Wednesday, December 29, 2010

आओ खेलें विधा विधा


सबसे पहले तो हिंदी साहित्य के सभी गुणीजनों  और ब्लॉगजगत के सभी साहित्यकारों से हाथ जोड़ कर और कान पकड़ कर माफी .कृपया इस पोस्ट को निर्मल हास्य के रूप में लें .
हमारे हिंदी साहित्य में बहुत ही खूबसूरत और सार्थक विधाएं हैं और इनमें बहुत से रचनाकारों ने अपनी सिद्धता भी दर्ज की है .परन्तु मेरे खुराफ़ाती या कहें कि खाली बैठे शैतानी दिमाग में इनका कुछ अलग रूप आ रहा है आप भी पढ़िए और हंसी आये तो हंसिये पर व्यक्तिगत  तौर पर या दिल पर मत लीजिए.

सबसे पहले सबसे कोमल विधा —

कविता.–  मेरे ख्याल से इसका जन्म दो शब्दों से हुआ  होगा – कवि + ता .तो कवि यानि जो कविता लिखे और ता यानी वो बच्चे खेलते हैं न छुपने वाला खेल …ता ………… मतलब कि जहाँ कविता का कवित्त छुपा रहे उसे कविता कहते हैं .यानी जो जितनी सर से ऊपर से निकल जाये उतनी बड़ी कविता.लिखा कुछ और गया हो मतलब कुछ और निकले और पढ़ने वाला अपने बाल नोचें पर मुंह से बोले वाह वाह , अगर वो ऐसा न करे तो मूढ़ बुद्धि .. उसे कविता की समझ ही नहीं .वैसे कुछ लोग जो जबान से नहीं कह सकते ..तुकबंदी  के माध्यम से कहने की कोशिश करते हैं.उसे भी कविता कहा जाता है.

निबंध – किसी भी तथ्य का सीधा सपाट विवरण निबंध कहलाता है जो देखा बस लिख दिया जैसे स्कूल में लिखने को आता था गाय पर निबंध लिखिए .और जो सामने तस्वीर उभरी लिख दिया .गाय के ४ पैर होते हैं ,२ सींग  होते हैं ,वो हमें दूध देती है .और कुछ सामाजिक परिवेश के हिसाब से इधर उधर भी .जैसे भारत में एक पंक्ति बढ़ जाती है .कि गाय को हम माता कहकर बुलाते हैं .

व्यंग – यानी जूते को भिगो – भिगो के मारना .जितनी भड़ास मन में सब निकाल देना .पर चाशनी में लपेट कर हाँ ..शर्त है कि चाशनी  एकदम सही होनी चाहिए न ज्यादा पतली न ज्यादा गाढ़ी .क्योंकि पतली हुई तो जिस जगह जूते पर लगा कर मारी है वहां चिपकेगी ही नहीं  तो बेकार है, असर ही नहीं होगा .गाढ़ी  हुई तो जूता भी चाशनी के साथ चिपक जायेगा अब जूता भी गया हाथ से और जहाँ मारा है वो भी खफा.तो चाशनी ऐसी हो कि थोड़ी सी चिपक कर जूता अपने ही हाथ में वापस आ जाये.

संस्मरण – आप कहीं भी चाचा – मामा के यहाँ जाये या कि नदी ,पोखर की सैर करने तो घर में निकलने से पहले की लड़ाई से  लेकर पोखर तक पहुँच कर वहां पैर फिसलने तक का सारा विवरण संस्मरण कहलाता है .इसे लिखने के लिए बहुत जरुरी है कि आपने बचपन में बादाम खाए हों क्योंकि रास्ते  में मिले एक कुत्ते ने कैसे आपको देख कर पूछ हिलाई थी वह भी आपको याद रखना होगा वर्ना आपका संस्मरण अधूरा रह जायेगा.और लोगों को पढ़ने में मजा नहीं आएगा.

कहानी – ये सबसे रोचक विधा है. इसके सभी पात्र इसके लेखक के हाथ की कठपुतली होते हैं जिन्हें जैसे वह चाहे घुमा दे जैसा जब चाहे रूप दे दे .कहानी का लेखक अपने आसपास के लोगों को भी कहानी का एक पात्र मात्र समझता है. किसी की भी जिंदगी के अनछुए पहलू  को कहानी बना सकता और चाहता है वे पात्र  उसकी सोच और कल्पना के अनुसार ही व्यवहार करें . जरा भी चूं चपड़ की अपने हिसाब से तो  बस, बना दिया विलेन कहानी का. और मजाल  किसी की , कि जो कोई दावा कर दे . क्योंकि इस विधा के साथ स्वत: ही एक डिस्क्लेमर जुड़ा  होता है कि “:इसके सभी पात्र काल्पनिक हैं और इसका किसी भी जीवित या मृत से कोई लेना देना नहीं ” कहानी का  लेखक संवेदनशील होता है पर उसकी कहानी के पात्रों  को अगर वो न चाहे तो संवेदनशील होने का कोई हक नहीं.. 


यात्रा वृतांत – एक विधा है ये जताने के लिए  कि देखो जी कित्ता घूमें हैं हम .गली गली ,चप्पे चप्पे की खाक छानी है .और याद भी रखा है .और हर बात में अपनी नाक घुसेड़ी है कि बाद में लिखा जा सके.जब बाकी लोग दर्शनीय  स्थल का मजा ले रहे हों मनोरम दृश्यों का रस ले रहे हों आप इन्फोर्मेशन सेंटर में पैम्फ्लेट्स  तलाशिये,यहाँ वहां की तस्वीरें खींचिए  ,वहां का खाना बेशक समझ ना आये पर खाकर देखिये अजी बाद में उल्टी कर दीजियेगा पर जरुरी है कि सब ठीक से पूरे तरीके से समझा जाये वर्ना क्या लिखेंगे भला? .तो बस सब कुछ इकठ्ठा करके ले आइये और लिख डालिए और बताइए कितने आउट गोइंग हैं आप.

आलोचना – यानी… आ.. लो.. चना (लोहे का ) और नाक से चबाओ  .इसे समालोचना समझने की भूल ना करें. सिर्फ और सिर्फ  सीधी – सच्ची आलोचना .आपको कोई  पसंद ना हो या लगे कि ज्यादा उछल रहा है पकड़ लीजिये उसकी रचना. और खोद कर निकाल  डालिए कमियाँ .और अगर ना मिले तो  २-४ शुभचिंतकों को अपने में मिला लीजिये और अच्छे को भी कहिये बुरा फिर  उन्हें कहिये आपके सुर  में सुर मिलाएं .हाँ कुछ २- ४ बड़ी दुर्लभ किताबों के नाम याद कर लीजिये और हो सके तो अपनी अलमारी में उन्हें रखकर फोटो खिंचवा लीजिये जिससे कोई ये ना कह सके कि आपको विषय का ज्ञान नहीं .बस हो गई आलोचना . 

अभी बस इतने ही ज्ञान से काम चलाइये … बाकी की विधाएं कुछ और बादाम खाने के बाद..अरे कुछ खुद भी पढ़िए समझिये कि सब हम ही बताएँगे…..

Wednesday, December 22, 2010

आभासी दुनिया की अनमोल खुशियाँ..

बदलते वक़्त के साथ सब कुछ बदलता जाता है .रहने का तरीका ,खाने का तरीका ,त्यौहार मनाने का तरीका, मृत्यु  का  तरीका और जन्म लेने का तरीका, तो भला जन्म दिन मनाने का तरीका क्यों नहीं बदलेगा .अब देखिये ना जब छोटे बच्चे हुआ करते थे .ना तो टी वी था ना ही टेलीफ़ोन की इतनी सुविधा ,तो जन्म दिन हुआ तो घर में जितने सदस्य थे हैप्पी बर्थडे बोल दिया करते थे ,या कुछ करीबी रिश्तेदारों के कार्ड डाक से आ जाया करते थे .फिर कुछ मेहमानों को अगर बुलाया तो वो आकर बोल दिया करते थे. बहुत हुआ तो स्कूल  में टॉफी  ले जाओ तो क्लास वाले और अपनी टीचर बोल देगी. बस जी हो गया बर्थडे .फिर टेलीफ़ोन आम हुआ तो दोस्तों के फ़ोन आने लगे. कुछ बड़े हुए तो दोस्तों के साथ बर्थडे  मनाने लगे ,फिर और बड़े हुए तो बस जी घर में केक ले आओ काट लो खा लो ज्यादा से ज्यादा बाहर चले जाओ खाना खाने .पर अब देखिये टेक्नोलॉजी  ने जमीं आसमान  सब एक कर दिया है जन्म दिन- जिस दिन हुआ उस दिन ना तो फ़ोन बजना  बंद होता है ना एस एम एस आने,और नेट ऑन कर लिया तो बस ……………

आप भी सोच रहे होंगे कि ये अचानक क्या हो गया मुझे. क्यों जन्म दिन के पीछे पड  गई हूँ .चलिए बता देती हूँ .असल में अभी  २० दिसंबर को हमारा जन्म  दिन था.और इतनी  दुआएं मिलीं की झोली भर गई घर की चादरें, कम्बल सब निकालने पड़े फिर भी सम्भालना मुश्किल हो गया.वह गीत याद आ गया – 
ख़ुशी मिली इतनी कि मन में ना समाये  ,पलक बंद कर लूं कहीं छलक ही ना जाये..
बच्चों ने भी इतने हाई टेक कार्ड दिए कि मुँह से वाओ निकला और आँखों से दो आंसूं .पूरे कार्ड तो यहाँ दिखाना संभव नहीं पर झलकियाँ आप भी देखिये.

 
और अब ये कार्ड उन्होंने क्रिसमस ट्री  पर टांग दिए हैं.
अभी कुछ दिन पहले अभिषेक ने एक पोस्ट डाली थी, कि उनकी एक दोस्त उदास है क्योंकि वो अकेली है अपने बर्थडे पर.तो मैंने वहां यही लिखा कि आज के युग में आप अकेले हों यह थोडा मुश्किल है. भले ही कोई इस अंतर्जाल की दुनिया को आभासी कहे. पर यह आपको अकेला और उदास तो होने नहीं देता. जन्म दिन भी आपका ऐसे मनता है जैसे पूरा विश्व हैप्पी बर्थडे गा रहा हो.

यही हुआ हमारे साथ भी.  शुभकामनाओं का तांता एक दिन पहले से जो लगना शुरू  हुआ तो दो  दिन बाद तक जारी था .वो भी इतनी सुन्दर ,अपनत्व और प्यार से भरी शुभकामनाये की आँखें क्या मन तक भीग जाये. उस पर हिंदी ब्लॉगजगत के अपनत्व की तो बात ही क्या .(पाबला जी के आभार से) .उस पर  आपके मित्र यदि कवि या कवियत्री हैं तो  शुभकामनाये भी काव्यात्मक मिला करती हैं.एक बहुत ही प्यारी कवयित्री  मित्र  ने देखिये कितनी सुन्दर स्वरचित कविता  भेजी-
पढ़ते हुए मुझे कैसा एहसास हुआ होगा आप अंदाजा लगा सकते हैं .

प्रिय  शिखा  को उसके जन्मदिन पर …………………..

आज के दिन

आसमां से  

उतरी  थी एक परी
माँ – बाबा के आँगन में 
छा गयीं थीं खुशियाँ 
और माँ – बाबा ने 
पकड़ा दिया था 
एक – एक पंख 
ख्वाब और ख्वाहिश का 
आज वो अपने 
विस्तृत आसमां में 
विचर  रही है दृढता से
बस दुआ है कि 
उसके पंखों की 
परवाज़ यूँ ही बनी रहे 
एक और नमूना यह देखिये –
पारिजात हो तेरे आंगन में कामधेनु तुम्हारी चेरी हो
तुम जियो हजारो साल ,जन्मदिन खुशगवार घनेरी हो

और ऐसे ही अनगिनत कविताओं से सजे ई कार्ड मिले. मेल और मेसेज से इनबॉक्स  भरा हुआ था .उस पर ये फेस बुक  तो गज़ब ही ढा देता है सारे भूले- बिछड़े दोस्तों की दुआएं मिल जाती हैं. कितना मीठा मीठा लगता है जब कोई स्नेह से मिठाई की मांग करता है, तो कोई पार्टी की. हालाँकि पता उन्हें भी है, कि ना उन्हें मिलने वाला है ना हम देने वाले हैं पर मतलब तो ख़ुशी से है ना. तो मुँह ना सही मन तो मीठा हो ही जाता है. और बहुत से मित्र ऐसे होते हैं जो वैसे तो रोज़ हाल चाल पूछते हैं पर खास दिन भूल जाते हैं तो ऐसे मित्रों को हम ही कह देते हैं कि जी आज हमारा अवतरण हुआ था इस धरती पर तो आशीर्वाद दे दीजिये. अब क्या है ना दुआओं से तो कभी पेट भरता नहीं और शुभचिंतकों की शुभकामनाये बहुत जरुरी हैं हमारे लिए. तो हम मांग कर भी ले लिया करते हैं. और  वे बेचारे मित्र शर्मिन्दा से होकर  हर प्रोफाइल पर जाकर विश करते हैं ..यानी “आस्क वन गेट फौर फ्री ” मजा  आ जाता है .
खैर इतनी बड़ी राम कहानी सुनाने का मकसद सिर्फ इतना था कि हम तहे दिल से सबका शुक्रिया कहना चाहते थे जो “थैंक  यू” वाले दो  शब्दों में कहना  हमें गवारा ना हुआ.आप सभी को जिसने भी अपने अमूल्य शब्दों से हमें विश किया,या जिसने नहीं किया ,जो भूल गए या जो अभी यहाँ टिप्पणी में करेंगे ….हमारा बहुत बहुत शुक्रिया .दिल से आभार .
Thank you all very much You have made my day.

Friday, December 17, 2010

ठिठुरता सेंटा



ठण्ड में ठंडा है इस बार का क्रिसमस .लन्दन में ३० साल में सबसे ज्यादा खराब मौसम है इस दिसंबर का. १ हफ्ते पहले भारी बर्फबारी के कारण कई स्कूलों  को बंद कर दिया गया था और अब इस सप्ताह अंत में भी भारी बर्फबारी की आशंकाएं जताई जा रही हैं ,देश के पूर्वी हिस्सों में ८ इंच  तक की बर्फबारी हो सकती है .और इस तरह का ठंडा मौसम इस बार फरवरी तक जारी रहने की सम्भावना है .मौसम के कहर के चलते इस बार लाखों क्रिसमस उपहार गोदामों में अटक गए हैं जिन्हें किसी तरह गंतत्व तक पहुँचाने की कोशिशें जारी हैं ,जानकारों का कहना है कि हो सकता है लाखों उपहारों को समय से ना पहुँचाया जा सके और इस सम्भावना से इंकार नहीं किया जा सकता कि देश के कुछ हिस्सों में इस क्रिसमस पर सेंटा  ना पहुँच  पाए. 

खासकर स्कॉट्लैंड और देश के पूर्वी हिस्सों में हालात बहुत खराब हैं और सामान पहुचने में बहुत दिक्कतों का सामना करना पड़  रहा है  .

इंश्योरेस कंपनियों का कहना  है कि इस सर्दी की वजह से देश की अर्थव्यवस्था को पहले ही लगभग ४.८ बिलियन  पौंड्स का नुक्सान हो चुका है ,और आने वाले मौसम के मुताबिक यह ८.४ बिलियन पौंड्स तक पहुँच जायेगा.

वैसे भी इस बार क्रिसमस पर वह उत्साह और रंगीनियत नहीं देखने को मिल रही जिसका इंतज़ार पूरे साल लोग किया करते थे .ना एक महीने पहले से माल्स में लोग अटे पड़े हैं ,ना जगह जगह सेंटा  घूमते हुए दिखते  हैं ,ना दुकानों और घरों को आलीशान तरीके से सजाया गया है. अब ये लोगों की नौकरी से जाने का असर है या यूनिवर्सिटी में बढ़ती फीस का.. . तंग हाल अर्थव्यवस्था का या फिर रिकॉर्ड तोड़ सर्दी का… बहरहाल इस बार यह तो पक्का है कि  फादर क्रिसमस आये भी तो ठण्ड से सिकुड़ते हुए ही आयेंगे और हो सकता है कई जगहों पर पहुँच ही ना पायें.
खैर हमने तो छोटा सा क्रिसमस का पेड़ लगा ही लिया है अपनी बैठक में, २-४ उपहार भी रख दिए हैं आसपास , टर्की भी बना ही लेंगे उस दिन डिनर में और हीटिंग चला कर गा ही लेंगे — जिंगल बेल … जिंगल बेल  …..
मैरी क्रिसमस टू यू ऑल .


 इस बार ठण्ड है बहुत ,

क्या सेंटा आ पायेगा ?
एक हाथ से थमेगा कोट 
एक से टोपी बचाएगा  
बर्फीली सड़कों में 
स्लेज़ फिसलती  होगी 
ना जाने कैसे खिलोनो की 
बड़ी पोटली वो लटकाएगा    
लाल नाक वाले रेन डीयर  सी 
नाक उसकी भी हो जाएगी 
फिर भी कोशिश करके 
सेंटा हो हो हो गायेगा 
बेशक चिमनी तक ना पहुंचे 
खिड़की के रास्ते ही आएगा 
ठिठुरता हुआ ही सही पर  
सेंटा इस बार भी आ ही जायेगा.

Friday, December 10, 2010

इक नज़र जिंदगी...




जिन्दगी कब किस मोड़ से गुजरेगी ,या किस राह पर छोड़ेगी काश देख पाते हम. जिन्दगी को बहुत सी उपमाएं दी जाती हैं मसलन – जिन्दगी एक जुआ है , जिन्दगी एक सफ़र है , जिन्दगी भूलभुलैया है आदि  आदि .पर पिछले दिनों एक मेट्रो में सफ़र करते हुए सामने की सीट पर कुछ अलग -अलग रूप  में नजर आई जिन्दगी मुझे…
एक लबादा सा 

ऊपर से नीचे तक
न जाने क्या क्या .
खुद में समाये हुए
कुछ सुन्दर सा या 
असुंदर भी शायद 
कुछ भी नजर नहीं आता 
लगाते रहो अटकलें बस 
जाने क्या है उस पार.
दिखने में सीधा सरल  
अन्दर वक्र ढेरों लिए  
ये जिन्दगी एक बुर्का ही तो है . 
********
पेट भर गया है उसका 
फिर भी लगाये है मुँह में 
तृप्ति नहीं हुई उसकी 
या भ्रम में है शायद
हटाया पल भर को 
तो अशांत हो गया 
फिर लगा दिया खाली ही 
शांति मिल गई उसे.
ये जिन्दगी भी तो 
जीते रहते हैं हम  
यूँ ही 
बालक के मुँह में पड़ी 
खाली चूसनी की तरह.
*************
आज  नहीं मिली 
जगह उसे बैठने की 
खडी है 
जाना तो है ही 
लडखडाती है झटको से 
थामती है हथ्था एक हाथ से 
सम्भल जाती है.
फिर डगमगाती है 
गति पकड़ने पर 
तो थाम लेती है दोनों हाथों से.
 थोडा स्थिर होते ही 
फिर छोड़ देती है पकड़न 
जिन्दगी में हम भी बस 
उतना ही प्रयास करते हैं 
जितनी जरुरत है 
उस मौजूदा वक़्त की.

(तस्वीरें गूगल से साभार)

Saturday, December 4, 2010

टॉल्सटॉय,गोर्की और यह नन्हा दिमाग :(

जैसा कि आपने जाना कि अब जीविकोपार्जन  के लिए हमने एक छोटी सी कंपनी में ऑफिस  एडमिनिस्ट्रेटर /इन्टरप्रेटर की नौकरी कर ली थी .क्योंकि अब  क्लासेज़ में जाना उतना जरुरी नहीं रह गया था.अब बारी थी स्वध्ययन  की , अब तक जो भी पढ़ाया गया है उन सब को समझने की , समीक्षा करने की, पढाई हुई जानकारी का उपयोग करने की और अपने थीसिस के विषय के बारे में सोचने की. तो नौकरी के चलते  हमने क्लासेज़  जाना  थोड़ा  कम कर दिया था और उसकी जगह मॉस्को  की लेनिन लाएब्रेरी  ने ली थी .जो  एक सागर था जिसमें ना जाने कितने अमूल्य मोती और जवाहरात थे जिन्हें आपने ढूँढ  लिया तो बस हो गए आप मालामाल .यह रूस की सबसे बड़ी और विश्व की तीसरी सबसे बड़ी लाएब्रेरी  है जहाँ पूरे विश्व से 17.5 मिलियन किताबें उपलब्ध हैं  .
लेनिन लाएब्रेरी और उसके आगे बैठे दोस्तोयेव्स्की.
अब जहाँ जिन्दगी आसान हो गई थी वहीँ अब पढाई गंभीरता से करने का समय भी आ गया था. अब तक के ३ साल में हमें लॉजिक  से लेकर टी वी टेक्निक तक और फिलॉसफी   से लेकर प्राचीन  साहित्य तक सब कुछ पढाया जा चुका था और  टीचर  के आगे “रूसी भाषा ठीक से समझ में नहीं आई” का बहाना भी नहीं चलने वाला था.सो कुछ तकनीकि  विषयों के साथ ही साहित्य  के लिए अभी भी हम क्लासेज़, टीचर के लेक्चर और सेमीनार पर निर्भर करते थे. उसकी कई वजह थीं एक तो क्लासेज़  में टीचर को आपकी शकल दिखे तो उसे छात्र की  नेक नीयति  और गंभीरता .का एहसास होता है जो आपकी इमेज  के लिए बहुत अच्छा होता है ,दूसरा टीचर के मुँह  से निकली पंक्तियाँ अगर एक्ज़ाम्स  में बोली जाएँ तो हर टीचर को गर्व और आत्म संतुष्टी  की अनुभूति होती है और यह भी आपके लिए बहुत फायदेमंद  रहता है. पर सबसे अहम् था हमारा अपना स्वार्थ क्योंकि साहित्य कहीं का भी हो रूसी भाषा में उसे पढना और समझना आसान कहीं से नहीं था . यूँ तो  पुश्किन के लिए कहा जाता है  कि उसने स्लावोनिक (प्राचीन रूसी भाषा.) से अलग मॉडर्न भाषा को अपनाया और उसे निखारा परन्तु हमारे लिए तो वह कवितायेँ पढना 
ऐसा ही था जैसे कि नए नए हिंदी प्रेमी को बिहारी या कबीर पढने और समझने को कह दिया जाये.
या भले ही दोस्तोयेव्स्की को एक उम्दा मनोचिकित्सक की उपाधि दी गई हो कि उनकी रचनाओ में मानवीय स्वभाव  को बेहतरीन तरीके से समझा गया. परन्तु हमें उनकी मानसिकता समझने में नानी -दादी सभी याद आ जाते थे.हाँ वही चेखोव को उनकी छोटी कहानियों की वजह से या टॉल्सटॉय  को उनके यथार्थवादी  अंदाज की वजह से समझना थोडा आसान अवश्य होता था. उसकी एक वजह यह भी थी कि टॉल्सटॉय हिन्दू धर्म,और अहिंसा से भी बहुत प्रभावित थे और युवा गांधी से भी, जिन्हें उन्होंने कुछ पत्र भी लिखे थे.वे पत्र १९१० के उनके पत्रों में शामिल हैं . .वैसे भी टॉल्सटॉय पर शेक्सपीयर का और बाकी योरोपियन लेखकों का भी बहुत प्रभाव था .( जैसे शेक्सपियर ही बड़ा समझ में आता था हमें 🙂 ).तो इसलिए सभी महान  साहित्यकारों और उनकी महान कृतियों को समझने के लिए   क्लास में जाना ही बेहतर समझते थे जहाँ अपने नाम के अनुरूप ही बहुत प्यारी सी हमारी साहित्य की अध्यापिका “गालूश्का  “पूरी तन्मयता से हर कृति की व्याख्या किया करती थी. परन्तु सबसे ज्यादा आनंद हमें आता था प्राचीन ग्रीस का साहित्य सुनने में फिर वह चाहे “होमर ” का ओडेसी” हो या फिर कोई और  उनकी भी हर प्राचीन रचना हमारे प्राचीन भारतीय साहित्य  की तरह किंवदंतियों और लोककथाओं पर आधारित होती थीं लगभग हर कहानी में ही, हीरो का युद्ध के लिए अपनी नव प्रेमिका या पत्नी को छोड़कर चले जाना ,विछोह ,फिर युद्ध में लापता हो जाना उधर घर पर  उसका बेटा या बेटी होना , फिर २० साल बाद एक जंगल में उनका मिलना और सच्चाई से अनजान अपने बेटी या बेटे से ही प्यार कर बैठना .फिर सच्चाई का पता चलना और फिर वही बिछोह की पीड़ा ..पता ही नहीं चलता था कि कौन किसका पिता और कौन किसका बेटा और ये सब बहुत ही जज़्बात  और हावभाव के साथ हमारी प्यारी गालूश्का सुनाया  करती थी और हम सब तब मुँह  दबा कर हँसते हुए अपनी प्राचीन रचनाओं को भूल जाते थे जहाँ कभी किसी घड़े में से बालिका का जन्म हो जाता है. तो कहीं तालाब में नहाने गई नायिका सूर्य की  किरणों से गर्भवती हो जाती है. कहीं माँ के कहने पर ५ भाई बड़ी ही दरियादिली से एक दुल्हन आपस में बाँट लेते हैंखैर आज जो कुछ भी थोड़ी  बहुत विश्व साहित्य की हमें समझ है सब हमारी उस अध्यापिका की बदौलत  है. तब तो तुर्गेनेव,  क्रम्जिन, दोस्तोयेव्स्की आदि आदि पर बहुत गुस्सा आता था.परन्तु आज जब यहाँ पुस्कालय में इन्हें ढूढने निकलती हूँ और हताशा मिलती  है तो लगता है काश उस समय का थोडा और सदुपयोग कर लिया होता 

क्योंकि मुझे लगता है कि किसी भी साहित्य को उसकी मूल भाषा में ही पढ़ा जाना चाहिए तभी साहित्य का मजा लिया जा सकता है .और यही वजह है कि बँगला साहित्य के प्रति गहरा आकर्षण होते हुए भी रविन्द्र ठाकुर की गीतांजली  आज तक मैंने पढने की हिम्मत नहीं की. क्योंकि ज्यादातर अनुवादों में शिल्प और व्याकरण के चलते  भावों से समझौता कर लिया जाता  है.और इससे उस कृति की आत्मा ही नष्ट हो जाती है.
यह है गोर्की का गाँव 

खैर यहाँ बात मेरी नहीं साहित्यकारों की हो रही थी वैसे बाकी जगह ( खासकर यूरोप में )भारत से इतर मैंने एक बात बहुत नोट की.कि वहां इन महान लेखकों और कवियों के जन्मस्थल को मूल रूप में ही संरक्षित करने की कोशिश कि गई है और उन्हें दर्शकों के ज्ञान वर्धन के लिए संघ्रालय सा बनाकर रखा गया है. इसी तरह रूस में भी सभी महत्वपूर्ण और प्रसिद्ध रचना कारों के निवास स्थानों को बहुत खूबसूरती से संरक्षित किया गया है .जिसमें से पुश्किन और गोर्की के गाँवों की सैर हमने भी की .हालाँकि जाने क्यों गोर्की के उपन्यास मुझे बिलकुल भी आकर्षित नहीं करते परन्तु उनके गाँव को देखकर अजीब सी खुमारी महसूस की मैंने शायद वहां की स्वच्छ निर्मल हवा का असर था या फिर गाँव की पृष्ट भूमि और उसके प्रति मेरा असीमित लगाव .मेरे एक  एल्बम में गोर्की टाउन  का  एक चित्र देखकर अभी कुछ दिन पहले एक मित्र ने एक चुटकी भी ली थी कि “कोई तो गोर्की को बोर  कह रहा था “जो कि उनसे बातचीत के दौरान मैंने कहा भी था 🙂 .पर फिर मैंने यही कहा कि अब यह तो कोई जरुरी नहीं कि अगर कोई हमें बोर लगे तो उसके खूबसूरत घर हम चाय पीने  भी नहीं जा सकते.:) क्या पता वहां का माहौल देखकर हमारा नजरिया कुछ बदल जाता .वैसे वहां जाने के बाद गोर्की की छोटी कहानियां मुझे अच्छी लगने लगी थी .अब चाय का क़र्ज़ भी तो निभाना होता है ना .:) बाकी चाय ब्रेक के बाद …:)  

गोर्की के घर चाय पीने के बाद फोटो भी.

Wednesday, December 1, 2010

चोरी हुआ आखिरी सलाम .


अभी एक समाचार पत्र में एक पत्र छपा था .आप भी पढ़िए.

नवम्बर २०१०(लन्दन ) 
ये एक खुला पत्र है उस आदमी के नाम जिसने बुधवार १७ नवम्बर को मेरी कार चुरा ली. मैं  यह पत्र इसलिए लिख रही हूँ कि शायद अगली बार तुम या कोई और ऐसा करने से पहले  २ बार सोचे.पिछले बुधवार काम से वापस आते हुए मैंने अपनी कार पार्किंग से निकाली और बाहर बैरियर तक गई तभी तुम लपक कर मेरी कार में सवार हुए और मेरे बहुत मिन्नतें करने के वावजूद उसे ले भागे.मेरी कार,पर्स,निजी दस्तावेज,और कुछ क्रिसमस  उपहार तो सब दुबारा आ सकते हैं .पर तुम्हें ये पता नहीं  कि, मैं अपने डैड से मिलने जा रही थी जो सेमी कोमा में थे ,और जब तक मैं पुलिस  से निबट कर घर पहुंची बहुत देर हो चुकी थी .सुबह  मैंने डैड के केयर सेंटर फ़ोन किया  तो उन्होंने बताया कि मेरे डैड पिछली रात १० बजे ही गुजर चुके थे.तुम कार में पीछे की सीट पर रखा मेरा फ़ोन भी ले गए थे  इसलिए डैड के केयर सेंटर वाले मुझे इत्तला नहीं कर पाए क्योंकि मैंने उन्हें एक वही नंबर. दे रखा था क्योंकि वही फ़ोन मैं हमेशा अपने पास रखती थी.
तुमने मेरे डैड से मेरा आखिरी प्रणाम चुरा लिया. मेरा इन्शेयोरेंस इसे कवर नहीं करता. और यह भी कि मेरे डैड बिना किसी परिवार से मिले अकेले इस दुनिया से चले गए.और इसी अहसास के साथ अब मुझे अपनी पूरी जिन्दगी जीनी होगी और अब तुम्हें भी.
 तुम्हारा और तुम्हारे परिवार का क्रिसमस  शुभ हो ,क्योंकि मेरे लिए तो इस  साल यह शुभ नहीं होगा.
सादर
सरह जेन फील्ड .
यह कोई अकेली वारदात नहीं है. लन्दन में  कार की चोरी आम होती जा रही है. हाल ही में एक स्कूल से बाहर से एक आदमी एक कार को तब चुरा कर ले भागा. जब उसकी चालक एक  मिनट के लिए  कुछ कचरा फैंकने सामने वाले कूड़ेदान तक गई थी.
हवा हुए वे दिन जब कहा जाता था कि पश्चिमी देशों में चोरियाँ नहीं होती लोग घर के दरवाजे बंद नहीं करते दुकानों से सामान नहीं उठाये जाते.शायद आज भी बहुत सी जगह ये आश्चर्य के साथ सुना जाता हो कि विकसित देशों में लोग इतने ईमानदार  होते हैं कि दूकान से सामान लेकर अपने आप भुगतान करने जाते हैं. कोई देखने वाला नहीं होता. परन्तु लग रहा है कि धीरे धीरे हालात बदल रहे हैं. कम से कम लन्दन में बढती चोरी और क़त्ल की वारदातें देखकर तो ऐसे ही लगता है .दुकानों से उठाईगिरी के किस्से भी आम होते जा रहे हैं..पिछले २ सालों में लन्दन में चोरी के स्तर में १२.७ फीसदी की बढोतरी हुई है.एक सर्वे के मुताविक चोरी के मामले में देश के उच्चतम २० पोस्ट कोड में से आधे लन्दन के हैं .हालाँकि पहला नंबर  अभी भी मेनचेस्टर का है.घरों में चोरियों  की वारदातें आये दिन सुनने में आती हैं, और ये ज्यादातर एशियन इलाकों में घटित होती हैं बताया जाता है कि त्योहारों के दौरान सोने के जेवरात पहन कर घरों से निकलना इन चोरियों का प्रमुख कारण होता है.. वही एक  खबर के मुताबिक अप्टन  पार्क में एक पुरुष सड़क पर लहुलुहान पाया गया जिसकी बाद में मौत हो गई .बताया जाता है ४० वर्षीय ईश्वर को तब गोली मार दी गई जब वह एक दूकान से बीयर लेने जा रहा था.और इस तरह के हादसे आये दिन होते रहते हैं.

प्रतिदिन  बढ़ती इन घटनाओं के मद्देनजर लन्दन की मेट्रोपोलेटन   पुलिस जनता से जागरूक रहने की मांग कर रही है .घर घर में पर्चे बांटे जा रहे हैं जिनमें बताया गया है कि किस तरह अपने घर को सुरक्षित रखा जा सकता है .इन पर्चों में पुलिस की तरफ से हिदायत दी गई है कि 
अपने घर के सामने वाला दरवाज़ा बंद रखे .और बाहर जाते समय उसे ठीक से बंद करके जाएँ.
घर के सभी दरवाजे ,गेट और गेराज ठीक से बंद करके जाये चाहें आप थोड़ी देर के लिए ही क्यों ना बाहर जा रहे हों.
घर में कीमती सामान खुला ना छोड़े 
अगर आपको लगता है कि आपके घर लौटने तक अँधेरा हो जायेगा तो एक लाईट जरुर खुली रहने दें.
अपनी कार की चाबियाँ और अपने परिचय पत्र कभी भी अपने पत्र पेटी,दरवाजे या खिड़की के पास ना रखें. 

जिससे दिन प्रतिदिन बढ़ती इन वारदातों पर काबू पाया जा सके.
अब तो इस शहर को देख कर कभी कभी मुँह से निकल ही जाता है . 
देख तेरे लन्दन की हालत क्या हो गई महारानी 
रोज़ बढ़ रहे अपराध ,रूतबा हो गया पानी पानी
(तस्वीर गूगल से सभार)(Letter Translated By Me )