चना रुपी चाट मिलेगी, हाँ अलग अलग क्षेत्र के अनुसार उसमें खट्टी- मीठी चटनी की मात्रा कुछ कम ज्यादा हो सकती है.

Sunday, June 22, 2014

जो है और जो नहीं है...

मेरे ऑफिस की खिड़की से दीखता है, बड़े पेड़ का एक छोटा सा टुकड़ा। जो छुपा लेता है उसके पीछे की सभी अदर्शनीय चीजों को. उन सभी दृश्यों को जिन्हें किसी भी नजरिये से खूबसूरत नहीं कहा जा सकता। फिर भी उन शाखाओं के पीछे से मैं  झाँकने की कोशिश  करती रहती हूँ. उन हरी हरी पत्तियों के पीछे भूरी -भूरी   सी पुरानी ईंटें, काली जंग  लगीं लोहे की सीढ़ियां और टूटे फूटे गमलों में न जाने क्या ढूंढने की कोशिश करती हूँ. 


क्यों हम जो है उसे नजरअंदाज करके उसे देखना चाहते हैं ,जो छुपा है. क्यों जो सामने है उसका आनंद लेने की बजाय उसके बारे में सोचते हैं जो दिखाई भी नहीं देता। क्यों वर्तमान को अनदेखा कर इंसान भविष्य के पुर्जे निकाल कर देख लेना चाहता है. 
हम अपना अतीत याद रख पाते हैं, वर्तमान का अवलोकन कर पाते हैं, पर भविष्य को नहीं देख पाते उसके बारे में  नहीं जान पाते तो आखिर इसके पीछे प्रकृति की कोई तो वजह होगी। प्रकृति ने सब कुछ इसके प्राणियों के भले के लिए ही किया है. परन्तु ये मनुष्य को मिले मष्तिष्क की जिज्ञासु प्रवृति  है या अपने को ऊंचा समझने की जिद कि वह, उसे भी जान लेना चाहता है जिसकी इजाजत प्रकृति ने उसे उसके भले के लिए ही नहीं दी है. और सारी ऊर्जा और शक्ति लगा देता है प्रकृति की अवहेलना करने में, बदले में पता है असंतोष, निराशा और दुःख। 

हम खुश नहीं रहते अपने वर्तमान में, उसे आनन्दायक बनाये रखने के लिए नहीं करते जतन, बल्कि परेशान रहते हैं भविष्य के लिए, जिसका कि अनुमान भी हमें नहीं होता, प्रयत्नशील रहते हैं उसे संवारने के लिए जिसपर मनुष्य का बस भी नहीं होता।
यह मनुष्य का अहम नहीं तो और क्या है? उसकी प्रकृति से होड़ नहीं तो और क्या है ?  

Sunday, June 15, 2014

ऐसा नहीं कोई और....


बरगद की छाँव सा 

शहरों में गाँव सा 
भंवर में नाव सा 
कोई और नहीं होता। 

फूलों में गुलाब सा 
रागों में मल्हार सा 
गर्मी में फुहार सा 
कोई और नहीं होता। 

नारियल के फल सा 
करेले के रस सा 
खेतों में हल सा 
कोई और नहीं होता।

पूनम की निशा सा 
पथ में दिशा सा 
जीवन में “पिता” सा 
कोई और नहीं होता। 

Happy Father’s day Papa.. 🙂

Tuesday, June 10, 2014

все те же (सब एक ही.) ... एक रूसी कविता

все те же

Я тоже была наивной,
В воды Волги опустив ноги
В воды, смешанные с моими слезами
Все равно вспоминала о Ганге.
Горы видела – горы Урала,
Только думала о Гималаях.
И не знала я о том раньше:
Да, зовут их, порой, непохоже,
Только вода все та же
Только земля все та же.
(шиха варшней) 

सब एक ही.

कैसी पागल थी मैं भी 
पाँव डाल कर वोल्गा में 
उस पानी में मिलाकर आंसूं  
याद करती थी गंगा को 
देखा करती थी यूराल और 
सोचती थी हिमालय को 
कैसे नहीं जानती थी मैं 
इनके नाम अलग हो सकते हैं 
लेकिन पानी तो यही है 
धरती तो वही है.
(शिखा वार्ष्णेय) 

Wednesday, June 4, 2014

बेतरतीब ख़याल.....

सामने मेज
पर
 
क्रिस्टल के
कटोरे में रखीं
 
गुलाब की
सूखी पंखुड़ियाँ
 
एक बड़ा कप
काली कॉफी
 
और पल पल
गहराती यह रात
अजीब सा हाल
है.
 
शब्द अंगड़ाई
ले
उठने को
बेताब हैं
 
और पलकें झुकी जा रही हैं.
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अरे बरसना है तो ज़रा खुल के
बरसो

किसी के सच्चे प्यार की तरह
ये क्या बूँद बूँद बरसते हो
तुम
,
सीली छत से टपकती भाप की
तरह
 
*************
कितना भी हरा हो घास का
मैदान

पाए जाते हैं कुछ धब्बे
सूखी घास के

उग ही आते हैं कुछ पोधे
खरपतवार से

ये जीवन भी तो कुछ ऐसा ही
है न ।
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कुछ लोग
किसी के
 जैसे नहीं
होते
 
वह होते हैं कुछ जुदा कुछ
निराले
  
पांचवी ऋतू से, नौवीं दिशा से 
या इन्द्रधनुष के आंठवे रंग
से
 
सबमें मिलकर भी सबसे अलग 
आसमां के पार जैसे एक फ़लक 
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कोई शिकवा नहीं
शर्त नहीं
शक भी नहीं। 
द्वेष नहीं 
भेद नहीं 
लेन देन भी नहीं। 
बंद होंठों की इबादत है
प्रेम मिज़ाज नहीं
एक आदत है….