मैंने अलगनी पर टांग दीं हैं
अपनी कुछ उदासियाँ
वो उदासियाँ
जो गाहे बगाहे लिपट जाती हैं मुझसे
बिना किसी बात के ही
और फिर जकड लेती हैं इस कदर
कि छुड़ाए नहीं छूटतीं
ये यादों की, ख़्वाबों की
मिटटी की खुश्बू की उदासियाँ
वो बथुआ के परांठों पर
गुड़ रख सूंघने की उदासियाँ
और खेत की गीली मिटटी पर बने
स्टापू की लकीरों की उदासियाँ
खोलते ही मन की अलमारी का पल्ला
भरभरा कर गिर पड़तीं हैं मुझपर
और सिर तक ढांप लेती हैं मुझे
भारी पलकों से उन्हें फिर
समेटा भी तो नहीं जाता
तो कई कई दिन तक उन्हीं के तले
दबी, ढकी, पसरी रहती हूँ.
इसलिए अब उन्हें करीने से
मन के कोने की एक अलगनी में टांग दिया है
कि एक झलक हमेशा मिलती रहे चुपचाप
अब वो भी सुकून से हैं और मैं भी।
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