तू बता दे ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं?
क्या उस ओस की तरह
जो गिरती तो है रातों को
फ़िर भी दमकती है.
या उस दूब की तरह
जिसपर गिर कर
शबनम चमकती है.
या फिर चाहूँ तुझे
या फिर चाहूँ तुझे
एक बूँद की मानिंद .
निस्वार्थ सी जो
घटा से अभी निकली है.
मुझे बता दे ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं.
कभी सोचती हूँ चाहूँ
उस चांदनी की तरह
बिखर जाती है जो
चाँद से प्यार करके.
या फिर उस किरण की तरह
निकल दिनकर से जो
फ़ैल जाती है ऊष्मा बनके .
फिर सोचती हूँ
क्यों ना बन जाऊं लौ दिए की
और जलती रहूँ रौशनी बनके .
तू ही बता दे ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं
रुक दो घड़ी सोचने दे ..
काश बन जाऊं वह नदी
जिससे ना रूठे सागर कभी
या फिर वो चंचल लहर
जिससे ना छूटे साहिल कभी
या फिर निशा की वो बेला
प्रभात से जो मिली अभी
तू बता दे ना ए जिन्दगी
किस रूप में चाहूँ तुझे मैं
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