Monday, September 20, 2010

ये क्या हुआ ......


रहे बैठे यूँ
चुप चुप
पलकों को
इस कदर भींचे
कि थोडा सा भी
गर खोला
ख्वाब गिरकर
खो न जाएँ .
थे कुछ
बचे -खुचे सपने
नफासत से
उठा के मैने
सहेज लिया था
इन पलकों में 

जो खोला
एक दिन कि अब
निहार लूं मैं
जरा सा उनको
तो पाया मैंने ये 
कि
सील गए थे सपने
आँखों के खारे पानी से 

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