जिन्दगी कब किस मोड़ से गुजरेगी ,या किस राह पर छोड़ेगी काश देख पाते हम. जिन्दगी को बहुत सी उपमाएं दी जाती हैं मसलन – जिन्दगी एक जुआ है , जिन्दगी एक सफ़र है , जिन्दगी भूलभुलैया है आदि आदि .पर पिछले दिनों एक मेट्रो में सफ़र करते हुए सामने की सीट पर कुछ अलग -अलग रूप में नजर आई जिन्दगी मुझे….
एक लबादा सा
ऊपर से नीचे तक
न जाने क्या क्या .
खुद में समाये हुए
कुछ सुन्दर सा या
असुंदर भी शायद
कुछ भी नजर नहीं आता
लगाते रहो अटकलें बस
जाने क्या है उस पार.
दिखने में सीधा सरल
अन्दर वक्र ढेरों लिए
ये जिन्दगी एक बुर्का ही तो है .
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पेट भर गया है उसका
पेट भर गया है उसका
फिर भी लगाये है मुँह में
तृप्ति नहीं हुई उसकी
या भ्रम में है शायद
हटाया पल भर को
तो अशांत हो गया
फिर लगा दिया खाली ही
शांति मिल गई उसे.
ये जिन्दगी भी तो
जीते रहते हैं हम
यूँ ही
बालक के मुँह में पड़ी
खाली चूसनी की तरह.
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आज नहीं मिली
जगह उसे बैठने की
खडी है
जाना तो है ही
लडखडाती है झटको से
थामती है हथ्था एक हाथ से
सम्भल जाती है.
फिर डगमगाती है
गति पकड़ने पर
तो थाम लेती है दोनों हाथों से.
थोडा स्थिर होते ही
फिर छोड़ देती है पकड़न
जिन्दगी में हम भी बस
उतना ही प्रयास करते हैं
जितनी जरुरत है
उस मौजूदा वक़्त की.
(तस्वीरें गूगल से साभार)
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