Wednesday, March 19, 2014

यह भी तो ज़रूरी है न !

जी हाँ,मेरे पास नहीं है 

पर्याप्त अनुभव 

शायद जो जरुरी  है
कुछ लिखने के लिए 

नहीं खाई कभी प्याज

रोटी पर रख कर 

कभीनहीं भरा पानी 
पनघट पर जाकर  

बैलगाड़ी, ट्रैक्टर, कुआं
और बरगद का चबूतरा
सब फ़िल्मी बातें हैं मेरे लिए 

“चूल्हा” नाम ही सुना है सिर्फ मैंने 
और पेड़ पर चढ़ तोड़ना आम 
एक एडवेंचर,एक खेल 

जो कभी नहीं खेला
हाँ नहीं है मेरे पास गाँव
नहीं हैं बचपन की गाँव की यादें 

पर –
मेरे पास है शहर

बहुत सारे शहर
सड़के,आसमान, और बादल
उनपर चलती रेलें हैं
बसें हैं, हवाई जहाज हैं
और उनके साथ भागती सीमाएं हैं
अलग अलग किस्म, 

अलग अलग नस्ल के लोग हैं 
और उनकी रंगबिरंगी जिंदगियां हैं
तो मैं इन चित्रों की ज्यामिति को 

उकेर देती हूँ ज्यों का त्यों । 
इन पर भी तो लिखना ज़रूरी है न !

Saturday, March 15, 2014

स्यापा गुझिया का.....

होली पर दुनिया गुझिया बना रही है और हम यह –
सुनिये…. सुनिये….. ज़रा अपने देश से होली की फुआरें आ रही थीं 

कभी फेसबुक पे तो कभी व्हाट्स एप पे
गुझियायें परोसी जा रही थीं
कुछों ने तो फ़ोन तक पे जलाया था
और आज कहाँ कहाँ क्या क्या बना
सबका बायो डाटा सुनाया था
सुन सुनके गाथाएँ हमें भी जोश आया
फट से श्रीमान जी को फरमान सुनाया
सुनो , ज़रा ऑफिस से आते हुए खोवा ले आना
और शनिवार को बैठकर गुझिया बनवाना
वो फ़ोन पे ही परेशान से नजर आने लगे
इतनी ठण्ड में भी पसीने रिसीवर पे छाने लगे
बोले, अरे छोड़ो भी बेकार की मेहनत करोगी
ये इंडिया के चोचले हैं यहाँ कहाँ पचड़े में पड़ोगी
दूकान से मिठाई ले आयेंगे
फिर आराम से बैठ कर खायेंगे
हमने कहा
नहीं जी हम तो अबके गुझिया ही बनायेंगे
और अपना हुनर दिखा के ही बतलायेंगे
वो रानू, पिंकी , मझली सब मस्तिया रही हैं
रोज व्हाट’स एप में पिक्चर चिपका रही हैं
गुझिया सेव के साथ उनकी गप्पें भी पक रही हैं
और यहाँ हम बिन चुगली, बिन गुझिया मर रही हैं
हमारा मूड देख श्रीमान जी ने हथियार डाल दिया
और जैसा मिला खोवा लाकर हमें पकड़ा दिया
शनिवार को सुबह से हमने अभियान चलाया
और घर के हर सदस्य को एक एक काम थमाया
सुनो , हम बेलेंगे, तुम भरना
और बच्चो तुम किनारे काट कर
रजाई के नीचे धरना .
सब को ठिकाने बैठा कर काम का श्री गणेश हुआ
अधकचरे ज्ञान से गुझिया अभियान शुरू हुआ
अब कभी मैदा जी इठलायें कभी खोवे जी भरमायें
कभी कांटे की चम्मच जी टेड़े मेढे बलखायें
आधे दिन में जैसे तेसे तलने की बारी आई
तो घी में पड़ते ही सब की सब गुझिया खिल आईं
अब तक हमारा सब्र का घड़ा पूरा भर चुका था
उसपर सुबह से उदर बेचारा उपेक्षित सा पडा था.
फैली गुझिया देख के हम भी फ़ैल गए
तुमने मन से नहीं बनाई, सब उनपे पेल गए
अब हुलिया हमारा देख श्रीमान को तरस आया
झट से डोमिनोज फ़ोन कर पिज़्ज़ा मंगवाया
एक पीस हजम किया तो गले से आवाज़ आई
बिना गप्पों के ये गुझिया भी कहाँ बनती हैं भाई.
ये सुहाती वहीँ जहाँ मनाई जाए होली
अपनी तो इनके चक्कर में आज
ऐसे तेसी हो ली .

Tuesday, March 11, 2014

अलगनी पर टंगी उदासियाँ ...

मैंने अलगनी पर टांग दीं हैं 

अपनी कुछ उदासियाँ 

वो उदासियाँ 
जो गाहे बगाहे लिपट जाती हैं मुझसे 
बिना किसी बात के ही 
और फिर जकड लेती हैं इस कदर 
कि छुड़ाए नहीं छूटतीं 
ये यादों की, ख़्वाबों की 
मिटटी की खुश्बू की उदासियाँ 
वो बथुआ के परांठों पर 
गुड़ रख सूंघने की उदासियाँ 
और खेत की गीली मिटटी पर बने 
स्टापू की लकीरों की उदासियाँ 
खोलते ही मन की अलमारी का पल्ला 
भरभरा कर गिर पड़तीं हैं मुझपर 
और सिर तक ढांप लेती हैं मुझे 
भारी पलकों से उन्हें फिर 
समेटा भी तो नहीं जाता 
तो कई कई दिन तक उन्हीं के तले 
दबी, ढकी, पसरी रहती हूँ.
इसलिए अब उन्हें करीने से 
मन के कोने की एक अलगनी में टांग दिया है 
कि एक झलक हमेशा मिलती रहे चुपचाप 
अब वो भी सुकून से हैं और मैं भी। 

Saturday, March 1, 2014

दोराहे पर अस्तित्व ?

जब से इस दुनिया की आधी आबादी ने अपने अस्तित्व की लड़ाई आरम्भ की तब से अब तक यह लड़ाई न जाने किन किन मोड़ों से गुजरी। कभी चाहरदिवारी से निकल कर बाहर की दुनिया में कदम रखने के लिए लड़ी गई, कभी शिक्षा का अधिकार मांगती, कभी अपने फैसले खुद करने के लिए लड़ती तो कभी कार्य क्षेत्र में समान अधिकारों की मांग करती। अपने लिए न्याय की मांग करती ये लड़ाई आधुनिक समय में काफी हद तक आगे निकल आई. परन्तु कालांतर में आते आते इसने अपना मूल मकसद खो दिया और एक इंसानी आस्तित्व  की लड़ाई, दूसरी आधी आबादी से बराबरी की होड़ की लड़ाई बन गई. अब सवाल यह नहीं बचा कि सही क्या है? अधिकार क्या हैं ? आजादी क्या है? सवाल बचा तो सिर्फ यह कि वे यह कर सकते हैं तो हम क्यों नहीं ? उन्हें ये मिलता है तो हमें क्यों नहीं ? और हमारे इस आधुनिक समाज में आधुनिकता की परिभाषा मानसिक और नैतिक आजादी न होकर सिर्फ कपड़ों, खाना पीना और भोग विलास या तफरी तक सिमित रह गई.

अब उसे शिक्षा प्राप्त करने से कोई रोकने वाला नहीं है. शायद ही कोई ऐसा क्षेत्र हो जहाँ उसने अपनी योग्यता न साबित की हो. वह आर्थिक रूप से सम्बल हुई तो अपने फैसले लेने का अधिकार भी उसने पाया। अपने पैरों पर खड़ी हुई तो अपने जीवन को अपनी मर्जी से जीने का हक़ उसने लिया। आज इस दुनिया के अधिकतर समाजों में कानूनी रूप से यह आधी आबादी पूर्णतया स्वतंत्र है. कानूनी रूप से उसे वे सभी अधिकार प्राप्त हैं जो एक पुरुष को हैं. 


इस अधिकार का पश्चिमी देशों में तो महिलाओं ने खुल कर उपयोग किया खुद को सामाजिक ही नहीं आतंरिक रूप से भी आजाद करने में वे काफी हद तक सफल रहीं।एक स्वछन्द , आत्मनिर्भर जीवन जीने में अब वह आमतौर पर कोई रूकावट महसूस नहीं करतीं हैं. हालाँकि कुछ समस्याएं अभी भी  हैं जो अप्रत्यक्ष रूप से इन समाजों में भी अब तक पाई जाती हैं. परन्तु हमारे (एशियाई )भारतीय समाज में यह स्वतंत्रता जैसे अभी तक अपने सही गंततव तक पहुँचने में असफल प्रतीत होती है. हमारे देश में भी नारी ने स्वतंत्रता हासिल तो कर ली, लड़ कर पुरुषों के समान सारे हक़ भी ले लिए परन्तु कहीं न कहीं आधुनिकता की इस दौड़ में मानसिक,और संवेदात्मक रूप पुरुषों की बराबरी करने में वह अब भी पीछे रह गई है.


आज आधुनिक नारी के नाम पर वह आधुनिक लिबास पहनने लगी, स्वछन्द विचरण करने लगी, खुद कमा कर अपना जीवन अपनी मर्जी से तो जीने लगी परन्तु भावात्मक रूप से फिर भी स्वतंत्र नहीं हो पाई. आज भी जब इस आधुनिक नारी को प्रेम में असुरक्षा महसूस होती है तो वह टूट जाती है. आज भी अपने साथी को अपने से दूर जाते देश वह बर्दाश्त नहीं कर पाती। और आज भी प्रेम में असफलता और असुरक्षा उसके लिए सबसे बड़ा अवसाद और विषाद का कारण होता है. वह दिमाग से तो जीत जातीं हैं पर दिल के हाथों मार खा जातीं हैं.


फिर बेशक हम किसी भी समाज या परिवेश में रहें उस भावात्मक गुलामी से नहीं निकल पाते। 
मुझे याद आ रहा है अभी पिछले कुछ समय का ही लंदन का एक वाकया। जब एक एशिया मूल की एक अत्याधुनिक युवती ने इसलिए आत्महत्या कर ली क्योंकि उसे अपने प्रेम प्रसंग का समाज और परिवार के समक्ष उजागर हो जाने का डर था. 
भारत में तो ना जाने कितनी आधुनिक और आर्थिक रूप से सफल कही जाने वाली महिलायें प्रेम में असफल हो कर या तो आत्महत्या कर लेती हैं या फिर इस असफलता और असुरक्षा को न झेल पाने के कारण अवसाद का शिकार हो दिमागी रूप से बीमार हो जाती हैं. अत्याधुनिक  कहे जानी वाली भारतीय फ़िल्म इंडस्ट्री और हमारे समाज के उच्च और शिक्षित वर्ग में, दिव्या भारती, ज़िया खान और हाल में सुनंदा पुष्कर जैसे कितने ही ऐसे उदाहरण मिल जायेंगे। दुर्भाग्यवश आधुनिकता के बढ़ने से साथ साथ ऐसे हादसों की संख्या भी लगातार बढ़ती जा रही है.


शायद समय आ गया है जब हम यह विचार करें कि आधुनिकता का अर्थ आखिर है क्या।आधुनिक कपड़े पहनकर, शराब सिगरेट पीकर या डिस्को में जाकर हम खुद को स्वतंत्र आधुनिक नारी का तमगा नहीं दे सकते। नारी तब आजाद होगी जब वह अपने मन से अपने दिमाग से आजाद होगी। जब वह भावात्मक रूप से भी उतनी ही मजबूत और समर्थ होगी जितनी वह शारीरिक और आर्थिक रूप से है.  जिसदिन उसे अपने साथी की वेवफाई आत्महत्या करने को या पागल हो जाने को मजबूर नहीं करेगी। जिसदिन वह अपनी भावनाओं पर काबू पाकर आगे बढ़ना और लड़ना सीख लेगी हमारे समाज की नारी उसदिन आधुनिक और स्वतंत्र होगी।


फिलहाल तो अपने समाज में नारी की अवस्था पर यह फिकरा याद आता है कि – लड़कर पुरुषों की बराबरी तो कर लोगी पर उनके जैसा कड़ा जिगरा कहाँ से लाओगी ?

“India unlimited” में प्रकाशित।