Monday, September 27, 2010

अभी स्वर्णमयी लंका ...

मोस्को में मेरी एक बहुत अच्छी मित्र थी श्रीलंका की… इतना अच्छा चिकेन बनाती  थी ना …रहने दीजिये वर्ना बाकी पोस्ट नहीं लिखी जाएगी .और इसका राज़ वो बताती थी वहां के मसाले .और भी बहुत  सी बातें की मोती बहुत अच्छे मिलते हैं वहां ,समुंद्री किनारे बहुत खूबसूरत हैं वगैरह वगैरह ..जिन्हें सुन सुन कर मेरा भी मन श्रीलंका देखने को व्याकुल हो जाया  करता था पर कभी मौका नहीं आया .अब हुआ ये कि फिलहाल एक मित्र जा रहे थे श्रीलंका किसी काम से ,तो हाय रे हमारी घुमक्कड़ जिज्ञासा ..उनसे अनुरोध कर डाला हमने, कि उस रावण  की नगरी की कुछ तस्वीरें जरुर लेते आयें सुना था कि हनुमान के पदचिन्ह भी पाए जाते हैं अबतक वहां .तो जी वो ले आये तस्वीरें खींच कर और हमें भेज भी दीं.अब वहां जैसा हमने सोचा था, रावण का महल या हनुमान के पदचिन्ह तो नहीं दिखे पर बहुत ही खूबसूरत नज़ारे नजर आये और फिलहाल के लिए हमारी श्रीलंका देखने की तमन्ना शांत हो गई .तो  आप भी इन तस्वीरों से काम चलाइये कभी उस स्वर्ण नगरी में जाना हुआ तो  इत्मिनान से सैर कराएँगे आपको –

एक समुन्द्री किनारा ..इसी समुंदर पर पुल बनाया होगा राम जी ने .
आह कितना सुन्दर

वाह वहां भी भुट्टा वाला होता है ...



गाल स्टेडियम .इतना हरा गाल पहले कभी नहीं देखा 🙂

गाल किला की दीवार

उपरोक्त सभी गालों  के बारे में जानकारी देता बोर्ड:).

आप समझ ही गए होंगे एक पुराना सा घर है बस.
                                                                           

                                                                                      

टाउन  हॉल कोलम्बो .

रेलवे स्टेशन कोलम्बो 


 

और अंत में अपना भारतीय भोजनालय ..बिना रोटी के कैसे चलेगा
अरे अरे रुकिए एक कविता भी बाकी है अभी 🙂

एक थी सोने की नगरी
लंका जिसे तब कहते थे
रावण  था राजा  वहां का
नानी से हम 
 कहानी सुनते थे 
दूर समुंदर पर एक सेतु
तब बानरों  ने बनाया था
एक एक पत्थर पर 
लिख  राम का नाम 
समुंदर में जब बहाया था .
कहती थी नानी ,दशहरे पर
रावण को जलाया करते हम
तो क्या उस स्वर्ण नगरी में
पूजते हैं रावण को वे सब?
क्या अब भी वहां पर
अशोक वाटिका है कहीं ?
या फिर हैं वो काली दीवारें 
जो हनुमान ने  पूँछ से
जला  डालीं   थीं  कभी
ऐसी ही  कितनी  जिज्ञासाएं
छुटपन से मन में छाई हैं
कभी देखेंगे हम वो स्वर्ण नगरी
मन में उमंग भर आई है….

.

Wednesday, September 22, 2010

गणपति आये लन्दन में .

राष्ट्र मंडल खेल खतरे  में हैं क्यों?  क्योंकि एक जिम्मेदारी भी ठीक से नहीं निभा सकते हम .बड़े संस्कारों की दुहाई देते हैं हम. ” अतिथि देवो भव : का नारा लगाते हैं परन्तु अपने देश में कुछ मेहमानों का ठीक से स्वागत तो दूर उनके लिए सुविधाजनक व्यवस्था भी नहीं कर पाए. इतनी दुर्व्यवस्था  कि  मेहमान भी आने से मना कर करने लगे. और कितनी शर्मिंदगी झेलने की शक्ति है हममें ? बस एक दूसरे  पर उंगली उठा देते हैं हम .हंगामा बरपा  है जनता कहती है कि ये राष्ट्रमंडल खेल बचपन खा गए , जनता को असुविधा हो रही है,अचानक से सबके अधिकारों का         हनन होने लगा है  और सरकार कहती है कि  शादी और खेलों के लिए ये समय अनुकूल नहीं ..वाह क्या लॉजिक   है. क्या आसान  तरीका है अपना पल्ला झाड़ने का ,अरे क्या ये  हमारा देश नहीं ? क्या  उसकी इज्जत की खातिर थोड़ी असुविधा नहीं झेल सकते हम ? मुझे याद है चीन जैसे देश में एक एक नागरिक ओलम्पिक की तैयारी में कमर कस  के जुट गया था, हर इंसान अंग्रेजी सीख रहा था कि आने वाले मेहमानों की सहायता कर सके .पर हम तो महान देश के महान नागरिक है.  हम सिर्फ मीन मेंख निकालेंगे और अपने संस्कारों की दुहाई देते रहेंगे बस  .क्यों नहीं हम कुछ अच्छा सीख सकते किसी से ?
इस रविवार को लन्दन में गणपति विसर्जन किया गया एक ऐसा त्योहार मनाया गया जिसे पर्यावरण  के लिए ठीक नहीं कहा जा सकता,  परन्तु फिर भी यहाँ रह रहे हिन्दू निवासियों की भावनाओं का सम्मान करते हुए  और उनकी सुविधानुसार  इसे परंपरागत रूप से मनाने के लिए सभी सुविधाएँ उपलब्ध  कराई जाती हैं .देश  के कुछ बड़े समुद्री  किनारों पर बाकायदा  विसर्जन की व्यवस्था की  जाती है जिसमें सभी सरकारी महकमो का पूर्ण रूप से योगदान रहता है .
पास ही एक “साऊथ एंड बाये सी” पर रविवार को यह उत्सव मनाया गया बहुत बड़ा पंडाल  लगाया गया था . सुरक्षा के तौर पर पूरी पुलिस टीम मौजूद थी, आपातकालीन एम्बुलेंस की व्यवस्था थी और आने जाने वालों के लिए सुबह से शाम तक का भंडारा .गणपति  बाप्पा मोरिया के स्वर क्षितिज तक गूँज रहे थे समुन्द्र  के एक छोटे से किनारे को काट कर एक खास स्थान बनाया गया था जहाँ पर विसर्जन किया जा रहा था .सरकरी महकमे के कई गणमान्य व्यक्ति वहां मौजूद  थे और भाषा की अनभिज्ञता के वावजूद उत्सव में पूरे जोश के साथ हिस्सा ले रहे थे . कितने गर्व के साथ हौंसलो इलाके  के “मेयर” ने कहा था कि उन्हें गर्व है अपने इंग्लिश होने पर और अपने देश पर, जो इतने सुव्यवस्थित तरीके से बाहरी समुदायों  के ऐसे आयोजनों को आयोजित कर पाते हैं और उनमें पूरे दिल से हिस्सा लेते हैं” .
वहां विसर्जन देखने वालों में स्थानीय  अंग्रेज़ नागरिक भी भारी मात्रा में थे , जिन्हें ख़ुशी महसूस हो रही थी कि उन्हें इस तरह के उत्सव को  देखने का मौका मिला . उनके मुताबिक वो भी अपने अन्दर एक उर्जा का एहसास कर रहे थे . 
क्या इस आयोजन की तैयारियों से उन्हें असुविधा नहीं हुई होगी ? पूरे दिन लाउड स्पीकर पर ऐसी भाषा सुनना जिसका एक शब्द उन्हें समझ में नहीं आता , समुद्री किनारे का पूरी तरह जाम होना , उनके समुद्री   किनारे क्या गंदे नहीं हो रहे थे ? – परन्तु नहीं …इन सबसे ऊपर थी उनकी  अपने देश  के प्रति भावना एक अच्छे  मेज़बान   और जिम्मेदार नागरिक की तरह वे  हर तरह से अपना योगदान दे रहे थे.
आइये आपको उस उत्सव की कुछ झलकियाँ दिखाती हूँ.


बाएं से दायें तीसरे नंबर पर हौंसलो इलाके के मेयर
बाकी गणमान्य व्यक्तियों के साथ


भंडारा गणपति का

गणपति बाप्पा मोरिया …

Monday, September 20, 2010

ये क्या हुआ ......


रहे बैठे यूँ
चुप चुप
पलकों को
इस कदर भींचे
कि थोडा सा भी
गर खोला
ख्वाब गिरकर
खो न जाएँ .
थे कुछ
बचे -खुचे सपने
नफासत से
उठा के मैने
सहेज लिया था
इन पलकों में 

जो खोला
एक दिन कि अब
निहार लूं मैं
जरा सा उनको
तो पाया मैंने ये 
कि
सील गए थे सपने
आँखों के खारे पानी से 

Tuesday, September 14, 2010

कहाँ बुढापा ज्यादा .

कुछ समय पहले एक परिचित भारत से लन्दन आईं थीं घूमने ..कहने लगीं यहाँ के  बुड्ढों  को देखकर कितना अच्छा लगता है ..कितने भी बूढ़े हो जाये अपना सारा काम खुद करते हैं घरवालों पर भी निर्भर नहीं रहते. अपना घर, अपनी कार , खुद सामान लाना ,अपने सारे काम करना .एक हमारे यहाँ के बुड्ढ़े  होते हैं  जरा उम्र बढ़ी   नहीं कि बस ..छोड़ दिए हाथ पैर.. फिर बस बैठ कर परेशान करेंगे घरवालों को …यहाँ के लोगों पर बुढ़ापा नहीं आता क्या?..

.

उनका ये सवाल बहुत कुछ सोचने पर मजबूर कर गया मुझे …क्या वाकई यहाँ के बुजुर्ग ज्यादा समर्थ हैं ,ज्यादा मजबूत और आत्मनिर्भर हैं ,ज्यादा ज़िंदगी  से भरपूर ?क्या सचमुच उनपर बुढ़ापा हावी नहीं होता ?मेरी ही एक पडोसी थीं ८० की अवस्था तो होगी ही .. बेटा- बेटी अलग रहते हैं ,अपना एक कमरे का घर है ,एक कार है आराम से अकेले जीती हैं एक दिन किसी काम से उनका दरवाया खटखटाया तो खुला नहीं ,  सोचा सो रही होंगी ,फिर दुसरे दिन गई फिर भी नहीं …कार बाहर ही खड़ी थी तो ये पक्का था कि घर के अन्दर ही हैं ..मैने  २-४ बार घंटी बजाई तो दरवाजा खुला बहुत ही उनींदी  सी आँखों के साथ. मैंने पूछा तो पता चला कि पिछले ३ दिनों से वह  बहुत बीमार हैं ..कमर की हड्डी में कुछ परेशानी है जो ज्यादा बढ़ गई है और उन्होंने ३ दिन से कुछ खाया पिया भी नहीं है ..डॉ०  का अपोयमेंट  लिया है जो २ दिन बाद है …तब जाएँगी. बेटा पास  ही  में रहता है पर उसे क्या बताना.. वो क्या कर सकता है. मैंने उनसे कहा कि किसी मदद की  जरुरत हो तो मुझे बता दें. उसके बाद वो खुद ही डॉ०  के यहाँ चक्कर लगाती रहीं और अपना काम चलाती रहीं पर उसके बाद से मेरे बच्चों के लिए गाहे बगाहे चॉकलेट   भेज देतीं कि उनके यहाँ कोई नहीं है खाने  वाला …लोग गिफ्ट दे जाते हैं वो इनका क्या करें, हमारे त्योहारों पर फूलों के गुल्दास्त्ते देने आतीं .यहाँ तक कि छुट्टी में इंडिया जाते वक़्त बच्चों को १०-१० £ भी दिए कि एन्जॉय करना जैसे हमारी दादी नानी देती थीं कहीं जाते समय.उनकी ये हरकते जैसे उनके अन्दर की कसक निकाल देती थीं …हाँ वैसे सब ठीक ही था .

एक और थीं बुजुर्ग महिला … घर के सामने ही रहती थीं एक दिन उनकी पोस्ट गलती से हमारे घर आ गई , तो देने गई मैं .घर में घुसते ही देखा, पूरे कॉरिडोर  में कुछ लोगों के फोटो ही फोटो लगे हुए हैं ..अपने डंडे के सहारे चलते हुए वो मुझे .लिविंग रूम से होते हुए बेडरूम  में ले गईं ..कोई भी कोना ऐसा नहीं था जहाँ कोई फोटो  ना रखा  हो अचानक बोली “हैव यू  सीन दीज़   पिक्चर्स ?” कोई अँधा ही होगा जिन्हें वो ना दिखेंगी ..मैने सर हिलाया ..और वो शुरू हो गईं परिचय कराना  .”.ये मेरी पोती है ..और ये बेटा…ये मेरी बेटी का बेटा है …और ये मेरी बेटियां” …कुल मिलाकर १० लोग होंगे परिवार में ..मैने पूछा आप मिलती हैं इनसे ? बड़े फख्र  से जबाब दिया उन्होंने ” यस  ऑफकोर्स … ऐवरी क्रिसमस  आई सी देम ” .और ये कप देख रही हो? मेरे बेटे ने मदर्स  डे पर भेजा था ” .वो मुझे ऐसी चीज़ें दिखाए जा रही थीं पर  मुझे जैसे कुछ सुनाई नहीं दे रहा था …अचानक सुना .”.बहुत बहुत “शुक्रिया …कभी आना कॉफ़ी  पियेंगे साथ ..अभी मुझे जरा ब्यूटी पार्लर  जाना है ..फेशियल कराने और बाल सेट कराने .वहाँ  वो लड़की बहुत अच्छा फेशियल  करती है सारा तनाव दूर होता जाता है ..और समय भी कट जाता है” .वो मुस्कुराकर कह रही थीं. पर वहां रखी निर्जीव तस्वीरें जैसे उस मुस्कान के पीछे का सब अनकहा बयाँ कर रही थीं. मैं भी मुस्कुराई और वापस आ गई ..कितनी खुशहाल जिन्दगी है इनलोगों की .
घर से बच्चे सत्रह साल के होते ही चले जाते हैं अपने अपने रास्ते .काम से छुट्टी तो बड़ा घर छोड़ एक छोटा घर ले लेते हैं ये बुजुर्ग ,कार का साइज़ भी छोटा हो जाता है…. सेवेन सीटर का क्या करना अब ? गुजारा  भत्ता सरकार दे देगी और चिकित्सा  के लिए सरकारी क्लिनिक हैं ही …और क्या चाहिए जीने के लिए. जब तक खुद चलने फिरने के काबिल हैं ठीक है वर्ना एक बार फिर गृह  परिवर्तन …ओल्ड एज  होम ..वहां भी सब सुविधा होंगी… इमरजेंसी  के लिए एक बटन भी होगा जिसे दबाने से एम्बुलेंस  आ जाएगी और किसी चीज़ की क्या जरुरत .अपने आसपास अपने ही जैसे अनगिनत लोगों को रोज़ मरते   देख अपनी मौत से पहले ही ना जाने कितनी मौत मर जाते हैं ,और नई परेशानी को लेकर क्लिनिक के चक्कर लगाते ..रास्ते चलते बार बार पीछे मुड़कर देखते रहते हैं शायद कोई पुकार रहा है .फिर अपने आप से ही बात करते मुस्कुराते हैं  “आज हेयर डाई  के लिए जाना है .” ..आते हुए अचानक अपने घर वाली गली का ध्यान नहीं रहता ..कहीं दूसरी गली में मुड  कर भटक जाते हैं ..फिर कोई पुलिस  को इत्तला कर देता  है और वो किसी तरह पता करके घर तक छोड़ आते हैं .कितना व्यवस्थित  है सब कुछ .,
और हमारे यहाँ… बुजुर्ग कहीं नहीं जाते ..घर पर एक खाट  पर  बैठ कर ही भुनभुनाते रहते हैं .फिर जोर का ठहाका लगा कर कहते हैं अच्छा जरा बढ़िया सी चाय पिलाओ और चाय पीकर एकदम तरोताजा और फिर चर्चाएँ यहाँ की वहाँ  की .उसपर अपनी कार भी नहीं ..बीमार तो वो भी होते हैं .पर घर से कोई ना कोई ले जाता है अपने साथ. वहाँ  भी डाक्टर को हड़का आते हैं कि बेकार की फीस लेते हैं ये लोग कुछ हुआ  ही नहीं है… उन्हें बस जरा सा सर दर्द हुआ है ..बच्चे आयेंगे अभी स्कूल से उनसे बातें कर ठीक हो जायेगा .पोते – नातिओं के साथ अपनी उम्र का आभास ही नहीं रहता… अपना बचपन फिर जी लेते हैं एक बार ..और जीने की ख्वाहिश  बनी रहती है ..भले ही समय बुदबुदाते बीते या बहु बेटे की खुन्खुनाहट  सुनकर, पर मजे में कट जाता है .आस पास की चहल पहल, बच्चों का शोरगुल और जवानों की कार्यशक्ति ,  कभी बुड्ढा  होने ही नहीं देती उन्हें ..फेशियल  की ना जरुरत है, ना ही समय. चेहरे की आभा बनी रहती है घर की मलाई लगा कर ही .समय सारा बीत जाता है घरवालों पर नजर रखने में   और यहाँ वहां गपियाने में .


और मैं सोच रही थी ….कि बुढ़ापा कहाँ नहीं आता ? किसको नहीं आता?






कितना बड़ा दुर्भाग्य है कि अब हम भी पश्चिम  से प्रभावित होकर वैसे ही व्यवस्था अपनाने लगे हैं .हमारी आजादी में खलल ना पड़े इसलिए अपने बुजुर्गों को आत्मनिर्भर  देखना चाहते हैं हम ..भले ही तिल तिल कर  क्यों ना हजारों मौत मरें वो ,क्या प्यार और अपनेपन  की जरुरत सिर्फ बच्चों और जवानों  को होती है…? बुड्ढों के जीने के लिए तो सिर्फ व्यवस्था ही  जरुरी है. 


चित्र गूगल से साभार 

Wednesday, September 8, 2010

स्टेशन की बैंच से कॉन्वोकेशन के स्टेज तक.(संस्मरण की आखिरी किश्त )

मॉस्को  स्टेट यूनिवर्सिटी 
अभी तक आपने पढ़ा कि कैसे हमारा वेरोनिश से मॉस्को  जाना तय हो गया था और हम हंसी ख़ुशी तैयारियों  में लग गये थे कि चलो अब कम से  कम इंडिया की  टिकट के लिए मॉस्को  के चक्कर लगाना  तो बचेगा..पर नहीं जी अगर इतना आसान सब हो जाये तो भगवान को पूछेगा ही कौन ? असली तूफान आना अभी बाकी था. मॉस्को  तो हम एक सह्रदय सीनियर  की  मेहरबानी  से पहुँच गए परन्तु वहाँ  जाकर पता चला कि रशिया की बदलती इकोनॉमी के चलते हमारे बैच के सभी छात्रों की मुफ्त पढाई  ख़तम कर दी गई है.रूबल का मूल्य अचानक 17 से गिरकर 5oo  पर आ गया था ५०० रूबल की एक ब्रेड आती थी .इन परिवर्तनों के चलते  बिना फीस दिए दाखिला  देने से मना कर दिया गया है .अब अगर दाखिला  नहीं तो होस्टल भी नहीं और होस्टल नहीं तो रहने की  कोई जगह नहीं ..कुछ लोगों के वहाँ  कुछ जान पहचान के लोग थे, वो वहाँ  टिक लिए और कुछ ने अपना जुगाड़ कहीं ना कहीं पेइंग  गेस्ट के तौर पर कर लिया था .पर हम ४-५ लोगों को कहीं पनाह नहीं  मिली और कोई चारा ना देख  हमने अपना  सामान ट्रेन स्टेशन के लॉकर रूम  में रख दिया .और वहीँ स्टेशन की बैंच  पर डेरा डाल दिया . अब रोज़ सुबह उठते वहीँ स्टेशन पर हाथ मुँह  धोते और निकल जाते अपने ओर्ग्नाइजर्स  से मिलने, दिन भर  वहीँ भटकते स्ट्रॉबरी  और चेरी खाते ( शुकर है गर्मी के दिन थे और कम से कम ये वहाँ  मिलता था ) और दिन ढलते अपने बैंच  पर आ जाते .ये वो दौर था जब रशिया के घरों में ” मेरा जूता है जापानी ” और ” आई  ऍम ए  डिस्को डांसर” बजा करता था  लोग अपने नेता को जानते हो ना हों पर राज कपूर को जानते थे ..और उसी का फायदा हिन्दुस्तानियों को मिल जाता था ..मकान मालिक कोई उम्रदराज़ महिला हुई तो हम लोग बाबूश्का  ( दादी  माँ ) कह कर प्यार से उसे मना लेते थे ..क्योंकि उनके पोता -पोती तो शायद ही कभी उनसे प्यार से बतियाते… तो २-३ दिन स्टेशन के ही मेहमान बनने के बाद हमें भी एक जगह पेइंग  गेस्ट के तौर पर जगह मिल गई और फिर शुरू हुआ संघर्ष का दौर .
.हमने ये ठान लिया था कि पैसे देकर हम यहाँ नहीं पढेंगे.. उस पर १ साल में घर वाले भी हमें याद करके हलकान हो रहे थे. उन्होंने भी कह दिया कि बेटा वापस आ जाओ यही समझ लो घूम लिया रशिया और एक भाषा सीख ली.सो हमने सोचा कि जब तक जेब में पैसे हैं कोशिश करते हैं नहीं तो वापस चले जायेंगे ..पर आपका दाना पानी जहाँ जब तक बंधा है उससे कोई पार नहीं पा सकता तो हमें कुछ और दिनों की  मशक्कत के बाद मॉस्को यूनिवर्सिटी  द्वारा अपना लिया गया शायद हमें अपने विषय की  अकेली छात्रा  होने  का लाभ  मिला ..बाकी सब को फीस भर कर पढाई  पूरी करनी पड़ी और कुछ लोग जो ऐसा नहीं चाहते थे वापस भी चले गए .
हमारा होस्टल “DAS.”
दाखिला  मिलने के साथ ही हमें होस्टल में जगह मिल गई और हमारी जिन्दगी कुछ ढर्रे पर आई .और हम जिस कारण के लिए वहाँ  गए थे  तो उसे पूरा करने में लग गए. नियम से कॉलेज जाते …जो हमारे होस्टल से करीब १ घंटा लगता था पहले ट्राम और फिर मेट्रो से, और फिर होस्टल आकर शब्दकोष  लेकर  गोर्की की “माँ ” या दोस्तोयेव्स्की  के “idiot ” को समझने बैठ जाते
..हमारे अलावा वहां और भी कई हिन्दुस्तानी थे जिन्हें हम किसी एलियन से कम नहीं लगते थे..उन्हें  समझ नहीं आता  था पहले साल में इतनी गंभीरता से पढाई करने का क्या मतलब ?…पर भला हो हमारी सद् बुद्धि  का .. वो पहले साल का पढ़ा  हुआ हमारे बहुत काम आया और बाद में दोस्तों के साथ रात को २ बजे तक मस्ती और सुबह की क्लासेज़  मिस करने के बाबजूद हम अपना लक्ष्य पाने में कामयाब रहे. कहते हैं ना नींव  मजबूत हो जाये तो इमारत  आराम से खड़ी हो जाती है .और पहला इम्प्रेशन  अच्छा पड़ जाये तो बाकी की  जिन्दगी भी आसान हो जाती है.वैसे भी बदलते हालातों में स्कॉलरशिप तो नाम की मिलती थी जिससे महीने की ब्रेड ही खाई जा सकती थी इसलिए  फैकल्टी  जाने के अलावा कभी कभी हम पार्ट टाइम जॉब भी कर लेते थे जैसे अनुवादक का , और इसी के तहत एक बार मॉस्को  रेडियो में भी ब्रॉडकास्टर  का काम  किया. वैसे हमारे होस्टल के बहुत से मित्र कॉलेज   “आई टोनिक” लेने भी चले जाया करते थे और सारा दिन वहां सीड़ियों के पास खड़े होकर प्रेम से बिता दिया करते थे. 

वो महान सीडियां जहाँ आइटोनिक मिलता था .
“जर्नलिज्म फैकल्टी ” मोस्को स्टेट यूनिवर्सिटी की ऑरिजनल और सबसे पहली  बिल्डिंग 
हमारे होस्टल में और भी बहुत हिन्दुस्तानी थे बहुत अच्छे दोस्त भी बन गए थे .फिर भी हम अपने होस्टल में कम और पास के मेडिकल वालों के होस्टल में ज्यादा रहा करते थे ..उसकी वजह थे दो मॉन्स्टर्स….मेरी दो सहेलियां 
जो बहाने- बहाने से हर दूसरे  दिन मुझे बुला लिया करती थीं और अपने मेडिकल के लेसन  सुना सुना कर पकाया करती थीं . मुझसे बिना पूछे उनके हर आयोजन -समारोह  में मुझे शामिल कर लिया जाता था और फरमान आ जाता था तू नहीं आएगी तो हम भी नहीं जायेंगे बस…मरता क्या ना करता जाना पड़ता था मुझे, उस बदबूदार होस्टल में, जहाँ बाथरूम और टॉयलेट  दोनों कॉमन  थे. जबकि हमारा होस्टल किसी  होटल से कम नहीं था एक कमरे में बेशक ३ लोग थे पर अलग टॉयलेट   और बाथरूम था अटैच  …पर दोस्ती की खातिर क्या नहीं करना पड़ता.. कई बार मैं उनकी प्रेक्टिकल क्लास में भी चली जाती थी और वहां उन्हें किसी के हाथ या किसी के घुटने से खेलते देख मुझे बड़ा मजा आता था.. उनकी बकवास सुन सुन कर पूरा या आधा नहीं तो चौथाई डॉक्टर  तो मैं भी बन ही गई थी.
बहुत मस्ती भरे दिन थे रात रात भर पार्टी करना.. नाचना गाना और फिर दिन भर सोना ..और फिर क्लास में जाकर रोना 🙂 -३०- -३५ डिग्री की जमाऊ ठण्ड में जब नाक का पानी तक जम कर कड़ कड़ करने लगता था ..ऐसे में  में लद फद के कॉलेज जाना और जरा सा सूरज चमकते ही दांत  फाड़कर दिखाना कि दांतों के लिए बिटामिन डी बहुत जरुरी है .

दिवाली हो या न्यू इयर एक जैसा सेलेब्रेशन  …डांस और खाना ..खाने में  भी ..चिकेन ,चावल, ब्रेड  और स्तालीच्नी  सलाद (रशियन  सलाद ) और कभी कोई लायक मेम्बर मिल जाये तो गुलाबजामुन.. सेट मेन्यु  हुआ करता था …एक बार तो न्यू इयर पर हम तीन सहेलियां ३ दिन तक नाचती रहीं  ..नाचते , खाते , सो जाते फिर उठते, खाते और नाचने लग जाते ..वहां लोगों को हमारे बिन पिए इस स्टेमिना पर बहुत आश्चर्य होता था ,वैसे इस पीने –  पिलाने की वजह से कई बार बहुत मुश्किल खड़ी  हो जाती थी.वहां तो हर मर्ज़ का इलाज़ बस वोदका था..जुखाम हो गया ..एक ढक्कन वोदका ले लो,…बुखार हो गया वोदका पी लो,…एक्जाम  में नंबर . कम आये वोदका है …और किसी की  ख़ुशी में जाकर वोदका का टोस्ट नहीं किया तो वो नाराज़ ..ऐसे में हिन्दुस्तानी दोस्त तो समझते थे पर रशियन मित्रों को समझना संभव नहीं होता था और ऐसे ही समय काम आते थे अपने भारतीय मित्र जिनके ग्लासों में बड़ी चतुराई से  उलट दिया करते थे हम अपनी वोदका .

वैसे ये बात मानने वाली है कि जुगाड़ में और हालातों से लड़ने के मामले में हिन्दुस्तानियों का कोई सानी नहीं होता .उस समय भारत में मेक्डोनल्स  या ऐसी कोई भी जगह नहीं थी ..और मोस्को में  भी गिन कर एक “मैक डी”  था जहाँ कड़कती ठण्ड में भी २ घंटे की लाइन लगा करती थी ..पर मजाल है कोई भारतीय कभी लाइन में  लगा हो. बड़े प्यार के साथ कोई एक प्रवाह के साथ आगे घुस जाता था और फिर उसके पीछे सारा ग्रुप 🙂 और वहां जाकर बड़े गर्व से फ़रमाया जाता “बिग मैक  बिना मीट का” …बेचारे वहां काम करने वाले परेशान हो जाते थे कि मीट नहीं तो क्या डालें उसमें ..और हम “बिग मैक”  के पैसों में बस बन में पत्ते और सौस डाल कर बड़े चाव से खाया करते 🙂 हालाँकि ये शुरू शुरू की  ही बात थी थोड़े समय बाद ज्यादातर हर कोई  मांसाहारी हो ही जाता था.हाँ छुट्टी पर भारत से आने वाले के हाथ ,मूली  ,गोभी के परांठे जरुर मंगाए जाते थे और ये कहने की जरुरत नहीं कि उनपर लाने  वाले का कोई हक़ नहीं होता था.

इससे आगे की कुछ बातें और हमारी पढाई पूरी करने की दास्तान आप ” यहाँ “पढ़ सकते हैं .
और इस तरह  कभी ठण्ड में सिकुड़ते कभी गर्मियों में सिकते ,कभी रात भर नाचते तो कभी इम्तिहान में रोते …हमारे पोस्ट ग्रेजुएशन  के वो ५ साल तो ख़तम हो गए.और हम स्वर्ण अक्षरों से युक्त अपनी डिग्री लेकर  सकुशल भारत लौट गए.. 
पर नहीं ख़तम हुई वो सुनहरी यादें ,वो मस्ती के दिनों की  कसक ,वो थोड़े में ही खुश रहने का जज़्बा और अपनों से दूर गैरों को अपनाने की ख्वाहिश …रूसियों को चाहे कोई कुछ भी कहे आज, पर हमारे दिलों में वे एक भावपूर्ण ,संवेदनशील और अपनेपन से लबरेज़ कौम है जो प्यार के दो  शब्दों से पिघल जाया करती है  …क्या कभी भूलेंगे हम उन बाबूश्काओं  को ?जो  हमें होस्टल के कैफे  से प्लेट चुराते देखने के वावजूद नजरअंदाज कर दिया करती थीं और बाद में प्यार से धमकी दिया करती थी अगली बार ऐसा किया तो ज़ुर्माना लगेगा. जो कभी नहीं लगता था .ना जाने कितनी ही बार सिर्फ भारतीय होने के कारण टैक्सी वाला हमसे पैसे नहीं लेता था और सारा रास्ता “मेरा जूता है जापानी” सुनाता जाता था.हमारे होस्टल की रूसी लडकियां जो अपना काम छोड़ कर हमारी मदद किया करती थीं और हमारी पार्टियों में बड़े शौक से साड़ी पहनने की  ख्वाहिश  करती थीं :).कितनी ही खुशनुमा यादें हैं जिन्हें चाहूँ भी तो कभी पूरा नहीं लिख पाऊँगी..  इसलिए मैं बस इन पंक्तियों के साथ समेटती हूँ –

यादों कि सतह पर चढ़ गई हैं 

वक़्त की कितनी ही परतें 
फिर भी कहीं ना कहीं से निकलकर 
दस्तक दे जाती हैं यादें 
और मैं मजबूर हो जाती हूँ 
खोलने को कपाट मन के 
फिर  निकल पड़ते हैं उदगार 
और बिखर जाते हैं कागज़ पे 
सच है 
गुज़रा वक़्त लौट कर नहीं आता 
पर क्या कभी भूला भी जाता है ?
कहीं किसी मोड़ पर मिल ही जाता है.

मोस्को की एक सड़क और हम पांच 🙂

Saturday, September 4, 2010

दो दिन, स्कॉटस और बैग पाइप .

आइये आज आपको ले चलती हूँ एडिनबर्ग   .स्कॉट्लैंड की राजधानी.-  स्कॉट्लैंड- जो १७०७ से पहले एक  स्वतंत्र राष्ट्र था , अब इंग्लैंड का एक हिस्सा है और  ग्रेट ब्रिटेन के उत्तरी आयरलैंड के एक तिहाई हिस्से को घेरे हुए   है ,दक्षिण में इंग्लैंड की सीमा को छूता है तो पूर्व में नोर्थ सी को, जिसके उत्तर पश्चिम में अटलांटिक सागर है और दक्षिण पश्चिम में नोर्थ चैनल और आयरिश सागर.

किले के अन्दर मेरी कुईन आफ स्कॉट जिसे पैदा होने के ९ दिनबाद ही रानी बना दिया गया और कहा जाता है वह पूरे आयोजन के दौरान रोती रही थी.


  स्कॉट्लैंड के नाम से ही प्रसिद्ध ” स्कॉट्लैंड यार्ड ” ज़हन  में आता है ,स्कॉटिश पुलिस सारी दुनिया में मशहूर है .एक तेज़ तर्रार , अनुशासित  ,कर्तव्य परायण  और देशभक्त शाखा …और यही खासियत है यहाँ के निवासियों की .कहने को तो स्कॉट्लैंड अब इंग्लैंड  का ही हिस्सा है परन्तु इनका रहन सहन ,रीतिरिवाज़, परम्पराएँ   अंग्रेजों से बहुत अलग हैं .इसलिए अगर आपको अपनी अंग्रेजी पर गुमान है तो एडिन्बर्ग   पहुँच  कर उसे अपनी जेब में रख लीजिये क्योंकि ना तो आपकी अंग्रेज़ी की, ना आपकी अंग्रेज़ियत  की वहां कोई पूछ होने  वाली  है …बल्कि संभव है ज्यादा अंग्रेजियत दिखाने से आपको नुक्सान ही हो .इंग्लैंड की रानी को बेशक यहाँ के निवासियों ने स्वीकार कर लिया है पर स्कॉट्लैंड का अपना अलग मंत्रिमंडल है और अलग नियम कानून .यहाँ के लोग कुछ खफ़ा  -खफ़ा  से रहते हैं इंग्लैंड वालों से.यहाँ तक कि  यहाँ की मुद्रा का मूल्य ब्रिटिश पौंड्स जैसा ही होने पर भी उसका रंग रूप अलग है और उसपर इंग्लैंड की  रानी की छवि नहीं है.
 
British and scotish Pounds.यहाँ वैसे तो अंग्रेजी ही बोली जाती है पर उच्चारण  काफी अलग  है और यहाँ की  स्थानीय  भाषा और दिनचर्या  पर फ्रेंच का प्रभाव दृष्टिगोचर होता है  इसका कारण हमारे टूरिस्ट  गाइड ने बताया  कि –  ” अंग्रेजी राज  में शामिल होने से पहले स्कॉट्लैंड ने फ़्रांस से दोस्ती कर ली थी …वो कहते हैं ना दुश्मन का दुश्मन अपना दोस्त …फ़्रांस उस समय इंग्लैंड का दुश्मन था.क्योंकि इंग्लैंड को हमेशा से ये ग़लतफ़हमी थी कि फ़्रांस और स्कॉट्लैंड पर राज करना उनका जन्म सिद्ध अधिकार  है .” .कहा जाता है  आज भी  हर स्कॉट (स्कॉट्लैंड वासी ) तकनीकि  रूप से खुद को फ़्रांस का नागरिक मानता है .
अपनी धरती और परम्पराओं से प्यार करने वाले लोगों का यह राज्य  प्राकृतिक  रूप से भी मालामाल है .समुन्द्र  और पहाड़ों के बीच बसा एडिनबर्ग  शहर अनुपम छटा बिखेरता है उसपर आलीशान और पुरातन किले जैसे स्कॉट्लैंड का ५००० साल पुराना शानदार इतिहास  बताते प्रतीत होते हैं , इन किलों ,इसाई मठों  और इमारतों के चप्पे  चप्पे में वहां के लोगों के जीवन की झलकियाँ , आचार व्यवहार ,वैभव  ,गौरव गाथाएं जैसे बिखरी पड़ी  हैं.

सबसे पहले एडिनबर्ग  का किला – .एक शक्तिशाली दुर्ग ,देश का रक्षक ,और एक विश्व प्रसिद्ध पर्यटक  आकर्षण, जो एक मजबूत चट्टान पर खड़ा सदियों से क्षितिज पर हावी  है.किले की मजबूत पत्थर की दीवारों ने बहुत से तूफ़ान झेले हैं और इसके आलीशान भवन सदियों तक स्कॉटिश राजा, रानियों के निवास रहे हैं. आज ये स्कॉट्लैंड के राजसी ताज ,कीमती जेवरात ,३ मिलिट्री संग्रहालय ,राष्ट्रीय युद्ध स्मारक ,और युद्ध हथियारों  की प्रदर्शनी का आवास है .
किले में एक गिफ्ट शॉप भी हैं जहाँ स्मृति चिह्न  और जेवरों के अलावा प्रसिद्द   स्कॉटिश विह्स्की भी खरीदी जा सकती है ,और एक कैफे भी है जहाँ फिश एंड चिप्स से हटकर – स्कॉटिश खाने का और स्कॉट्लैंड की मशहूर शोर्ट ब्रेड  का आनंद लिया जा सकता है.

अब चलते हैं होलिरूड पेलेस – इंग्लैंड की रानी का ऑफिशियल रेसिडेंस – वहां हमें बताया गया कि  जब राजसी परिवार से कोई यहाँ आता है तो उसका झंडा फहरा दिया जाता है ..राज परिवार के हर सदस्य का अपना अलग झंडा है एक ..तभी एक छोटे से बच्चे ने बड़ा सा प्रश्न पूछ लिया की अगर एक साथ एक से अधिक राजपरिवार के लोग आ जाएँ तो किसका झंडा लगेगा? बात पते  की थी ..थोड़ी देर सोचने के बाद गाइड ने जबाब दिया ऐसी स्थिति में सबसे बड़े और अधिक महत्वपूर्ण  सदस्य का झंडा लगाया जायेगा .वैसे महल का कुछ हिस्सा ही राजपरिवार के लिए है ..और कुछ हिस्से को संग्राहलय बना दिया गया है ..एक बड़ी दिलचस्प बात वहां हमें बताई गई ..वो यह कि – महल तो इतना बड़ा था पर उस ज़माने में शौचालय तो होते नहीं थे ..तो राज परिवार के लोग क्या करते थे ? हम्म उनके बिस्तर के नीचे एक बड़ा सा कटोरा रखा होता था ..जो करना होता था वो उसमें करते थे कभी कभी पूरी रात वो वहीँ पड़ा रहता था ..फिर सुबह नौकर चाकर उसे ले जाकर बाहर सड़क पर ऐसे ही फेंक दिया करते  थे .और तो और  वहां रह रहे बड़े बड़े अफसर  उस सड़क पर अपनी खिडकियों से इसी तरह  मल मूत्र बाहर फेंक दिया करते थे और उस सड़क पर चलने वाला गरीब आदमी ….उसका भगवान ही मालिक था ..बहुत फक्र हुआ हमें अपने भारतीय होने पर कि  जमाना चाहे जो भी रहा हो इतने असभ्य तो हम कभी नहीं रहे.

इसी तरह के और ना जाने कितने महलों , और स्मारकों  के अलावा स्कॉट्लैंड में हैं खूबसूरत हाई लेंड्स,  सुन्दर वृक्षों   से लदी घाटियाँ ,और अपने में ही एक  कहानी कहती झीलें ,जहाँ कहा जाता है कि  यहाँ की घाटियों में और झीलों में आज भी डायना सौर  रहते हैं जिसे यहाँ “नैसी  दानव” कहा जाता है और बताया जाता है कि एक झील में इसे आज भी देखा जाता है ,एक बड़े अजगर की तरह के इसके स्मृतिचिह्न  आप स्कॉट्लैंड की किसी भी दूकान से खरीद सकते हैं ..
लेक नेस और नैसी 
स्कॉट्लैंड में यूरोप शैली की खुली और मिश्रित अर्थव्यवस्था है , परंपरागत रूप से, स्कॉटिश अर्थव्यवस्था भारी उद्योग जैसे ग्लासगो में जहाज निर्माण, कोयला खनन और इस्पात उद्योग पर टिकी. थी .१९७० और १९८० में उद्योगीकरण के दौरान स्कॉट्लैंड की अर्थव्यवस्था में बदलाव आया और और उद्योगीकरण  से वित्तीय  सेवा की तरफ ज्यादा ध्यान जाने लगा .आज एडिनबरा स्कॉटलैंड का सबसे बड़ा  वित्तीय सेवा केंद्र और यूरोप में वित्तीय केंद्र के रूप में धन प्रबंधन के तहत लंदन , पेरिस, फ्रैंकफर्ट, ज्यूरिख और एम्स्टर्डम,के बाद  छठा सबसे बड़ा वित्तीय केंद्र  है .इसके अलावा स्कॉट्लैंड में सिंगल माल्ट  विह्स्की की भी कई फक्ट्रियां हैं .
स्कॉट्लैंड की मशहूर सिंगल माल्ट विह्स्की की फैक्ट्री./
 और लोगों के खानपान में पारंपरिक अंग्रेजी खाने के अलावा इटालियन ,फ्रेंच और मक्स्सिकन खाने का प्रभाव देखा जाता है.

आज के एडिनबरा में आधुनिक इमारतें भी हैं और एक विकसित देश की सभी सुख सुविधाएँ भी , मनोरंजन के लिए आधुनिक बार और क्लब भी …लेकिन फिर भी कदम कदम पर पुरानी परम्पराओं और संस्कृति की चमक दिखाई देती है


स्कॉट्लैंड में सबसे ज्यादा आकर्षित करता है वहां के लोगों का पहनावा – एक बहुत ही मुलायम और ऊनी चेक के कपडे को कई बार लपेट कर बनाई हुई स्कर्ट  ,उसपर कमीज और कली जेकेट एक लटकने वाला पर्स ,और नीचे ऊनी मोज़े और बड़े बूट …ये पुरुष और महिलाओं का लगभग एक सा ही पहनावा है ..और एडिनबरा  की सड़कों  पर पुरुष इस परिधान में बैग पाइप पर मधुर धुन बजाते जगह जगह दीख जाते हैं.और इस धुन में स्कॉट्लैंड के ५००० वर्षों के स्वर्णिम इतिहास की सुगंध से वातावरण महक उठता है .. और फिजायें कह उठती हैं आगंतुकों से –
आना फिर से इन वादियों में.

करने  कुदरत से  गलबहियाँ
डाल झीलों के हाथों में हाथ 

रेत पर चलना पयियाँ – पयियाँ