Wednesday, March 28, 2012

फितरत ...

न नाते देखता है
न रस्में सोचता है
रहता है जिन दरों पे
न घर सोचता है
हर हद से पार
गुजर जाता है आदमी
दो रोटी के लिए कितना
गिर जाता है आदमी

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यूँ तो गिरना उठना तेरा 

रोज़ की कहानी है 
पर इस बार जो गिरा तो 
फिर ऊपर नहीं उठा है.
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बेहतर होता जो तनिक 
लडखडा भर लेते तुम 
कहते हैं निगाहों से गिरकर 
फिर कोई उठ नहीं पाता.
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कहीं एक आस बाकी रहने दे 

इक उठती नजर के सहारे
कुछ पलों को पलकों पर 
यूँ ही टंगे रहने दे
क्या पता 
 

नजरों से गिरते वजूद को 
वहीँ थाम सकें वो.
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Friday, March 23, 2012

क्या आप सफल हैं???.

 

निर्मल हास्य के लिए जनहित में जारी 🙂


सफलता – कहते हैं ऐसी चीज होती है जिसे मिलती है तो नशा ऐसे सिर चढ़ता है कि उतरने का नाम नहीं लेता. कुछ लोग इसके दंभ में अपनी जमीं तो छोड़ देते  हैं. अब क्योंकि ये तो गुरुत्वाकर्षण का नियम है कि जो ऊपर गया है वह नीचे भी जरुर आएगा या फिर खजूर के पेड़ पर अटक जायेगा. परन्तु वापस जमीं पर गिरते ही उनकी हड्डी हड्डी चरमराने लगती है. अब इसका एक दूसरा पहलू भी है. वह यह कि, कई बार ऐसा होता है कि सफलता जिसे मिलती है उसे तो इसका पता ही नहीं चलता। ऐसे में नशा तो आखिर नशा है कहीं तो चढ़ेगा, तो ये नशा दूसरों के सिर चढ़ कर बोलने लगता है. बोलने क्या लगता है, हल्ला मचाने लगता है और बेचारा सफल व्यक्ति, हक्का बक्का सोचता रह जाता है कि अचानक ये आवाजें कहाँ से और क्यों आने लगीं हैं.
वैसे क्या आप सफल हो रहे हैं… ? यह एहसास करने  के कुछ कारण होते हैं जिनकी बिनाह पर जाना जा सकता है कि आप सफल हो रहे हैं. आप भी पढ़ लीजिये. क्या पता आप भी सफल हो रहे हों और आपको पता ही ना हो.

  1. * जब आपके द्वारा किये गए हर कार्य का क्रेडिट लेने के लिए कोई उतावला होने लगे. जैसे बनारस का हर पान वाला बोले -“अरे उ अमितवा है ना. उ का हम पान खिलाये रहे तबही तो उ गाये रहा “खाई के पान बनारस वाला “… तो समझिये आप सफल हो रहे हैं.
  2. * जब आपकी प्रशंसा में कसीदे पढने वाले लोगों को अचानक आपमें दुनिया भर की बुराइयां नजर आने लगे- “अरे वो…अरे बहुत ही घमंडी है जी वो तो और काम क्या ? समझिये घास काटते हैं. क से कबूतर जानते नहीं, बस रट लिए हैं कुछ, और बन रही है जनता बेवकूफ। बने हमें क्या” तो समझिये आप सफल हो रहे हैं.
  3. * जब उसी सड़क पर खुद चलने वाले आपको कहने लगें कि, ये सड़क गलत है, यहाँ से मत जाइये.- ” अरे ये जो आजकल तरीका है ना…ठीक नहीं है. कोई फायदा नहीं होने वाला इससे. बहुत ही कच्चा है. देखना कहीं नहीं पहुंचेगा” तो समझिये आप सही राह पर हैं और सफलता के बहुत निकट हैं.
  4. * जब ” जान ना पहचान मैं तेरा मेहमान” की तर्ज़ पर कोई आपका चरित्र प्रमाणपत्र बांटता फिरे. तो समझिये आप काफी सफल हैं.
  5. * जब आपके तथाकथित दोस्त – दुश्मन में, और दुश्मन – दोस्त में तब्दील होने लगें, तो समझिये आप सफलता की तरफ तेज़ी से बढ़ रहे हैं.
  6. * जब आपको लगने लगे कि आपके दोस्त अचानक आपसे दूरियां बनाने लगे हैं – कुछ ईर्ष्या में, कुछ डर में कि कहीं आपकी बढती दुश्मनों की संख्या का खामियाजा उन्हें भी ना चुकाना पड़े, और कुछ शरीफ इस लिहाज से, कि आपसे नजदीकियों को कहीं उनकी चापलूसी ना समझ लिया जाये. तो समझिये आप सफल हो गए हैं.
  7. * जब लोग अपने घर से अधिक आपकी खिड़की पर नजर रखें. – जैसे, अरे अन्दर नहीं जायेंगे, झाँकने में क्या है, देखें तो हो क्या रहा हैआखिर. तो समझिये आप सफल हैं.
  8. * जब हर टॉम, डिक, हैरी आपको जानने का दम भरे और बे वजह आपके निकट आने की कोशिश करे “अरे वो… अरे वो तो अपने साथ ही पढ़ा है यार. संग तो गोली खेले हैं. वो क्या है कि संग संग गौएँ चरैं कृष्ण भए गुसाईं ”  तो समझिये आप सफल हो रहे हैं.
  9. * जब आपके हर छोटे बड़े कार्य का पोस्ट मार्टम किया जाने लगे, चीर फाड़ कर ही दम लेंगे. तो समझिये आप सफलता के चरम पर हैं.
  10. *  जब अचानक आपको भूल चुके आपके शुभचिंतकों को आपसे अपने मधुर सम्बन्ध याद आने लगें. “उफ़ कितना समय बीत गया ना. क्या दिन थे. कितना अच्छा समय गुजरा करता था अपना”. तो समझिये आप सफल हो गए हैं. 
  11. * जब किसी नीम के से पेड़  से आम की सी खुशबू आने लगे… समझ ही गए होंगे … तो समझिये आप सफलता की राह पर काफी आगे हैं. 
यूँ कहते हैं सफलता पचाना आसाँ काम नहीं और जिसने पचा ली, समझो सफल ही नहीं. पर मंदी और मिलावट के इस दौर में जाने लोग क्या क्या पचा लेते हैं. फिर मुई सफलता क्या चीज है. लक्कड़ पत्थर सब हज़म.
लेकिन कुछ लोगों की अपनी ही बनाई सफलता होती है जो कितनी ही हाजमोला खा लो पचती ही नहीं।  तो यहाँ वहां कुदकते – फुदकते घूमते हैं. थोड़ी इधर छलकाई, थोड़ी उधर. आखिर अधजल गगरी छलकत जाए और छलका -छलका कर बना लिया तालाब, फिर खुद ही बैठ गए उसे  क्षीर सागर की शैया मान कर. अब कोई माने विष्णु तो उसका भला ना माने तो उसको बुरा भला.
बरहाल अब आपने ये पुराण पढ़ ही लिया है तो सोचिये! क्या पता आप भी सफल हो रहे हों और आपको पता ही ना हो. सोचिये… सोचिये
 

Saturday, March 17, 2012

"स्मृतियों में रूस" लोकार्पित.

लोकार्पण 
सुश्री संगीता बहादुर ( डारेक्टर नेहरु सेंटर)
१४ मार्च बुधवार की शाम को लन्दन स्थित नेहरु सेंटर में  पुस्तक ” स्मृतियों में रूस ” का विमोचन  हुआ .समारोह में सम्मानित अतिथि  सुश्री संगीता बहादुर ने सर्प्रथम सभी का स्वागत करते हुए लेखिका को बधाई देते हुए अपनी बात शुरू की.
श्री कैलाश बुधवार (पूर्व बी बी सी प्रमुख )ने पुस्तक के बारे में बोलते हुए कहा कि शिखा की यह पुस्तक एक ईमानदार अभिव्यक्ति है रूस के इतिहास भूगोल पर बहुत ही पुस्तकें मिल जाती हैं परन्तु शिखा ने एक जिस तरह रूस के समाज की तहों में पैठ बनाकर ईमानदारी  से अपने अनुभवों को लिखा है वह बहुत कम मिलता है.यह पुस्तक उनके रोमांचकारी अनुभवों की रोचक प्रस्तुति से भरी हुई है.जिससे हमें पढने में आनंद तो आता ही है बल्कि उस समय के रूस में हुए परिवर्तनों की जानकारी भी मिलती है.पुस्तक के कुछ अंशों का उल्लेख करते हुए उन्होंने कहा कि वाकयों का प्रस्तुतीकरण और शिल्प ऐसा है  जैसा कि कभी कभी हमें फ़िल्मी परदे पर देखने को मिलता है.(आप यहाँ सुन देख सकते हैं-)
शिखा के वजूद में रूस बस्ता है
“शिखा वार्ष्णेय की किताब में रूस पर शोध कर के नहीं लिखा गया. जैसा शिखा ने रूस को महसूस किया ठीक वैसा ही उसे सरल और सीधे शब्दों में उतार दिया है. १६ वर्ष की teenager ने जैसे अनुभव ग्रहण किये शिखा हम से वो अनुभव बांटती है. . शिखा का अनुभव क्षेत्र केवल शिक्षा क्षेत्र तक सीमित नहीं है, वह अपने आस पास के समाज को समझने का प्रयास करती हैं, युवा मौज मस्ती का चित्रण करती हैं, अपने अकेलेपन का अहसास करवाती हैं और सोवियत रूस के टूटने की प्रक्रिया से गुज़रती हैं. रूबल की गिरती साख; डॉलर  के प्रति रूसिओं का मोह; अचानक विघटित देशों में वीसा की ज़रुरत – शिखा की निगाह सभी ओरे जाती है. कहानी के रूप में लिखा यह संस्मरण इस बात का प्रमाण है की शिखा और रूस के बीच कैसा रिश्ता बना.” यह कहना था प्रतिष्ठित कथाकार  तेजेंद्र  शर्मा का जब वे स्मृतिओं में रूस के विमोचन समारोह में बोल रहे थे.

समारोह में बोलते हुए श्री आनंद कुमार ( अताशे हिंदी .भारतीय उच्च आयोग  लन्दन )ने हिंदी के विकास के लिए उच्च आयोग द्वारा किये जा रहे कार्यक्रमों पर प्रकाश डाला.  
  

दिव्या माथुर, अमृता तोशी ,डॉ . हिलाल फरीद, इरीना आदि अनेक हिंदी और उर्दू साहित्य के गुणीजनों  की उपस्थिति में हुए इस समारोह का संचालन रूस में हिंदी की छात्रा रही ओल्गा उस्मानोवा ने किया .

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Tuesday, March 13, 2012

ज़रा देखना...

 
पिछले दिनों गिरीश पंकज जी की एक ग़ज़ल पढ़कर कुछ यूँ ख़याल आये.

ये संघर्ष हद से गुजर न जाये देखना
औरत टूट कर बिखर न जाये देखना. 


बैठा तो दिया है मंदिर में देवी बनाकर 
वो पत्थर ही बन न जाये देखना 

रोज उठती है,झुकती है,लचीली है बहुत 
एक दिन अकड़ ही न जाये देखना.

नज़रों में छुपाये हैं हर आँख का पानी 
बाढ़ बन कहीं बह न जाये देखना.

घर में रौशनी के लिए जो जलती है अकेली 
वो “शिखा” भी कहीं बुझ न जाये देखना 

Monday, March 5, 2012

जय हो....


लन्दन के एक मंदिर में त्यौहारों पर लगती लम्बी भीड़
त्यौहार पर मंदिर में लगती लम्बी भीड़, रंग बिरंगे कपड़े, बाजारों में, स्कूल के कार्यक्रमों में बजते हिंदी फ़िल्मी गीत,बसों पर लगे हिंदी फिल्म और सीरियलों के पोस्टर.और कोने कोने से आती देसी मसालों  की सुगंध .क्या लगता है आपको किसी भारतीय शहर की बात हो रही है.है ना? जी नहीं यहाँ भारत के किसी शहर की नहीं बल्कि दुनिया के प्रसिद्द महानगर, विश्व का व्यावसायिक मदीना, और राजसी ठाट वाट के लिए प्रसिद्द लन्दन की बात हो रही है.यकीन नहीं होता ना ? पर सच मानिये  लन्दन एशियाना हो चला है.

फैशन और आधुनिकता के लिए भारत ही क्या पूरा एशिया ही पश्चिम से प्रभावित रहा है.पश्चिमी लिबासों 
की होड़ हम हमेशा ही करते आये हैं.परन्तु कम से कमतर होते काले और स्लेटी कपड़ों से विपरीत अब लन्दन फैशन के लिए पूर्व की ओर देख रहा है. यह बात पिछले दिनों लन्दन में हुए फैशन वीक के दौरान सामने आई, जहाँ पीटर पिलोटो के जापान संस्कृति से प्रभावित रंग विरंगे फूल पत्तियों वाले प्रिंटेड परिधानों ने धूम मचा दी.
पीटर पिलोटो के जापानी कलेक्शन (तस्वीर इवनिंग स्टेंडर्ड से साभार )
यूँ तो एक कॉस्मोपॉलिटन शहर होने के नाते लन्दन में सभी समुदायों के उत्सव पूरे जोश औ  खरोश  से मनाये जाते हैं.परन्तु क्रिसमस या वेलेंटाइन डे जैसे पश्चिमी उत्सवों को पूरी दुनिया में प्रचारित करने बाद अब लन्दन में इन पर इतना उत्साह देखने को नहीं मिलता यूँ इसकी एक वजह आर्थिक मंदी भी हो सकती है.
जहाँ वेलेंटाइन डे जैसे अवसरों पर भारत में सुरूर चढ़ने लगा है, लोग बावले हुए जाते हैं और  सड़कें ,बाजार , रेस्टोरेंट ओवर फ्लो होते रहते हैं,.वहीँ लन्दन में इस बार वेलेंटाइन डे बहुत ही सुस्त रहा.ना बाजारों,दुकानों में रौनक थी, ना रेस्टोरेंट्स में जमघट.यहाँ तक कि एक सर्वे के मुताबिक उस मंगलवार को ( वेलेंटाइन डे ) डोमिनोज ने अपने इतिहास में सर्वाधिक पिज्जा बेचे.किसी पब में जाकर महंगा डिनर करने की बजाय लोगों ने इस बार घर में टी वी के आगे बैठकर पिज्जा खाकर यह दिन गुजारा.वहीँ रॉयल मेल के कार्ड का वितरण बेहद ही कम रहा. और एक उपहारों की दूकान की विक्रेता के अनुसार इस साल का वेलेंटाइन डे अब तक का सबसे सुस्त वेलेंटाइन था .कोई उत्साह नहीं ,कोई उत्सवी भोजन नहीं, कोई उपहारों पर खर्चा नहीं.हाँ नवरात्रि और करवा चौथ जैसे त्योहारों पर स्थानीय मंदिरों में बाहर सड़क तक लम्बी लम्बी लाइन अवश्य देखी गई. नवरात्रों में जगह जगह गरबा के आयोजन होते हैं.और दिवाली जैसे त्यौहार पर तो रौशनी और आतिशवाजी का नजारा नए साल से भी अधिक रंगीन नजर आने लगा है.भारत से घूमने आये लोग अब यह कहते पाए जाते हैं कि भारतीय त्योहारों की छटा देखनी हो तो लन्दन आना चाहिए.
भारत में अंग्रेजी धुनों पर डिस्को में थिरकती युवा पीढी और अंग्रेजी में गिटर पिटर करने को उच्च स्तरीय समझने वाले लोगों को अब लन्दन में शायद सांस्कृतिक झटका लगे, क्योंकि हिंदी को भी हिंगलिश की तरह इस्तेमाल करने पर आमदा भारत में रहने वाले भारतीयों से इतर लन्दन के स्कूलों में सार्वजनिक मीटिंग के दौरान “जय हो” बजता है.और स्कूल के सभी बच्चे उसपर थिरकते देखे जा सकते हैं.बिना हिंदी गीतों के कोई भी स्कूली सांस्कृतिक कार्यक्रम जैसे पूरा ही नहीं होता.यहाँ तक कि लन्दन में पले बढे प्रखर बच्चे “जी सी एस सी” में एक विषय के तौर पर हिंदी लेते हैं और “ए *” से उसे पास करते हैं. जगह जगह होते हिंदी सम्मलेन और हिंदी फिल्मों ,हिंदी गीतों की लोकप्रियता के बाद स्कूलों में हिंदी को एक वैकल्पिक भाषा के रूप में एक विषय के तौर पर लिया जाने लगा है.
बेशक आजकल भारत में बनने वाली हर दूसरी हिंदी फिल्म में लन्दन का जिक्र हो परन्तु २०१२ ओलम्पिक की ओर बढ़ते लन्दन की बसों पर नई हिंदी फिल्मो और सास बहूँ वाले हिंदी सीरियल के विज्ञापन चस्पा नजर आते हैं.डर लगने लगा है कि जल्दी ही कहीं सास बहू के झगडे यहाँ भी कहानी घर घर की न हो जाये.
पहले से ही लन्दन भारतीय व्यंजनों का शौक़ीन रहा है. पूरे लन्दन में भारतीय रेस्टोराँ की भरमार है और भारतीय टेक अवे तो हर मोड पर मिल जाते है.इंडियन करी तो ब्रिटिश भोजन का ही एक अहम हिस्सा है.और अब लन्दन के नव निर्मित आलीशान माल्स में भारतीय स्टाल की भागेदारी भी लगातार बढती ही जा रही है. चिकन टिक्का और कबाब के बाद अब भारतीय मिठाइयों और चाट के स्टाल भी अब इन माल्स की शोभा बढ़ा रहे हैं.
ऐसा नहीं है कि सांस्कृतिक और सामाजिक तौर पर ही लन्दन में एशिया का प्रभाव बढ़ रहा है ..बल्कि अब तो लगता है कि लन्दन की समस्याएं भी एशियन होने लगी हैं.जहाँ एक ओर लन्दन में पानी की कमी से होने वाले सूखे की अधिकारिक घोषणा कर दी गई है. पर्यावरण सचिव कैरोलिना स्पेलमन ने लोगों से पानी को किफ़ायत से खर्च करने को कहा है.वही बेरोजगारी, महंगाई , शिक्षा संस्थानों की कमी, निजी स्कूलों का बढता चलन और महँगी दर महँगी होती शिक्षा जैसी समस्यायों से लन्दन लगातार जूझ रहा है. सरकारी अस्पतालों और चिकित्सा व्यवस्था का तो आलम यह है कि साफ़ तौर पर सुना जाने लगा है कि बेहतर और जल्दी इलाज चाहिए तो निजी संस्थानों पर जाइये.एक समय में उम्दा और आधुनिक सुविधाओं वाले इलाज के लिए लन्दन का रुख करने वाले भारतीय अब जच्चगी जैसे सामान्य कार्य के लिए भी वापस अपने देश की उड़ान भरते नजर आते हैं.
शिक्षा के क्षेत्र में भी बढती प्रतियोगिता, निजी स्कूलों का बढता फैशन और महंगाई की हदों को छूती हुई उच्च शिक्षा को देखते हुए वह दिन भी दूर नहीं लगता जब शिक्षा के लिए भी लन्दन से लोग भारत की और मुड़ने  लगेंगे. और भारत अपने अतीत के जगत गुरु होने की भूमिका फिर से निभा पायेगा या नहीं यह देखना दिलचस्प होगा.
अब यह परिस्थितियां सामयिक हैं या वाकई तस्वीर बदल रही है यह तो आने वाला वक़्त ही बताएगा.फिलहाल तो लन्दन आने वाले ओलम्पिक के लिए उत्सुक है जहाँ आरंभिक उत्सव में भारत और एशिया का भी मोहक कार्यक्रम होने की सम्भावना है.अब बेशक हम भारतीय डूबते सूर्य की दिशा में हुंकार लगाते रहें पर कम से कम लन्दन तो उगते सूर्य की दिशा में नजरें उठाये “जय हो” कहता दिखाई देता है.