Monday, February 28, 2011

घूमता पहिया वक्त का.

Divya Mathur
अभी कुछ दिन पहले दिव्या माथुर जी ((वातायन की अध्यक्ष, उपाध्यक्ष यू के हिंदी समिति) ) ने अपनी नवीनतम प्रकाशित कहानी संग्रह “2050 और अन्य  कहानियां” मुझे सप्रेम भेंट की .यहाँ हिंदी की अच्छी पुस्तकें बहुत भाग्य से पढने को मिलती हैं अत: हमने उसे झटपट पढ़ डाला.बाकी कहानियां तो साधारण प्रवासी समस्याओं और परिवेश पर ही थीं परन्तु आखिर की दो कहानियों  ” 2050 और 3050  के कथानक ने जैसे दिल दिमाग को झकझोर कर रख दिया.कहानी में लेखिका ने 2050 और 3050 तक इंग्लैंड में होने वाले बदलावों को काल्पनिक तौर पर बेहद प्रभावी ढंग से परिलक्षित किया है .एक कथ्य  के अनुसार उस समय बच्चे पैदा करने के लिए भी यहाँ की सरकार से इजाजत लेनी होगी और वह आपके आई क्यू  और स्टेटस  को देखकर ही  इजाजत देगी. जो कि बहुत ही दुश्वार कार्य होगा. और जो बिना इजाजत बच्चे पैदा करने की हिम्मत करेगा उनके बच्चे को निर्दयता से उनकी आँखों के सामने ही मार दिया जायेगा.और भी बहुत कुछ जैसे – हर बात पर जुर्माना ,जगह जगह कैमरे ,और सख्त नियम कानून ,वापस एशियन देशों में लौटने की चाहत पर ना लौट पाने की मजबूरी वगैरह वगैरह .कहने को तो यह एक कहानी है लेखिका की  कल्पना शक्ति का एक नमूना भर. परन्तु मौजूदा हालातों को देखते हुए मुझे कोरी कल्पना भी नहीं जान पड़ती.पिछले २ वर्षों में आर्थिक मंदी के कारण इंग्लैंड में हुए बदलावों के परिप्रेक्ष्य में यह कल्पना अतिश्योक्ति नहीं जान पड़ती.
बात बात पर जुर्माना , बढ़ता टैक्स , बढ़ती  शरणार्थी जनसँख्या की वजह से बिगड़ती और महंगी होती चिकत्सीय और शिक्षा व्यवस्था.
स्कूलों का पहले ही बुरा हाल है,बच्चों को अपने निवास क्षेत्र के स्कूल में  जगह मिलना अब एक ख्वाब ही हो गया है माता पिता के लिए . और अब विश्वविद्द्यालय ने भी अपनी फीस एक साथ तीनगुना बढ़ा दी है .पिछले सत्र में जो फीस ३००० पौंड्स  हुआ करती थी इस सत्र से वह बढ़ा कर ९००० पौंड्स  कर दी गई है .और यह हालात साधारण विश्वविद्द्यालयों के हैं प्रसिद्ध विश्वविद्यालयों के क्या हाल होंगे वह तो सोच कर ही डर लगने लगता है. उसके वावजूद भी पिछले साल कई सौ छात्रों को किसी भी विश्वविद्द्यालय में स्थान नहीं मिला.आने वाले समय में यह समस्या क्या रूप लेगी यह किसी से छुपा हुआ नहीं है .
वर्तमान परिस्थितियों में रोजगार की समस्या इतनी विकराल हो चुकी है कि खास स्किल्ड जॉब्स  भी नहीं मिल रहे हैं. जहाँ पहले विश्वविद्द्यालय से निकलते ही नौकरी की गारेंटी हुआ करती थी और यही सोच कर लोग महंगी फीस लोन लेकर दे दिया करते थे .आज नौकरियों की अस्थिरता के चलते लोग समझ नहीं पा रहे हैं कि शिक्षा के लिए लिया गया भारी लोन आखिर चुकाया कैसे जायेगा. ऐसे में जो लोग यहाँ काफी सालों से हैं उनकी तो मजबूरी है, परन्तु जिन लोगों के पास वापस भारत लौटने विकल्प है वह यहाँ से जाने में कोई कोताही नहीं कर रहे . जिन्होंने यहाँ आकर जीवन नहीं देखा उनमें यहाँ का आकर्षण शायद बना हुआ है परन्तु इस जीवन से वाकिफ लोग अब कहते पाए जाते हैं कि भारत में जीवन लाख दर्जे ज्यादा स्तरीय और सुविधाजनक है.
एक समय था जब किसी जान लेवा  बीमारी से ग्रसित व्यक्ति को यह कहा जाता था कि इंग्लेंड जाकर इलाज कराइए  बच जायेंगे .आज नौबत यह है कि साधारण प्रसव कराने के लिए भी यहाँ से लोग भारत जाना ज्यादा ठीक समझते हैं.
अब जब कि शिक्षा ,चिकित्सा, रोजगार जैसी मूल भूत सुविधाओं की यह स्थिति है, तो क्या आकर्षण है अपने देश को छोड़कर विकसित देश में आने का?
एक समय था जब भारत सोने की चिड़िया कहलाता था.हर तरह से सुखी और समृद्ध. तब पश्चिम के लोग आकर्षित हुए थे भारत की तरफ .तो क्या इतिहास फिर से दौहरायेगा खुद को ? क्या यह एक साईकिल है ?क्या फिर घूमेगा वक़्त का पहिया.?क्या एक बार फिर वह समय आने वाला है जब सुख सुविधाओं की खोज में लोग एक बार फिर पूरब की ओर रुख करेंगे.?.अभी हो सकता है ये बात कल्पना या स्वप्न सी लगे पर वर्तमान परिस्थितिओं को देखते हुए इस  स्वप्न के पूरे होने में ज्यादा समय लगता नहीं दिखाई देता मुझे.

Tuesday, February 22, 2011

यही होता है रोज.


रोज जब ये आग का गोला 

उस नीले परदे के पीछे जाता है 

और उसके पीछे से शशि 
सफ़ेद चादर लिए आता है 
तब अँधेरे का फायदा उठा 
उस चादर से थोड़े धागे खींच  
अरमानो की सूई से 
मैं कुछ सपने सी  लेती हूँ
फिर तह करके रख देती हूँ 
उन्हें अपनी पलकों के भीतर 
कि सुबह जब सूर्य की गोद से कूदकर 
धूप मेरे आँगन में स्टापू खेलने आएगी 
तब इन सपनो को पलकों से उतार कर 
उसकी नर्म गर्म बाँहों में रख दूंगी  
शायद उसकी गर्मजोशी से 
मेरे सपने भी खिलना सीख जाएँ.
पर इससे पहले ही घड़ी के अलार्म  से 
मेरी पलकें खुल जाती हैं 
और सारे सपने 
कठोर धरातल पर गिर टूट जाते हैं.

Friday, February 18, 2011

क्या भारतीय बदबूदार होते हैं?

करी खा तो सकते हैं पर सूंघ नहीं सकते .
ब्रिटेन में करी का काफी प्रचलन  है. जगह जगह पर भारतीय और बंगलादेशी टेक आउट कुकुरमुत्तों की तरह खुले हुए हैं और यहाँ के निवासियों में करी का काफी शौक देखा  जाता है …पर समस्या तब खड़ी होती है जब उन्हें करी खाने से तो कोई परहेज नहीं पर करी की सुगंध से परहेज हो. एक समाचार पत्र की एक खबर के मुताबिक ब्रिटेन के एक प्राइमरी  स्कूल की एक  टीचर को २ साल के लिए सस्पेंड कर दिया गया है क्योंकि उसने कुछ बच्चों पर इसलिए एयर फ्रेशनर छिड़क दिया था क्योंकि उनपर से करी की दुर्गन्ध आ रही थी …इससे पहले इस अध्यापिका को एशियन  बच्चों पर रंगभेदी टिप्पणियाँ करने का आरोप लग चुका है परन्तु वह साबित नहीं हो सका अब उसका कहना है कि बंगलादेशी /एशियन (यहाँ भारतीय,बंगलादेशी,पाकिस्तानी,श्रीलंकन सबको सम्मिलित रूप से एशियन पुकारा जाता है )  बच्चों से प्याज और करी की दुर्गन्ध आने के कारण उसने उन बच्चों पर एयर फ्रेशनर का छिडकाव किया. हालाँकि इन बच्चों में कुछ बच्चे नॉन बंगलादेशी भी बताये जाते हैं और उनके अभिभावकों का कहना है कि इस अध्यापिका को २ साल के लिए ही नहीं पूरे जीवन के लिए इस नौकरी से सस्पेंड किया जाना चाहिए.
हालाँकि यह पहली खबर नहीं जो मैंने पढ़ी है इससे पहले भी कई बार इस तरह की ख़बरें  प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष रूप से सामने आती रहीं हैं ..एक बार मेरे अमेरिका प्रवास के दौरान एक भारतीय कंपनी ने अपने कर्मचारियों को एक मेल भेजा जिसमें हिदायत दी गई थी कि कृपया सभी अपना पर्सनल हाइजीन मेंटेन करें   ..हुआ यह था कि एक क्लाइंट ने एक भारतीय कर्मचारी के साथ मीटिंग करने से इसलिए मना कर दिया था कि उसके शरीर से दुर्गन्ध आती है,और उसके साथ खड़े रहकर उसके लिए बात करना मुश्किल होता है .ये बातें पढ़ – सुनकर जाहिर तौर पर किसी भी भारतीय का खून खोल उठेगा परन्तु प्रश्न उठता है कि क्या  “एशियन वाकई बदबूदार होते हैं ?वो भी इतने कि सामने वाले की बर्दाश्त से बाहर की बात हो जाये …निश्चित ही ये बात हमें कहीं से पचने वाली नहीं लगती क्योंकि हमने भारत में तो कभी इस समस्या से किसी को दो चार होता हुआ नहीं देखा .परन्तु अगर हम ठन्डे दिमाग से सोचें तो कुछ बातों पर विचार कर सकते हैं हालाँकि ये बातें किसी भी तरह इस अध्यापिका के इस कृत्य को जस्टिफाई नहीं कर सकतीं.
  इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता हम एशियन /भारतीय के भोजन में प्रयुक्त होने वाले मसालों की सुगंध बहुत ही तीव्र होती है  और हो सकता है उन मसालों के आदी जो लोग नहीं होते उनके लिए वह सुगंध असहनीय हो जाती हो, जिस तरह से हममे से बहुत से लोगों के लिए चीनी भोजन की सुगंध या शकाहिरियों के लिए मांसाहारी भोजन  की सुगंध असहनीय होती है .फिर भोजन में प्याज ,लहसुन  की अधिकता जाहिर है आपके सांस को भी प्रभावित करती है ..और यह कहने में मुझे कोई गुरेज़ नहीं कि अधिकाँश भारतीय उसके लिए चुइंग गम तक चबाना भी गवारा नहीं करते.जाहिर है इसका खामियाजा सामने वाले को भुगतना ही पड़ता है .यहाँ तक कि घर में बने खाने की वजह से मसालों की सुगंध कई बार कपड़ों तक में बस जाती है और शरीर पर चुपड़ा गया नारियल  का तेल बेशक हमें सुगंध प्रतीत होता हो, पर किसी के लिए वह सुगंध असहनीय भी हो सकती है .पर उसके लिए भी कोई उपाय करना कुछ लोग  अपनी शान के खिलाफ समझते हैं .बात भी ठीक है आखिर क्या खाया जाये, कब खाया जाये  या क्या लगाया जाये ये हमारा मूल अधिकार है और अपने देश से बाहर आकर हम अपना ये अधिकार गँवा तो नहीं देते…परन्तु हम ये भूल जाते हैं कि एक पब्लिक प्लेस में काम करने पर या वहां शामिल होने पर वहां उपस्थित लोगों के बारे में सोचना भी हमारे अधिकारों के नहीं तो कर्तव्यों के अंतर्गत जरुर आता है ..जैसे कोई हमें हमारे मसालेदार खाना खाने से नहीं रोक सकता वह अवश्य ही हमारी आजादी का हिस्सा है ..परन्तु हमारी वह  आजादी वहां ख़तम हो जाती है जहाँ से किसी और  की नाक शुरू होती है .ऐसा नहीं है की बाकी देशवासी खाने में इत्र डाल  कर कहते हैं या उनके शरीर से दुर्गन्ध नहीं आ सकती परन्तु सार्वजानिक स्थान पर लोगों के बीच वे  इससे बचने के उपाय करने में गुरेज़ नहीं करते यानी  शिष्टाचार के नाते हम और कुछ नहीं तो अपने साथी कर्मचारी की खातिर खाने के बाद एक चुइंग गम  और कपड़ों पर डियोडरेन्ट का इस्तेमाल तो कर ही सकते हैं.जैसे बाकी के लोग करते हैं
मुझे याद आ रहा है एक मजेदार किस्सा जब एक अन्तराष्ट्रीय उड़ान  के दौरान हमारे कुछ भारतीय साथी जहाज के ही गेलरी में पोटली खोलकर घेरा बनाकर बैठ गए कि “माँ का दिया हुआ खिचडी खाना है..जाने फिर कब मिलेगा” .अब क्योंकि उस उड़ान में ९९% भारतीय ही थे इसलिए किसी ने प्रत्यक्ष रूप से कोई आपत्ति नहीं जताई परन्तु अगर उस उड़ान में  कुछ वेदेशी यात्री भी होते तो जरा सोचिये क्या हालत होती उनकी. क्या अपने साथी यात्रियों की सुविधा का ख्याल रखना हमारे शिष्टाचार के अंतर्गत नहीं आता?
निश्चित तौर पर उस अध्यापिका का वह व्यवहार किसी भी तरह से उपयुक्त नहीं कहा जा सकता और उसे उसकी सजा भी मिली ..और निश्चित ही उस  अमेरिकेन क्लाइंट का वह वक्तत्व अपमान जनक था ..पर क्या एक सभ्य देश के सभ्य नागरिक होने के नाते  हमारा यह कर्तव्य नहीं बनता कि दुसरे देश में उस देश के मुताबिक अपने व्यवहार और थोडा ढाल सकें..जिस तरह अपने घर में हम कैसे भी रहे परन्तु घर से  बाहर निकलते वक़्त , शिष्टाचार वश कुछ सामान्य मापदंड का हम पालन करते हैं . उसी तरह दुसरे देश में रहने पर ,वहां के लोगों के बीच काम करने पर ,वहां के नागरिकों के प्रति  कुछ तो शिष्टाचार हमारा भी बनता ही है

Tuesday, February 15, 2011

किस रूप में चाहूँ तुझे मैं ?

 

तू बता दे ए जिन्दगी 

किस रूप में चाहूँ तुझे मैं?

क्या उस ओस की तरह
जो गिरती तो है रातों को
फ़िर भी दमकती है.
या उस दूब की तरह
जिसपर गिर कर
शबनम चमकती है.
या फिर चाहूँ तुझे
एक बूँद की मानिंद .
निस्वार्थ सी जो
घटा से अभी निकली है.
मुझे  बता दे ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं.
कभी सोचती हूँ चाहूँ
उस चांदनी की तरह
बिखर जाती है जो
चाँद से प्यार करके.
या फिर उस किरण की तरह
निकल दिनकर से जो
फ़ैल जाती है ऊष्मा बनके .
फिर सोचती हूँ
क्यों ना बन जाऊं लौ दिए की
और जलती रहूँ रौशनी बनके .
तू ही बता दे ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं
रुक  दो घड़ी सोचने दे ..

काश  बन जाऊं वह नदी

जिससे ना रूठे सागर कभी
या फिर वो चंचल लहर
जिससे ना छूटे साहिल कभी
या फिर निशा की वो बेला
प्रभात से जो मिली अभी
 तू बता दे ना ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं

 

Friday, February 11, 2011

प्रेम, रंग और मसाले

 

बसंत पंचमी ( भारतीय प्रेम दिवस ) बीत गया है ,पर बसंत चल रहा है और वेलेंटाइन डे आने वाला है ..यानी फूल खिले हैं गुलशन गुलशन ..अजी जनाब खिले ही नहीं है बल्कि दामों में भी आस्मां छू रहे हैं ,हर तरफ बस रंग है , महक है ,और प्यार ही प्यार बेशुमार . …वैसे मुझे तो आजतक ये प्यार का यह फंडा ही समझ में नहीं आया ….कहीं कहा जाता है ..प्यार कोई बोल नहीं ,कोई आवाज़ नहीं  एक ख़ामोशी है सुनती है कहा करती है …तो कहीं कहा जाता है ….दिल की आवाज़ भी सुन ….

अजीब कन्फ्यूजन है …वैसे अगर आप गौर फरमाएं तो प्यार की परिभाषाएं कुछ इस तरह भी हो सकती हैं .
 
एक नन्हे बच्चे के लिए माँ है प्यार …
स्कूल जाता है तो स्कूल की  छुट्टी है प्यार..
थोडा और बड़ा होता है तो टीचर है प्यार…
एक कुवारे के लिए एक करोणपति  की इकलौती बेटी है प्यार
और एक नवयुवती के लिए कोई मिस्टर परफेक्ट है प्यार.
एक गृहणी के लिए सुकून के २ पल है प्यार
एक पति के लिए पत्नी का मौन है प्यार.
एक अधेड़  पुरुष के लिए किसी कमसिन का हेल्लो हो सकता है प्यार
एक कवि के लिए चाँद है प्यार
और एक पाठक के लिए कवि की कविताओं से बच पाना है प्यार .

तो जी प्यार एक, रूप अनेक. टाइप बात है कुछ ..जरा सोचिये  वेयर इस द टाइम टू  हेट, व्हेन देयर इज सो सो मच टू  लव …
यूँ  मुझे इस प्रेम उत्सव से ज्यादा प्यार  रंग उत्सव से है जिसका ऑफिशियल  आगाज बसंतपंचमी से  हो जाता है ...खासकर कुमायूं में तो हो ही जाता है. जहाँ बचपन में मनाई होली की तस्वीरें अब तक मेरे ज़हन में ताज़ा हैं. वहां बसंतपंचमी से ही होली की बैठकें शुरू हो जाती थीं .यानी बारी बारी हर एक के घर में बैठक होती जहाँ होली की टोली/मंडली हारमोनियम ,ढोलक के साथ पहुँचती और ” जल कैसे भरूँ जमना गहरी ” और ” काली गंगा को कालो पानी ” की सुर लहरियां गूंजने लगतीं, फिर  जलपान के साथ संध्या का समापन होता और यही कार्यक्रम होली तक जारी रहता. .फिर होली वाले दिन भी ऐसी ही टोली में सब निकलते और नाचते गाते  एक एक के घर जाते एक दुसरे को अबीर गुलाल लगाते और फिर वह भी टोली में शामिल जाता ..मैंने आजतक इतनी साफ़ सुथरी ,सभ्य ,सुघड़ और रोचक होली और कहीं नहीं देखी .


कुमाऊँनी होली बैठक .
फिर पहाड़ों  से निकल कर मैदानों में आये तो देखा होली का विकराल रूप. जितने तथाकथित सभ्य लोग उतना ही असभ्य  होली मनाने का तरीका .जहाँ जब तक कीचड़ में फैंका जाये किसी का फगवा पूरा नहीं होता था.रंग ,कीचड़,कोलतार जो मिले पोत दो. होली से एक दिन पहले तैयारी में और २ दिन बाद के , सही दशा में आने में बेकार …पर फिर भी होली है भाई होली है
पर सबसे यादगार रही उसके बाद मोस्को के होस्टल में  मनाई गई होली जहाँ किसी भी तरह का रंग ,गुलाल का इस्तेमाल संभव नहीं था तो शुरुआत तो हुई हम लड़कियों की  लिपस्टिक से सभी कुछ बहुत ही सभ्य तरीके से चल रहा था लिपस्टिक से टीके लगाये जा रहे थे ज्यादा से ज्यादा उसी से मूंछे दाड़ी बना दी जा रही थीं अब वो जाने होली की खुमारी थी या विनाश काले विपरीत बुद्धी ,अचानक एक महाशय को जाने क्या सूझा दाल गरम करते दुसरे महानुभाव पर जरा सा पानी छिड़क दिया… और बस.. फिर तो  लेकर उन्होंने दाल का पतीला ही पहले वाले पर उलट दिया और जी शुरू हो गई दाल,, चावल , मसालों की खाती पीती होली .दाल चावल,सब्जी  और मसाले ख़तम हो गए तो .तो फ्रिज से  निकाल कर हर चीज़ इस्तेमाल की गई और एक बार फिर सदियों बाद भारत में ना सही पर भारत वासियों ने दूध दही की नदियाँ बहा दीं .होली का खुमार उतरा तो समझ में आया कि ये स्व: निर्मित नदिया अपने आप तो सागर में मिलने से रहीं इन्हें इनके गंतत्व तक पहुँचाना भी हम ही को पड़ेगा और फिर हुआ सफाई अभियान और एक हफ्ते तक कमरे से लेकर कपड़ों तक में मसाले की सुगंध आती रही. और घर का राशन ख़तम हो गया वो अलग.पर होली मन गई और बहुत खूब मन गई .और मिल गया एक मनपसंद त्यौहार मनाने का आत्मिक सुख..
जी हाँ हमें पता है कि होली अभी दूर है …पर हमने सोचा कि होली पर तो रंग बिरंगी रचनाओं से ब्लॉगजगत सरोवर रहेगा . और हम भी व्यस्त रहेंगे ये रंग  भरा त्यौहार मनाने में , अंग्रेजों के गोरे गालों पर गुलाल वैसे भी बहुत खिलता है..तो हम अपने ब्लॉग पर  अबीर ,गुलाल का एक टीका अभी लगा देते हैं .
आप सभी को रंगों भरे इस मौसम की बहुत बहुत शुभकामनाये. .
पिछले साल की होली 

Sunday, February 6, 2011

यवनिका यादों की ...

सफ़ेद रंग का लम्बा वाला लिफाफा था और मोती से जड़े उसपर अक्षर. देखते ही समझ गई थी कि ख़त पापा ने लिखा है. पर क्या???? आमतौर पर पापा ख़त नहीं लिखा करते थे.बहने ही लिखा करतीं थीं और उनके लिफाफे गुलाबी,नीले ,पीले हुआ करते थे. कोई जरुरी बात ही रही होगी. झट से खोला था तो दो बड़े बड़े पन्ने हाथ आ गए थे, धक् से रह गया दिल, क्या हो गया …इतना लम्बा पत्र…. बिना सांस लिए पढ़ डाला था पर वो पत्र कहाँ…भावनाओं की नदी थी. जैसे प्रत्येक पंक्ति एक कवित , वैरी अन यूजुवल  टू पापा …”छ: बजने को आये हैं बाहर चिड़िया  की चहचहाहट  के साथ तुम्हारी यादों की टीस भी शोर मचाने लगी है,यूँ ही तो तुम्हारी किलकारियां गूंजा करती थीं कभी. अब और लिखा तो ये बाकी लिखे शब्द भी धुल ना जाएँ इसलिए बंद करता हूँ…  तुम्हारा पापा.” इन आखिरी पंक्तियों के साथ ख़त मोड़ते  हुए सारा दृश्य सामने चलने लगा था. जरुर किसी टेंशन की वजह से आधी रात नींद खुल गई होगी उनकी. कोई ऑफिस की परेशानी होगी.. . चहलकदमी करते हुए सोच रहे होंगे कि कैसे किसी दुश्मन को अपना बनाया जाये.अजीब सा फलसफा था उनका, कि अगर कोई तुमसे चिढ़ता है तो चिढ़ से उसका जबाब मत दो. दुश्मन को प्यार से वश में करो. यदि कोई तुम्हें नीचा दिखाना चाहता है तो बदले में उसे गालियाँ ना दो बल्कि अपना कद इतना ऊंचा कर लो कि तुम्हारी ओर  नजर उठाकर देखने में सामने वाले की गर्दन ही अकड़ जाये.. .और बिलकुल यही किया करते थे वे. उनके मातहत उन्हें पूजा करते थे और अधिकारियों को उनकी लत सी लग जाती. हाँ कभी कभार कोई साथी जरुर जलन वश चिढ जाता तो वे मौका तलाशते रहते कि कब कैसे उसकी मदद की जाये कि उसकी भावनाए  बदल जाये.,और उसे अपना बनाकर ही चैन लेते. यही स्वाभाव था उनका ...

तभी मम्मी की नीद खुल गई होगी पूछा होगा ” क्यों टहल रहे हो रात को २ बजे ? तो झट से बोले होंगे “आज डिनर में सब्जी ठीक नहीं बनाई तुमने , गणेश (नौकर)से बनवा दी थी क्या ?( जबकि वे जानते थे खाना मम्मी खुद ही बनाती थीं हमेशा),सैंडविच खाने का मन कर रहा है खीरा टमाटर वाला.खुन्खुनाती मम्मी उठ गई होंगी और ऊनी गाउन लपेट मुस्कुराती आ गई होंगी रसोई में “सीधे सीधे नहीं कह सकते कि भूख लग आई है.” और ब्रेड की साइड करीने से काट कर तरीके से सैंडविच  बनाकर  दिया होगा.पापा को हर काम सुव्यवस्थित ही चाहिए होता है. जरा भी टेढ़ा – मेढ़ा  नहीं. यहाँ तक कि दरवाजे की चिटकनी लगा कर उसे अन्दर मोड़ना जरुरी होता था.वर्ना यह पहचान थी एक लापरवाह और काम अधूरा छोड़ देने वाले व्यक्तित्व की. मम्मी तो फिर सो गई होंगी आकर.सैंडविच  चबाते हुए अचानक याद आ गई होगी मेरी, और भावावेश  में यह ख़त लिख डाला होगा,साथ ही लिफाफा तुरंत चिपकाकर रख लिया होगा ऑफिस के बैग में. पता था मुझे, घर में किसी को बताया भी नहीं होगा ऐसे ही हैं वे..  अपनी भावनाएं दिखाना जरा भी पसंद नहीं उन्हें..फिर मम्मी को रात  को उठाकर सैंडविच बनवाया था, इस अपराधबोध को मिटाने के लिए चाय बना कर मम्मी को दी होगी और दोनों बहनों का टिफिन भी पैक कर दिया होगा….
पता नही किस माटी के बने हैं मेरे पापा अचानक होंठ फ़ैल गए मुस्कराहट में. एक तरफ शौक़ीन ,जिंदादिल ,गुस्सैल  और बेहद प्रेक्टिकल और दूसरी ओर गहन फिलॉसफर ,बेहद संवेदनशील, कवि ह्रदय .पता ही नहीं चलता था कब किस करवट बैठेंगे.जहाँ एक ओर लोगों से घिरे रहने का , अपनी तारीफें सुनने का शौक था वहीँ दूसरी ओर जबरदस्त आलोचना सहने की शक्ति थी ,और अद्भुत क्षम्य क्षमता…पल भर में मोम सा दिल पिघल जाता था...मम्मी भुनभुनाती रहती थीं “कोई एक दिन  बेच खायेगा हमें तो”. और वो हंस दिया करते ठहाके मारकर ..”अरे अब क्या  बिकेंगे… ..मेरठ में पढता था तब  रेखा (फिल्म अभिनेत्री ) का प्रोपोजल आया था.पर पढाई की वजह से मना करना पड़ा” …और वहां खड़े सब उनके इस अंदाज पर खी खी कर हंस दिया करते और मम्मी अपना गुस्सा भूल कर गर्दन झटका दिया करतीं.



वैसे और लोग ही क्या ..हम भी आँख बंद करके आश्रित रहा करते थे पापा पर ,असंभव तुल्य ही काम क्यों ना हो बस कान में डाल दो पापा के और निश्चिन्त सो जाओ ..हो ही जायेगा वो भी पूर्ण व्यवस्थित तरीके से .
वैष्णो  देवी की यात्रा पर गए थे एक बार हम,साथ में छोटी सी ५ साल की बेटी ,वहां की व्यवस्था का कोई अंदाजा तो था नहीं. वैसे भी अब तक सारे भारत के तीर्थ पापा के साथ किये थे तो कुछ कभी समझने की जरुरत नहीं महसूस हुई थी .परन्तु ऊपर दरबार में पहुँच कर देखा तो पाया कि वहां रहने के लिए इस तरह कमरे नहीं मिला करते लाइन इतनी लम्बी है ..टोकन ले लीजिये और वहीँ कहीं लेट जाइये सारी रात, सुबह तक शायद नंबर आ ही जायेगा दर्शनों का  ..सुनकर सन्न रह गए हम. छोटी सी बच्ची के साथ इतनी ठण्ड में ये कैसे हो सकता है …और सुबह की तो वापसी की ट्रेन भी है जम्मू से.पतिदेव  ने कहा तुम यहाँ बैठो मैं पता करता हूँ किसी से .वहां पत्थर पर बैठ जाने कैसे ज़हन में आया ..”काश पापा होते.. बस एक फ़ोन करने भर की देरी थी.सब कुछ अरेंज हो जाता.” ख्याल अभी गए भी नहीं थे कि जाने कहाँ से एक सज्जन प्रकट हुए, कहने लगे कहाँ से आये  हैं आपलोग माँ के दर्शन के लिए? हमने जबाब दिया तो उन्होंने एक वी आई पी  पास हमें पकड़ा दिया कि मैं यहाँ हर २-३ महीने में आता हूँ मेरे पास आज ये एक्स्ट्रा है आप यह ले लो और हाथ मुँह धोकर दर्शन के लिए चले जाओ .मैं फटी फटी आँखों से देख रही थी बस. उन्हें धन्यवाद भी पति ने आकर किया और हम जड़वत से  दर्शन कर आये आधे घंटे में ही.वापस जम्मू लौटकर एक होटल में शरण ली. बाहर बालकनी  से नजरें अनानयास ही  आस्मां की और उठ गईं एक सितारा टिमटिमाता दिख रहा था होंट स्वत:  बुदबुदा उठे  “थैंक्स पापा”… जैसे जबाब आया ” पागल है बिलकुल ..दुनिया घूम आई पर जरा जरा सी बात पर परेशान हो जाती है..” खुले होंठ फ़ैल गए मुस्कराहट से….
आज छ: फरवरी है. एक बार फिर पलके उठ गई हैं आस्मां पर , कोई तारा फिर दिखा है ..और ये होंठ फिर खुल गए हैं ” हैप्पी बर्थडे पापा……..

मैं और मेरे पापा.