न नाते देखता है
न रस्में सोचता है
रहता है जिन दरों पे
न घर सोचता है
हर हद से पार
गुजर जाता है आदमी
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी
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यूँ तो गिरना उठना तेरा
रोज़ की कहानी है
पर इस बार जो गिरा तो
फिर ऊपर नहीं उठा है.
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लडखडा भर लेते तुम
कहते हैं निगाहों से गिरकर
फिर कोई उठ नहीं पाता.
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कहीं एक आस बाकी रहने दे
इक उठती नजर के सहारे
कुछ पलों को पलकों पर
यूँ ही टंगे रहने दे
क्या पता
क्या पता
नजरों से गिरते वजूद को
वहीँ थाम सकें वो.
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