आजकल शोशल नेटवर्क साइट्स को गरियाने का नया फैशन निकल पडा है या फिर यह कहना उचित होगा कि नया टाइम पास हो चला है। किसी ने कोई पकवान बनाया तो ऍफ़ बी, कोई हनीमून पर जा रहा है तो ऍफ़ बी और यहाँ तक की किसी को किसी का चरित्र हनन करना है तो बस ऍफ़ बी. की दीवार पर लिख डालिए और उसके पीछे कुछ लोग लाठी-भाले लेकर पिल पड़ेंगे। कुछ बस भेड़ चाल के लिए, कुछ अपने वर्ग विशेष के लिए, कुछ यूँ ही टाइम पास के लिए तो कुछ अपने व्यक्तिगत स्वार्थ के लिए, और हो जायेगा वहां मजमा इकठ्ठा सुनवाई दर सुनवाई, आरोप दर आरोप और यहाँ तक की कुछ लोग फैसला भी सुना देंगे। पर क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि हमारी असली दुनिया में भी ऐसा ही होता है। बस पंचायत की जगह एफ्बायत या मोहल्ले की लड़ाई की जगह ऍफ़ बी ग्रुप होना ही बाकी रह गया है, पर लोगों को परेशानी इन सब चीजों से नहीं है। लोगों को समस्या है उन स्टेटस पर आये लाइक और टिप्पणी की संख्या से। हालाँकि ये शिकायत करने वाले खुद भी वही चाहते हैं….. इस बिनाह पर कि गंभीर मुद्दों पर इतनी भीड़ नहीं जुटती या जो जहाँ लोगों की भीड़ जुडती हैं वे लोग निकम्मे हैं, जाहिल हैं और ना जाने क्या क्या हैं पर यदि वही लोग इनके स्टेटस पर जुड़ जाएँ तो बुद्दिजीवी हैं। अब ये उनसे पूछा जाये कि उन्हें यह मुगालता क्यों है कि सबसे गंभीर और अच्छा मुद्दा वही उठाते हैं, पर क्योंकि उनके स्टेटस की जगह दूसरों (फालतू ) स्टेटस को ज्यादा लाइक मिलते हैं असल पेट दर्द का कारण वह है।
खैर क्या गलत है क्या सही है यह तो एक अलग मुद्दा है .परन्तु इन सोसिअल साइट्स का यह स्वभाव मुझे असल दुनिया से किसी भी तरह इतर नहीं लगता। हम ऍफ़ बी की दिवार पर लिखे की निंदा करते हैं जबकि हमारे देश में तो दीवारें और भी ना जाने किन-किन कामो में ली जाती हैं। फिर भला इन शोशल साइट्स को ही गाली देने का क्या औचित्य है ? वह भी हम ही लोगों द्वारा बनाई गई दुनिया है, एक चौपाल है, जहाँ हर तरह हर तबके और हर फितरत के लोग अपने काम धंधों से फुर्सत में मिले पलों में इकठ्ठा होकर लोगों से मिलते हैं, गपियाते हैं, अपनी रूचि के विषयों पर चर्चा करते हैं। कुछ यूँ ही बिना वजह घूमने आ जाते हैं। कुछ यूँ ही निहारने और कुछ आवारागर्दी करने भी, और फिर अपने अपने घर चले जाते हैं। हाँ बस यह चौपाल किसी चबूतरे या किसी चाय के खोमचे पर ना लग कर इन्टरनेट की खिड़की पर लगती है। जो हर आम आदमी की पहुँच में है। अब आप ही सोचिये और इमानदारी से बताइए क्या जो सब ऍफ़ बी पर होता है वह इसके पहले बाहरी दुनिया में नहीं होता था या क्या अब नहीं होता ?.
अब जरा इस किस्से पर गौर कीजिये …..
एक घरेलु महिला अपने घर का काम निबटा कर अपने संगी साथियों से कुछ बतियाने घर से बाहर निकलती है, कोई नया पकवान उसने बनाया हो या घर में कोई मेहमान आने वाला हो तो वो फुर्सत में बालकोनी, छत या घर के बाहर पहुँचती है, कोई पड़ोसन मिल जाती है या कोई परिचित तो उससे वह अपनी दिनचर्या की चर्चा करती है उछल उछल कर बताती है आज दिन में उसने यह किया, वो किया, या यहाँ घूमने गई …. इतने में अचानक पास से गुजरते हर कुछ मनचले या छिछोरे फिकरा कसते हुए निकल जाते हैं – “अरे मैडम कभी रात की बात भी बताओ” … अब वो महिलाएं क्या करेंगी ज्यादा से ज्यादा इसके खिलाफ २ शब्द बडबडा लेंगी, बहुत दबंग हुई तो १-२ गाली उस सिरफिरे को दे देंगी और अपने घर जाकर बाकी की बातें करेंगी। पर क्या इसके लिए हम दोष उस सड़क को देंगे जिस पर वो खड़े बात कर रहे थे या जिस पर से गुजर कर वे फिकरा कसने वाले गए ? क्या थोड़ी भी जिम्मेदारी उन महिलाओं की नहीं जो वहां आम सड़क पर व्यक्तिगत चर्चा कर रही थीं बिना ये सोचे कि उनकी वार्ता कोई ओर भी सुन सकता है।
अब यही ऍफ़ बी पर भी होता है लोग क्या बनाया से लेकर कैसे हनीमून मनाया तक सब ऍफ़ बी की वाल पर लिखते हैं फिर किसी तरह के अनवांछित टिप्पणी पर गरियाते हैं। अब बताये जरा इसमें उस बेचारे ऍफ़ बी का क्या दोष ? आपको यह बातें करनी है और इन फिकरों से बचना है तो आप घर में बैठकर कर सकते हैं और फब पर भी व्यक्तिगत सन्देश की सुविधा है जहाँ आपकी बात वही सुनेगा जिससे कही गई है।
ऍफ़ बी पर आजकल बहुत से लोग इस बात पर गरियाते देखे जाते हैं कि जिसे देखो वो कवि लेखक बन गया है और लोग उनकी घटिया कविता पर हजारों लाइक करते हैं परन्तु यदि दिनकर, निराला की कविता डाली जाये तो उस पर कोई नहीं फटकता।
अब आप जरा इमानदारी से सोच कर बताइए कि हमारी असली दुनिया में किसी को तुकबंदी करने का या लिखने का शौक नहीं होता ? वे लिखते हैं और जाकर अपने संगी साथियों को सुनाते भी हैं और उनसे जबरदस्ती ही सही वाह-वाही भी पाते हैं। तो यदि अब वही आम इंसान यही काम ऍफ़ बी पर करता है तो क्या समस्या है ? अब यह तो कोई बात नहीं हुई कि एक तथाकथित स्थापित साहित्यकार को ही लिखने का और उसे शेयर करने का हक़ है और किसी को नहीं। क्या कोई जरुरी है कि हर इंसान को साहित्य के प्रति दिलचस्पी हो ? आप सोचिये एक चौराहे पर एक सुन्दर सी लड़की खड़ी होकर एलान करे कि “मुझसे दोस्ती करोगे” और दूसरे पर कोई कविवर अपने साहित्य का पाठ कर रहे हों .तो भीड़ कहाँ ज्यादा जुटेगी ? अब इसमें गलत सही को छोड़ दिया जाये तो बात मानव स्वभाव की है। उसके अपने व्यक्तित्व और रूचि की है। ऐसा नहीं कि गंभीर मुद्दों पर जमघट नहीं लगता। मैंने ऍफ़ बी पर कल ही एक विडियो देखा.द्वारका में पुरातत्त्व खुदाई पर, उसमें
लाइक की संख्या ने एक रिकॉर्ड बना लिया है। और ये अकेला ऐसा नहीं और भी अनगिनत गंभीर मुद्दे हैं जहाँ असंख्य लाइक होते हैं, पर हमें वही दीखता है जो हम देखना चाहते हैं.. आपको अगर वह सब नहीं पसंद तो मत गुजरिये उस सड़क से, और जो नहीं पसंद उसे सिर्फ एक क्लिक से ब्लाक कर दीजिये जैसे अपने घर के दरवाजे बंद कर देते हैं। यानि अपने घर के दरवाजे उनके लिए बंद। अब आपको वो आपके घर में तो क्या आस पास भी दिखाई नहीं देंगे। जबकि ऐसी सुविधा हमें अपनी बाहरी दुनिया में नहीं मिलती। यहाँ आप किसी अनावश्यक और अनचाहे को अपने घर आने से तो रोक सकते हैं पर अपने घर के सामने वाली सड़क पर चलने से नहीं रोक सकते, पर हर विषय का अपना एक अलग वर्ग होता है और शायद स्थान भी हो सकता है एक चौराहे पर शीला की जवानी सुनने वाले लोग इकठ्ठा होते हों तो दूसरे पर राजनीती पर चर्चा करने वाले .अब आपको जो पसंद हो आप उस चौराहे पर जाइये।
ये शोशल साइट्स भी एक इलाके / मोहल्ले जैसा है जहाँ हर तरह के लोग हैं और हर तरह की गतिविधियाँ। अब आपको पसंद है तो वहां घर बनाइये अपना. नहीं पसंद तो नहीं आइये। इसमें बेचारे उस मोहल्ले का क्या दोष ? यूँ कानून हर जगह है, क़ानूनी मदद के लिए आपके पास आप्शन बाहर भी हैं और इन साइट्स पर भी। अभी हाल में ही लन्दन के समाचार पत्र में खबर थी कि ऍफ़ बी पर एक लड़की को ब्लेकमेल करने वाले को उस लड़की की शिकायत पर पुलिस ने ढूंढ कर जेल में डाल दिया। तो यहाँ भी हमें अपने बाहर की दुनिया की तरह अपने ही संयम से काम लेना होता है। अपनी सुरक्षा और अपने मान की जिम्मेदारी हर जगह हमारी अपनी ही होती है। हमें क्या हक़ है कि यदि किसी को हलके फुल्के गाने सुनने का मन हो तो हम जबर्दास्त्ती उसे बुलाकर इतिहास सुनाएँ ? और फिर यदि वो ना सुने तो उसे अपने दोस्तों घेरे से निकाल दें या फिर उसे और उसके पूरे खानदान को गरियायें।
बरहाल गलत जहाँ भी हो उसका विरोध होना चाहिए फिर चाहे वो दुनिया में कहीं भी हो, पर मेरे ख़याल से कोई जगह गलत नहीं होती। आप और हम गलत होते हैं। हम समाज में रहते हैं और यहाँ सही, गलत सब होता है और यह हमेशा से होता रहा है, और उसे हम अपनी अपनी बुद्धि विवेक से ही सुलझाते भी हैं और जरुरत पढने पर कानून भी है। जहाँ तक मेरा मानना है बदला कुछ भी नहीं ना समाज, ना हम, ना मानव स्वभाव। बस बदला है तो माध्यम कल तो बातें चौपाल में फिर फ़ोन पर होती थीं आज इन शोशल साइट्स पर होती हैं।
नवभारत से साभार (४ मार्च २०१२ को प्रकाशित)
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