कभी कभी तो लगता है कि हम लन्दन में नहीं भटिंडा में रहते हैं (भटिंडा वासी माफ करें ) वो क्या है कि हम घर बदल रहे हैं और हमारी इंटर नेट प्रोवाइडर कंपनी का कहना है कि उसे शिफ्ट होने में १५ दिन लगेंगे .तो जी १८ मार्च तक हमारे पास नेट की सुविधा नहीं होगी.और हमारा काला बेरी भी देवनागरी नहीं दिखाता ..भगवान जाने कैसे जियेंगे हम (.पर आप लोगों को इसलिए बता दिया कि इतने दिन हमारी अनुपस्थिति से आप लोग खुशियाँ न मानना शुरू कर दें.कि चलो जान छूटी)तो तब तक आप सभी लोग हमें माफ कीजियेगा.और यह अकविता झेलिये..
मेरे घर की खिड़की से नजर आता था
एक ऊंचा ,घना, हरा भरा पेड़
रोज ताका करती थी उसे
अपनी सूनी सूनी आँखों से
और तैर जाते थे सपने
उसकी शाख पर
अपना भी एक ट्री हाउस बनाने के
फिर एक दिन अपने ही आँगन से
कुछ गीली सूखी लकड़ियाँ इकठ्ठा करके
एक सीढ़ी बना ली मैंने
और एक एक पाँव जमाकर
शुरू किया चढ़ना
कुछ ही समय में उसकी शाख पर
बना लिया अपना एक आशियाना
और रौशनी के लिए जला लिया एक दिया भी
लगा ये तो आसान ही था
बस एक चाह की थी जरुरत
परन्तु अब मुश्किल था
आने वाले आंधी ,तूफ़ान से बचा पाना उसे
बचा पाना उन समाज के ठेकेदारों से
जो काट डालने तो आतुर थे उस पेड को ही
जिस पर बड़ी मेहनत से बनाई थी
अपने लिए एक जगह मैंने….
ना बचा पाऊं शायद ये पेड़, ये आशियाना
हाँ अपने दोनों हाथों की कोठरी बना ली है
कम से कम उस दिए की “लौ ” तो ना बुझने पाए––
No comments:
Post a Comment