Wednesday, June 30, 2010

हम ऐसा क्यों करते हैं ? भाग ३ (शांति शब्द का उच्चारण तीन बार )

बचपन में हम बहनें बहुत लड़ा करती थीं ..सभी भाई बहन का ये जन्म सिद्ध अधिकार है ..और लड़ते हुए गुस्से में एक दूसरे  को ना जाने क्या क्या कह दिया करते थे .तब मम्मी बहुत डाँटती थीं , कि शुभ शुभ बोला करो, ना जाने कौन से वक़्त माँ सरस्वती ज़ुबान पर बैठ जाये , और तीन  बार कुछ बोलने से वो सच हो जाता है. ..ऐसे ही एक दिन इसी बात पर मैने हँस  कर तपाक से कहा कि हाँ तभी तो “तलाक” तीन  बार बोलो तो तलाक हो जाता है 🙂 और मम्मी भुनभुनाती हुई वहां से चली गईं 🙂 ..ये बात मैने अनजाने में और मस्ती में कही थी ..परन्तु बाद में जब उत्सुकताएं  बढीं तो एक यह भी कि 

किसी प्रार्थना  के बाद या मन्त्र के बाद  हम “शांति” शब्द  तीन  बार  क्यों बोलते हैं ? 
एक किताब पढने पर पता लगा कि वो बात शायद ठीक ही थी.ऐसा माना जाता है “त्रिवारं सत्यम ” .इसलिए हम कोर्ट में सुनते हैं “I shell speak the truth ,the whole truth and nothing but truth .
तो हम ३ बार शांति ..हमारी शांति के लिए तीर्व इच्छा पर जोर देने के लिए कहते हैं. 
क्योंकि ..शांति .यानि आपके होने की एक प्राकृतिक अवस्था .अशांति हमारे या किसी और के द्वारा ही फैलाई जाती है . शांति अपनी जगह ही होती है जब तक कि उसे किसी के द्वारा भंग ना किया जाये..इस तरह शांति हमारे सारी समस्यायों के मूल में है तो जब शांति होगी तब ख़ुशी होगी .इसतरह हर किसी को बिना अपवाद शांति की  जरुरत होती है.
सारी बाधाओं, समस्याओं,और दुखों के स्रोत निम्नलिखित   तीन  हैं. 
१- आधिदैविक – .अनदेखी दिव्य शक्तियां (बलाएँ ) जिनपर हमारा कोई बस नहीं या बहुत ही कम हैं .जैसे भूकंप, बाढ़ , ज्वालामुखी का फटना आदि ,
२- अधिभौतिक  – वास्तविक तथ्य जैसे – दुर्घटना ,प्रदूषण , अपराध आदि .
३- आध्यात्मिक – हमारे शरीर और दिमाग की समस्याएं जैसे – बिमारी, गुस्सा,अवसाद आदि.
हम भगवान् से इन सभी समस्यायों से दूर रखने के लिए प्रार्थना करते हैं इसलिए भी शांति शब्द का उच्चारण ३ बार किया जाता है.
पहली बार शांति जोर से बोला जाता है उन अदृश्य  शक्तियों को संबोधित करने के लिए. 
दूसरी बार थोडा धीरे सिर्फ अपने आस पास की चीजों को और लोगों को इंगित करने के लिए .
और तीसरी और आखिरी बार बहुत ही हलके से सिर्फ अपने आप को जोड़ने के लिए.
तो इस तरह मेरी समझ में आया कि “शांति” हम तीन बार क्यों उच्चारित करते हैं
(इस श्रृंखला को फिलहाल हम यहीं  विराम देते हैं .और भी बहुत कुछ है फिर कभी सही.:) .

Monday, June 28, 2010

हम ऐसा क्यों करते हैं ? भाग २ ( उपवास.)

हम  जानते हैं कि भारतीय संस्कृति में “व्रत” का बहुत महत्त्व  है हमें अपने बुजुर्गों को बहुत से उपवास करते देखा है,कुछ लोग भगवान को खुश करने के लिए उपवास रखते हैं ,कुछ लोग भोजन नियंत्रित (डाईट)करने के लिए उपवास करते हैं और कुछ लोग विरोध प्रदर्शित करने के लिए भी उपवास करते हैं . और हमेशा यही ख़याल आया है कि आखिर क्यों इतने उपवास किये जाते हैं 
.तो आइये जानते हैं कि हम उपवास क्यों करते हैं.क्या भोजन को बचाने के लिए ? या व्रत के बाद  ज्यादा खाने के लिए ? 🙂 शायद नहीं तो फिर –
हम उपवास क्यों रखते हैं.
व्रत को संस्कृत में उपवास कहा जता है – उप = पास , और वास = रहना ..अर्थात पास रहना ( ईश्वर  के ) यानि मानसिक तौर पर ईश्वर  के करीब रहना .तो फिर उपवास का भोजन से क्या सम्बन्ध ?-हम देखते हैं कि हमारी बहुत सी शक्ति भोज्य पदार्थ  खरीदने में ,पकाने में ,खाने में  और फिर पचाने में खर्च हो जाती है ,कुछ खास तरह का खाना हमारे मष्तिष्क को  कुंठित और उत्तेजित भी करता है इसलिए कुछ दिन हम तय करते हैं कि सादा और हल्का  खाना खाकर या खाना नहीं खाकर वो शक्ति बचायेंगे जिससे हमारा मष्तिष्क सतर्क और शुद्ध हो सके .जिससे हमारा ध्यान खाने से हट कर शुद्ध विचारों में लग सके और ईश्वर  के करीब रहे.
इसके अलावा हम ये जानते हैं कि हर तंत्र को आराम की जरुरत होती है तो रोज़ की भोजन व्यवस्था से थोडा परिवर्तन हमारी पाचन प्रणाली के लिए बहुत बेहतर होता है .
आप जितना अपनी इन्द्रियों में लिप्त रहेंगे वो उतनी ही ज्यादा इच्छा करेंगी तो उपवास करके हम अपनी इन्द्रियों को वश  में करना सीखते हैं जिससे हम अपने मष्तिष्क को फिर से तैयार कर सकें उसे सुकून दे सकें .
गीता में भी हमें “युक्ता आहार”(उचित भोजन ) लेने के लिए कहा गया है – यानि सात्विक भोजन ,ना ज्यादा कम ना बहुत ज्यादा .” .
तो यह रहा उपवास का लॉजिक … काश मेरी नानी ये मुझे बता पाती तो मैं भी हफ्ते में एक व्रत तो जरुर रखती :)….. कोई बात नहीं अब रख लेंगे 
:)
(कुछ पुस्तकों और जन्चार्चाओं पर आधारित.)



चित्र गूगल साभार .

Thursday, June 24, 2010

हम ऐसा क्यों करते हैं ?भाग - १ (दिया )

मैं बचपन से ही कुछ सनकी टाइप हूँ. मुझे हर बात के पीछे लॉजिक ढूँढने   का कीड़ा है ..ये होता है तो क्यों होता है .?.हम ऐसा करते हैं तो क्यों करते हैं ? खासकर हमारे धार्मिक उत्सव और कर्मकांडों के पीछे क्या वजह है ?..इस बारे में जानने को मैं हमेशा उत्सुक रहा करती हूँ .
बचपन में नानी जब धार्मिक गतिविधियाँ किया करती थी तो उनका सिर  खाया करती थी ..मसलन वो इतने व्रत क्यों रखती हैं ?हम दिया ही क्यों जलाते हैं? जबकि अब तो बिजली है ,हम मंदिर में घंटी क्यों बजाते हैं? आदि आदि ..और बेचारी नानी के पास कोई भी जबाब नहीं होता था मुझे संतुष्ट करने का, वो अपने विचार से ये कह कर टाल दिया करती थी कि बस हमेशा से होता आ रहा है भगवान का काम है हमें करना चाहिए .पर इन जबाबों  से मेरा मन शांत नहीं होता था (हाँ मेरे पापा जरुर कुछ लॉजिकल  कारण देने में सफल हो जाते थे )क्योंकि मेरा मानना है कि धर्म कोई भी हो उसके क्रियाकलापों के पीछे कोई ना कोई लॉजिक जरुर होता है और इसी को समझने के लिए इस विषय पर जब भी जो भी मुझे मिला मैने पढ़ डाला ..तो आज से इसी विषय को लेकर अपनी समझ और जो भी मैंने पढ़ा आप लोगों के साथ बाँट रही हूँ .ये सोच कर कि शायद अपने जैसे कुछ झक्कियों की कुछ उत्सुकता शांत हो सके 🙂 और आप भी अगर मेरी इस समझ में कुछ और इज़ाफा कर सके  तो आभारी रहूंगी :).

तो शुरू करते हैं..
.भारत के हर घर में दिया जलाया जाता है, सुबह या शाम या दोनों समय .अब प्रश्न यह कि  –
हम दिया ही  क्यों जलाते हैं ?
प्रकाश ज्ञान का प्रतीक है ,और अँधेरा  अज्ञानता का .ईश्वर ज्ञान प्रमुख है जो  हर तरह के ज्ञान को सजीव और प्रकाशित करने का स्रोत है.इसलिए प्रकाश को ईश्वर  की तरह ही पूजा जाता  है.
जिस  प्रकार  प्रकाश – अन्धकार  को  हटाता  है  उसी  प्रकार  ज्ञान – अज्ञानता  को .ज्ञान हमारी सारी अच्छी या बुरी गतिविधियों को संभालता है (रक्षा करता है )इसलिए हम अपने  विचार और कर्म के साक्षी के रूप में हर शुभ काम में दिया जला कर रखते हैं .
अब सवाल ये कि हम बल्ब को क्यों नहीं जला लेते ?वो भी तो अँधेरा मिटाता है .तो दिया जलाने के  और आध्यात्मिक  महत्व है .दिए का  घी या तेल हमारी नकारात्मक प्रवृतियाँ   का प्रतीक होता है.तो जब हम आध्यात्मिक  ज्ञान को प्रकाशमान करते हैं ..यानि दिया जलाते हैं तो ये प्रवृतियाँ घटने लगती हैं और अंतत:  ख़त्म हो जाती हैं .दिए की लौ हमेशा ऊपर की तरफ जलती है ,उसी तरह हमें भी अपने ज्ञान को ऊँचे आदर्शों को प्राप्त करने के लिए  ऊपर उठाना चाहिए
एक दिया कई सारे और दियों को जला सकता है ,उसी तरह ज्ञान भी बहुत लोगों में बांटा  जा सकता है जिसतरह एक दिए से दूसरा दिया जलाने से उसकी रौशनी कम नहीं होती बल्कि प्रकाश बढ़ता है ,उसी तरह ज्ञान बांटने से घटता नहीं बल्कि बढ़ता है और देनेवाला और लेनेवाला दोनों लाभ  पाते हैं.
दिया जलाते हुए हम ये श्लोक उच्चारित करते हैं 

दीपज्योति: परब्रह्म दीप: सर्वतमोsपह: 
दीपेन साध्यते सर्व संध्यादीपो नामोsस्तू ते.

यानि -( जहाँ तक मेरी समझ में आया ).
मैं सुबह/शाम दिया जलाती हूँ ,जिसका प्रकाश स्वयं परम ब्रह्म है .
जो अज्ञानता के अन्धकार को मिटाता  है ,
इस प्रकाश से जीवन  में सब कुछ प्राप्त किया जा सकता है. 

इस तरह दिया जलाने के पीछे ये लॉजिक  मेरी समझ में आया 🙂 .आप भी कुछ कहिये .अगली बार हम जानेंगे  ऐसा ही कुछ और…
(कुछ पुस्तकों और जन चर्चाओं पर आधारित).    

Thursday, June 17, 2010

करैक्टर लेस गिफ्ट


बात उन दिनों की है जब हम अमेरिका में रहते थे. एक दिन हमें हमारे बच्चों के स्कूल से एक इनविटेशन कार्ड मिला | उसकी क्लास के एक बच्चे का बर्थडे था. बच्चे छोटे थे, ये पहला मौका था जब किसी गैर भारतीय की किसी पार्टी में उन्हें बुलाया गया था तो हम एक अच्छा सा गिफ्ट लेकर ( पढने लिखने वाला ) पहुँच गए बच्चों को लेकर | एक प्ले एरिया में पार्टी थी वहां बच्चों को ले लिया गया और हमें कहा गया कि जी ३ घंटे बाद आ कर ले जाना | किसी ने बैठने को तो क्या एक ग्लास पानी को नहीं पूछा ठीक भी था आखिर बच्चों को निमंत्रित किया गया था उनके माता -पिता को नहीं। हमने पूरे होंठ  फैला कर एक मुस्कान दी और उलटे पाँव लौट लिए | अब जगह हमारे घर से काफी दूर थी कहाँ जाते?, तो वहीँ के कैफे में बैठ गए. बच्चों की पार्टी देखते रहे और अपने पैसों से कॉफी पीते  रहे. खैर पार्टी ख़तम हुई तो हम लेने पहुंचे बच्चों को, तो पता  चला अभी एक कार्यक्रम और बाकी है | हम वहीँ खड़े हो कर देखने लगे कि देखें क्या होता है… तो हुआ ये कि सारे प्रेजेंट्स लाकर बर्थडे बॉय के पास रख दिए गए और पास में उसकी मॉम बैठ गई एक पेन और पेपर लेकर और बच्चे ने शुरू किया एक एक करके गिफ्ट्स खोलना | वो एक एक गिफ्ट्स खोलता जाता और देने वाले को थैंक्स बोलता जाता और उसकी मम्मी अपनी डायरी में नोट करती जाती. अचानक हमें भारत में हुई शादियों का दृश्य याद आ गया जहाँ दुल्हन दुल्हे के पास उसकी बुआ या बहन खड़ी होती है अपना मोटा सा पर्स लिए और हर मेहमान से लिफाफा ले लेकर पर्स में रखती जाती है और उसका नाम लिखती जाती है। शुकर है लिफाफा वहीँ खोल कर नहीं देखा जाता। हमारे दिल की  धड़कन बढ़ती जा रही थी क्योंकि जितने भी गिफ्ट्स खुल रहे थे, सब एक ही करैक्टर (कार्टून करैक्टर) के थे. हमें समझ नहीं आ रहा था कि हमारे करैक्टरलेस  गिफ्ट का क्या रिएक्शन होगा उसपर | पर कर क्या सकते थे खड़े रहे. हमारे गिफ्ट की बारी आई… उसने धीरे से कहा थैंक्स…और एक तरफ रख दिया. लौटते हुए हम अपनी ख्यालों के फ्लैश बैक में चलते रहे …- जब हमारे भारत में किसी बच्चे का बर्थडे होता था तो गिफ्ट लेते हुए मम्मियां मना करती रहती थीं कि इसकी क्या जरुरत है और पीछे से बच्चा मम्मी का पल्लू खींचता रहता था कि क्यों मना कर रही हो, हम भी तो लेकर जाते हैं ना. और बेचारा इंतज़ार करता था कि कब मम्मियों का ये औपचारिक व्यवहार ख़तम हो और कब मम्मी उसे कहे कि ये लो इसे अन्दर वाले कमरे में जाकर रख दो. फिर सारी पार्टी भर बच्चा उन गिफ्ट्स को निहारता रहता था. कभी चुपके से किसी का थोडा सा पेपर हटा कर देखने कि कोशिश भी कर लेता था तो तुरंत पापा की आवाज़ आती थी, ये क्या बदतमीजी है? मैनर्स नहीं हैं जरा भी. भगवान जब सब्र बाँट रहा था तो सबसे पीछे खड़े थे क्या ?. मेहमानों को चले तो जाने दो, तब खोलना। बच्चा बेचारा अपना सा मुँह लिए मेहमानों के जाने का इंतज़ार करता रहता और उनके जाते ही टूट पड़ता गिफ्ट्स पर.
खैर घर आ गया. हम अपनी ख्यालों की दुनिया से बाहर आये और निश्चित किया कि इस बारे में यहीं के किसी पुराने बाशिंदे  से बात करेंगे और अपनी जर्नल नॉलेज बढायेंगे। और हमने  ऐसा किया भी | पता चला कि अमूमन तो इनविटेशन कार्ड पर ही बच्चे की पसंद लिखी होती है और अगर नहीं तो, हमें इनविटेशन मिलने के बाद उन्हें फ़ोन करके पूछना चाहिए था कि बच्चा क्या पसंद करता है, उसे कौन सा कार्टून करैक्टर पसंद है? और फिर वही गिफ्ट लेना चाहिए। खैर ये बात हमारे गले से उतरी तो नहीं पर फिर भी हमने गाँठ बाँध ली. अब बच्चे तो वहीँ पालने थे.फिर कुछ दिनों बाद हमारी इस जर्नल नॉलेज में एक और इजाफा हुआ, जब हम एक सुपर स्टोर में खड़े कुछ निहार रहे थे तो पास ही एक जोड़ा वहां लगी एक कम्पूटर स्क्रीन पर एक लिस्ट बनाने में मसरूफ़ था. बहुत उत्साहित था. हमें बात समझ में नहीं आई .खैर वो वहां से खिसके तो हमने उस कंप्यूटर तो टटोलना शुरू किया, तो पता चला कि वो कंप्यूटर विशलिस्ट बनाने की  मशीन है…नहीं समझे ? अभी समझाते हैं | असल में जब कोई भी किसी उत्सव को आयोजित करता है- मसलन शादी का, या गृह प्रवेश या कुछ भी, तो उसे जिस चीज़ की भी जरुरत या चाह होती है नई जिन्दगी या घर के लिए, तो वो वहां पर एक लिस्ट बना लेता है, जो उस स्टोर के साथ रजिस्टर हो जाती है. और जिसका लिंक हर मेहमान को दे दिया जाता है, कि जिससे जो भी कोई गिफ्ट लेकर आये वो उस लिस्ट को देखे जिसमें झाड़ू से लेकर होम थियेटर तक सब लिस्टेड है और अपनी औकात के अनुसार गिफ्ट चुन ले और पैसे दे दे. वो गिफ्ट उसके नाम से मेज़बान तक पंहुचा दिया जायेगा। कोई झंझट नहीं और पैकिंग पेपर भी बचा. मेज़बान  को भी अपनी जरुरत और पसंद की चीज़ मिली, कोई घर में रखा फालतू शो पीस नहीं 🙂 .तो जी बड़ा प्रेक्टिकल है सबकुछ. हमें ये देख कर हैरानी भी हुई और दुःख भी | हैरानी इसलिए कि कहाँ पहुँच गया जमाना और हम अभी तक वहीँ हैं कि जी तोहफे की कीमत नहीं, देने वाले की नीयत  देखी जाती है. और दुःख इसलिए कि हमने अपने माता पिता की कितनी डांट खाई है जब किसी गिफ्ट को देखकर मुँह बिसूरा करते थे और तपाक से सुनने को मिलता था गिफ्ट्स लेने के लिए किसी को पार्टी में बुलाते हो क्या ? जाने क्या सीखते हैं आजकल स्कूलों  में. और बड़ी देर तक मम्मी शिक्षा और संस्कारों पर भाषण देती रहती थीं.

Monday, June 14, 2010

एक बुत मैडम तुसाद में .

बैठ कुनकुनी धूप में 
निहार गुलाब की पंखुड़ी 
बुनती हूँ धागे ख्वाब के 
अरमानो की  सलाई पर.
एक फंदा चाँद की चांदनी 
दूजा बूँद बरसात की 
कुछ पलटे फंदे तरूणाई के
कुछ अगले बुने जज़्बात के.
सलाई दर सलाई बढ चली 
कल्पना की ऊंगलियाँ थाम के.   
बुन गया सपनो का एक झबला 
रंग थे जिसमें आसमान से. 
जिस दिन कल्पना से निकल 
ये मन
जीवन के धरातल पर आएगा 
उस दिन मैडम तुसाद में एक बुत
इस नाचीज़ का  भी लग जायेगा.

Friday, June 11, 2010

एक दिन एक गाँव में...

शहर की भीडभाड ,रोज़ के नियमित काम ,हजारों पचड़े ,शोरगुल.. अजीब सी कोफ़्त होने लगती है कभी  कभी उस पर कुछ काम अनचाहे और  आ जाएँ करने को तो बस जिन्दगी ही बेकार ..ऐसे में सुकून के कुछ पल जैसे जीवन अमृत का काम करते हैं ओर उन्हीं को खोजने के लिए इस बार हमने  मन बनाया यहीं पास के एक गाँव जाने का .कि देखें भला कैसे होते हैं यहाँ  के गाँव मन में तो भारत के गाँव की छबि थी तो सोचा चलो यूरोप  के गाँव भी देख लिए जाये .

.लन्दन से करीब २ घंटे की  दूरी पर, ऑक्सफोर्ड से ३५ माईल पर  है एक इलाका जिसे  कहते हैं “कोट्स वोल्ड” किसी मित्र से तारीफ सुन रखी थी ,और फिर यहाँ तो गाँव भी एक टूरिस्ट अट्रेक्शन ही हुआ करता है . वीकेंड आ चुका था तो बस एक नजर मौसम के अनुमान पर डाली और और  चल  पड़े हम. वैसे भी लन्दन में इस (जून -जुलाई )समय बहुत ही सुहाना मौसम होता है और उस दिन तो जैसे परफेक्ट “इंग्लिश समर” था २६ डिग्री तापमान और कार की आधी खुली छत से आती ठंडी हवा उस पर सड़कों के किनारे जहाँ तक नजर जाये वहां तक फैले घास के मैदान ,मुझे एक बात जो हमेशा अचंभित करती है वो ये, कि इतने बड़े बड़े घास के मैदान  ये लोग मेन्टेन  कैसे करते हैं?एकदम सलीके से कटी घास और  करीने से लगे खूबसूरत वन वृक्ष. बच्चों की  चिल्ल – पों के बीच भी हम अपनी आँखों को पूरा बिटामिन G ( ग्रीन :)) दे रहे थे.

चार लाइना  हाईवे से निकल कर हरे भरे जंगल के बीच से निकलती हुई छोटी- छोटी सड़कों पर चलना बहुत ही आनंददायी लग रहा था 
.इस पूरे इलाके में थोड़ी थोड़ी दूरी पर ढेर सारे ऐतिहासिक  गाँव हैं,जिन्हें बहुत ही संग्रहित करके अब तक रखा गया है. और इन्हीं में से एक है “ब्रौटन ऑन द वाटर” जिसे अपने “विंडरश नदी” पर बने ६ खूबसूरत पुलों के कारण कोट्स वोल्ड  का वेनिस कहा जाता है .ये नदी बहुत ही खूबसूरती से गाँव के बीच से बहती हुई निकलती है ओर इसके ही एक किनारे पर बनी हुई है गाँव की हाई स्ट्रीट ( UK के हर इलाके में खरीदारी करने के लिए एक ख़ास स्ट्रीट ) खरीददारी के शौक़ीन लोगों का स्वर्ग.जहाँ बहुत ही नायब और  खूबसूरत गिफ्ट्स और सुविनियर की  छोटी छोटी दुकाने हैं ओर ढेर सारे खाने पीने  के कैफे. पर हाँ अगर आप किसी मैकडॉनाल्ड या पिज्जा हट की तलाश में हैं तो भूल जाइये क्योंकि यहाँ इस तरह का कुछ भी नजर नहीं आएगा यहाँ आये हैं तो पारंपरिक अंग्रेजी खाना ही मिलेगा ,या फिर अपना खाना घर से लाइए और नदी किनारे बैठ कर पिकनिक मनाइए  ..परन्तु हम जैसे नालायक तो घूमने जाये ही क्यों अगर घर से ही खाना बना कर ले जाना हो, तो हमने तो वहीँ एक खूबसूरत से कैफे में फिश -एन- चिप्स का मजा लिया और फिर बाद में आइसक्रीम  भी खाई.

.वैसे यह खूबसूरत गाँव परिवार और दोस्तों के साथ डे आउटिंग  के लिए एकदम परफेक्ट जगह है जहाँ हर उम्र के लोगों के लिए कुछ ना कुछ करने को है …चाहे तो जंगल के बीच लम्बी सैर कीजिये , या आराम से नदी किनारे बैठकर बतखें देखिये और आइसक्रीम का मजा लीजिये ,चाहे तो यहाँ की  खूबसूरत दुकानों में शॉपिंग  कीजिये या बच्चों को यहाँ का मॉडल गाँव ,मोटरिंग एक्जीबिशन में खिलौनों  का संग्रह दिखाइए या फिर मॉडल रेलवे एग्जीबिशन .





.

पर हमें जो सबसे अच्छा लगा,वो था  यहाँ का खुला खुला, शांत, पुरसुकून वातावरण,शहरों के खोखले  मकानों की  जगह खूबसूरत  पुराने पत्थर के बने घर और  सबसे अहम् बात बिना झंझट की फ्री पार्किंग वर्ना यहाँ तो कहीं भी जाओ तो आधी जान तो पार्किंग को लेकर अटकी रहती है कि ना जाने कहाँ मिलेगी और कितना लूटा जायेगा.एक बार तो अपने घर के आगे रोड पर भी कार पार्क करने का फाइन  दे चुके हैं हम. कई बार तो लगता है कि ये देश बस इन्हीं जुर्मानों  पर चल रहा है शायद 🙂.
खैर जो भी हो हमारा वो दिन बहुत ही खुशगवार बीता और सारी थकान उतारकर हम फिर से एक शहरी जीवन जीने के लिए तैयार हो गए एक बात और… भारत के और यहाँ के गाँव में बेशक मूल भूत विभिन्नताएं हों पर समानताएं  भी दिखीं  हमें, और वो थी स्वच्छ ,शांत हवा, सरल जीवन धारा,और संतुष्ट सरल लोग.:) तो अब जब भी जी ऊबा इस शहरी जीवन से फिर से बिता आयेंगे एक दिन हम ऐसे ही किसी गाँव की छाँव  में 

Tuesday, June 8, 2010

मैं एक कविता बस छोटी सी



मैं एक कविता बस छोटी सी 
हर दिल की तह में रहती हूँ.
 
भावो से खिल जाऊं  मैं 
शब्दों से निखर जाऊं मैं  
मन  के अंतस  से जो उपजे
मोती  सी यूँ रच उठती हूँ.
मैं एक कविता बस छोटी सी 
हर दिल की तह में रहती हूँ.
 
हर दर्द की एक दवा सी मैं 
हर गम में एक दुआ सी मैं 
पलकों से गिरती बूंदों को 
चुन दामन में भर  उठती हूँ.
मैं एक कविता बस छोटी सी 
हर दिल की तह में रहती हूँ.
 
एक ज़ज्बे की तलबगार हूँ मैं 
हर रूह की साझेदार हूँ मैं.
जब जब धड़के  दिल कोई 
सारंगी सी बज उठती हूँ.
  
मैं एक कविता बस छोटी सी 
हर दिल की तह में रहती हूँ

Saturday, June 5, 2010

ब्लॉगजगत में अनोखी चोरी






ove is life

अपने बारे में कुछ कहना कुछ लोगों के लिए बहुत आसान होता है, तो कुछ के लिए बहुत ही मुश्किल और मेरे जैसों के लिए तो नामुमकिन फिर भी अब यहाँ कुछ न कुछ तो लिखना ही पड़ेगा न तो सुनिए. by qualification एक journalist हूँ हमने शुरू कर दी स्वतंत्र पत्रकारिता..तो अब कुछ फुर्सत की घड़ियों में लिखा हुआ कुछ ,यदा कदा हिंदी पत्र- पत्रिकाओं में छप जाता है और इस ब्लॉग के जरिये आप सब के आशीर्वचन मिल जाते हैं.और इस तरह हमारे अंदर की पत्रकार आत्मा तृप्त हो जाती है.तो जी बस यही है अपना परिचय….

ब्लॉगजगत में अनोखी चोरी 

वो क्या है कि आज हम महान ही नहीं महा -महान बन गए हैं ..अब पूछिये कैसे ? तो जी बात ये है कि अब तक हमने सुना था कि महान लोगों की  कृतियाँ चोरी की  जाती हैं..महान लेखकों की  रचनाये कोई चुरा लेता है ,महान कवियों की  कवितायेँ लोग अपने नाम से छाप लेते हैं ..महान डायेरेक्टर की  फिल्म की  स्क्रिप्ट लोग चुरा लेते हैं ..यहाँ तक कि दिल ओर रूह की चोरी के किस्से भी सुने हैं ..पर क्या कभी  आपने सुना है कि किसी ने किसी का ( इंट्रो ) परिचय ही चुरा लिया हो ? अब अगर ऐसा हुआ हो तो वो महा – महान की श्रेणी में ही गिना जाना चाहिए ना ? जी हाँ उसका एक नजारा आप यहाँ देख सकते हैं .(ऊपर का फुटवा वहीँ का है ).( पहले हमारे ब्लॉग पर हमारा परिचय तो पढ़ लिए  हैं ना ? ).हुआ यूँ  कि कल हमारी पोस्ट पर एक  टिप्पणी  आई तो अपने स्वाभाव से मजबूर हम उनके ब्लॉग पर पहुँच गए धन्यवाद  देने अब वहां जाकर देखते क्या हैं कि हमारा ब्लॉग तो नहीं है पर कुछ तो है जो हमारे जैसा है ..जरा दिमाग पर जोर डाला तो समझ आया कि जी हमारा परिचय है जो अब उनका भी  है 🙂 अब दुःख इस बात का नहीं कि हमार्रे इंट्रो को कॉपी किया गया ..अब भाई ये तो सौभाग्य की  बात है कि किसी को इतना पसंद आया इंट्रो कि उन्होंने अपना ही  बना लिया ..पर दुःख इस बात का है कि आधा ही क्यों कॉपी किया ? अरे पूरा करना चाहिए था ना ..गृहस्थ जीवन क्यों छोड़ दिया ,भाई ,यूनिवर्सिटी  नाम क्यों छोड़ दिया ? ओर हाँ फुटवा भी छोड़ दी …अब ये तो नाइंसाफी है ना जी ..पर क्या कीजियेगा ? क्या उखाड़ लीजियेगा ? ये ब्लॉग जगत है ..यहाँ सब स्वतंत्र हैं अब आपकी कोई जायदाद तो ली नहीं है ..परिचय में से कुछ पंक्तियाँ ही लीं हैं ..तो कोनो कॉपी राईट है का आपके पास ? फाँसी पे चढ़ा देंगे का? नहीं ना? तो बस…. बैठिये चुपचाप ..अब एक हम टिपिया के भी आये कि भाई जरा छोटा सा एक वाक्य लिख कर बता ही देते कि ये  खुराफात  किये हैं तो हम भी थोडा खुश हो जाते …और कोई नौकरी तो मिल नहीं रही तो लोगों का परिचय ही लिखकर कुछ कमा  लेते ..पर जी उन्होंने तो छापी ही नहीं  वो टिप्पणी . अब आप ही बताइए का करें हम ? तो इस पोस्ट के जरिये धन्यवाद ही दिए देते हैं हमें महा – महान बनाने के लिए .शुक्रिया जी बहुत बहुत शुक्रिया आपका.

Friday, June 4, 2010

उसका / मेरा चाँद

एक नौनिहाल माँ का
एक खिड़की से झाँक रहा था
साथ थाल में पड़ी थी रोटी 
चाँद अस्मां का मांग रहा था
माँ ले कर एक कौर रोटी का
उसकी मिन्नत करती थी
लाके देंगे पापा शाम को
उससे वादा करती थी
पास खड़ा एक मासूम सा बच्चा 
उसको जाने कब से निहार रहा था.
हैरान था उनकी बातों पर वो
बालक जाने क्या मांग रहा था.
उसकी माँ तो रोज़ रात को
जब काम से आया करती है
इस थाली में ही छोटा सा
चाँद दिखाया करती है




Tuesday, June 1, 2010

वो कौन थी ?

Voronezh Railway Station.
वो  कौन थी?..जी ये मनोज कुमार की एक फिल्म का नाम ही नहीं बल्कि मेरे जीवन से भी जुडी एक घटना है. 

बात उन दिनों की  है जब मैं  १२ वीं  के बाद उच्च शिक्षा के लिए रशिया रवाना हुई  थी | वहां मास्को में  बिताये कुछ दिन और वहां के किस्से तो आप ...अरे चाय दे दे मेरी माँ .……..में पढ़ ही चुके हैं ,अब उससे आगे का एक किस्सा  सुनाती हूँ   ,जिसे याद करते हुए आज भी मेरे रौंगटे खड़े हो जाते हैं .
 हुआ यूँ कि बाकी की पढाई से पहले १ साल का रूसी भाषा का फाउन्डेशन  कोर्स करने के लिए हम सभी को अलग अलग यूनिवर्सिटी  भेजने की  व्यवस्था थी .उसी क्रम में मुझे  “वेरोनिश   भेजना तय हुआ .हालाँकि वहां भेजे जाने वालों  में मैं  अकेली  नहीं थी  ..फिर भी हालात ऐसे बने और न जाने क्यों बने कि मुझे  कहा गया कि फिलहाल एक ही टिकेट का इंतजाम हो पाया है तो तुम्हें अकेले ही जाना होगा.. .ज्यादा दूर नहीं है… ट्रेन शाम ७ बजे चल कर सुबह ७-८ बजे तक पहुँच जाएगी. ये सुनते ही हमारी जान निकलने को हो आई …एक तो पहली बार एक छोटे से शहर से  अकेले निकले थे जहाँ सारा शहर हमें साहब की बेटी के नाम से जनता था ,और स्कूल में पढाई में अच्छे थे और बाकी एक्टिविटीज  में भी, तो वहां भी रौब  था तो कभी इस तरह की  समस्या का मुंह  नहीं देखा था , १६ साल की  कमसिन उम्र और उसपर एकदम अनजान देश और भाषा का एक शब्द भी नहीं  मालूम . पर कर क्या सकते थे ? अपना डर उन ऑर्गनाईजेशन   वालों को दिखाना अपने अहम् को गवारा नहीं था सो डरते डरते चल पड़े . (हमारे २ दिन बाद पहुंचे कुछ लोगों ने बताया कि सबसे बड़ी बेबकूफ मैं ही निकली  थी मुझसे पहले और मेरे बाद सभी ने अकेले जाने से साफ़ मना कर दिया था इसलिए उन्हें ग्रुप में भेजा गया था ) स्टेशन तक एक दुभाषिया हमें छोड़ने आया ,ट्रेन में बिठाया, हमें बताया कि गार्ड को बता दिया गया है कि तुम्हें कहाँ उतरना है ,वेरोनिश आने पर वो तुम्हें बता देगा .और वहीँ स्टेशन पर एक शाशा नाम का दुभाषिया मिलेगा जो तुम्हें यूनिवर्सिटी के  हॉस्टल तक ले जायेगा बाकी का काम तो आसान था .और उसने हमें एक रुसी- इंग्लिश की वाक्य डिक्शनरी पकड़ाई  और चला गया.
अब  हमने अपना सामान रखा और एक बार पूरे कूपे को निहारा और दाद दी उस देश की क्यों कि यहाँ  की ट्रेन के  साधारण डिब्बे भी हमारी ट्रेन के AC 2nd टायर जैसे होते हैं .  सारे कागजात  एक बार चैक  किये और अपना शब्द कोष लेकर बैठ गए पढने | वहीँ  साथ वाले कूपे में एक रुसी महिला और एक पुरुष बैठे थे …दोनों खिड़की से निहार रहे थे ,थोड़ी देर बाद दोनों में परिचय आरम्भ हुआ ,और १० मिनट . बाद ही रोमांटिक फिल्म शुरू हो गई शायद क्लाइमैक्स  ही बाकी था ..हमसे देखा न गया और हम झट अपनी सीट पर मुंह  ढक कर सो गए कि सुबह तो गार्ड आकर उठा ही देगा.पर नई जगह और अनजान होने की घबराहट…. नींद कहाँ आनी  थी ?सो किसी तरह अध् सोये पड़े रहे सुबह के इंतज़ार में ..इसी बीच देखा कि वो रुसी महिला बाय कहकर  बीच में ही एक स्टेशन पर उतर  गई थी और वो महाशय फिर लम्बी तान कर सो गए थे.वाह कितने कैजुअल  रिश्ते होते हैं यहाँ ..कोई  टेंशन  ही नहीं..
खैर किसी तरह सुबह हुई ,चाय आई ,हमने पी और इंतज़ार करने लगे कि अब गार्ड आएगा और बताएगा कि तुम्हारा स्टेशन आने वाला  है.तभी ट्रेन एक स्टेशन पर रुकी और लोग अपना सामान उठाकर उतरने लगे | लगभग सभी यात्रियों को उतरते देख हमें थोडा अजीब सा लगा तो हमने अपना शब्दकोष निकला और उसमें से  एक वाक्य पास खड़ी एक रुसी लड़की  को दिखाया ” ये स्टेशन कौन सा है ? ” वहां से जबाब आया ” वेरोनिज़े” …अब हम फिर परेशान कि क्या करें लग तो रहा है वही कह रही है जहाँ हमें जाना है पर वो गार्ड तो आया नहीं और हमें तो वरोनिश कहा गया है …पर हो सकता है कि एक्सेंट का फर्क  हो ..हमें परेशान देख वो लड़की हमसे  न जाने क्या पूछने लगी रुसी में  और हम उसकी शक्ल देख बडबडाने लगे ” रुस्की नियत “( नो रुसी ) अब उसने भी किसी तरह हमारे शब्द कोष में से ढूँढ ढूँढ कर हमसे पूछा कि कहाँ जाना है ..हमने बताया ..अब उसे भी हमारे उच्चारण  पर शक हुआ ..इसी  तरह कुछ देर शब्दकोष  के साथ हम दोनों कुश्ती करते रहे अंत में हमारा दिमाग चला और हमने फटाक  से अपना यूनिवर्सिटी  का ऐपौइन्टमेंट    लैटर उसे दिखाया ..उसने देखा और फट हमारा एक बैग हमारे हाथ में थमाया और हमारा   सूटकेस  अपने हाथ में पकड़ा और  झट से हमें स्टेशन पर उतार लिया …हम हक्के – बक्के हैरान परेशान ..जान हलक में अटकी हुई थी .रशियन  माफिया और वहां विदेशी   लोगों को लूटने के चर्चे भी सुने हुए थे. बस राम राम जपते हम उसकी अगली गतिविधि का इंतज़ार करते रहे..वो थोड़ी देर हमारे उस कागज को देख हमें कुछ समझाने की  कोशिश करती रही .फिर उसने हमें शब्दकोष में दिखाया कि आओ मेरे साथ. मरता क्या न करता ?हमें आधा घंटा से ज्यादा हो गया था वहां मगज़ मारते  पर उस दुभाषिये शाशा  का कोई अता पाता  न था ,तो ये सोच कि भागते भूत की  लंगोटी भली ,ये लड़की शक्ल  से चोर तो नहीं लगती ,बाकी भगवान की  मर्जी सोच. हम उसके साथ चल दिए .अब हमारे एक कंधे पर १५ किलो का बैग और एक हाथ में ३५ किलो का सूटकेस  (दाल चावल सब बाँध दिया था मम्मी ने कि वहां न जाने क्या मिलता होगा क्या नहीं ).
 तो हम चल रहे थे अपनी चाल से ठुमक ठुमक  और उसके पास था बस एक पिठ्ठू तो वो तो.शताब्दी एक्सप्रेस हुई जा रही थी …वैसे भी इन यूरोपियन को बहुत पैदल चलने का शौक होता है ..न जाने कितनी दूर पैदल ले गई वो ( वो हमें बाद में पाता चला कि स्टेशन से बस भी मिलती है यूनिवर्सिटी तक )फिर उसने हमारी चाल  देखी और अपनी घड़ी और झट से हमारा सूटकेस ले लिया और बोली फास्ट…अब वो  चलने लगी और हम उसके पीछे- पीछे  दौडने  लगे. आखिरकार २० मिनट  चलने के बाद एक इमारत नजर आई और उसकी चाल थोड़ी धीमी हुई तो हमारी सांस भी थोडा नॉर्मल हुई खैर पहुंचे अन्दर, वहां जाकर उसने एक आदमी से न जाने  क्या कहा ..उसे हमारा लैटर पकडाया .और हमें बाय कहकर एक पुच्ची गाल  पर देकर चली गई .और तब हमें समझ आया कि हम ठीक जगह पर पहुंचे हैं और इस समय अपनी यूनिवर्सिटी  के डीन के आगे खड़े हैं जो अंग्रेजी में हमारा स्वागत कर रहा है….. .तभी पीछे से एक मोटे से चश्में वाला अजीब नमूना सा  ,सीकड़ा सा  रूसी आदमी भागता हुआ आया और आते ही अपनी रूसी टोन की  इंग्लिश में हमसे  माफ़ी मांगने लगा …सॉरी कहते कहते उसकी  ज़ुबान नहीं थक रही थी ..तब जाकर हमें सारा माजरा समझ आया कि वो वहां देरी से  पहुंचा था और वो ट्रेन का गार्ड  वोदका पीकर टुन्न था और वोरोनिश  उस ट्रेन का आखिरी स्टेशन था.अब हमें होश आया तो अब तक की  चुप्पी कहर बन बरस पड़ी उस डीन  के सामने… बरस ही  तो पड़े हम, कि ये कौन सा तरीका है ? अगर वो लड़की नहीं मिलती तो क्या होता हमारा ? कौन जिम्मेदार होता? हम बडबडाते रहे  और वो शाशा  सॉरी सॉरी करता हमारे दोनों बैग उठाकर हमारे हॉस्टल के कमरे में पहुंचा गया और फिर हमें लेकर सीधा वहां की  कैंटीन ..वहां जाकर एक बढ़िया सी आइसक्रीम  हमारे लिए मंगाई  और हाथ जोड़कर हमारे सामने बैठ गया ..कि अगर हमने उसकी शिकायत कर दी तो उसकी नौकरी चली जाएगी फॉरेन  स्टुडेंट का मामला है . खैर  उस आइसक्रीम  से हमारा दिमाग थोडा ठंडा  हुआ और हमने उसे माफ़ कर दिया.ये सोच कर कि वो  फ़रिश्ता  जो  हमें यहाँ तक छोड़ गई वो भी हमें इसी की  वजह से मिली थी .और उस दिन से रूसी लोगों के लिए हमारे मन में जगह बन गई.उस लड़की ने अपना नाम “लेना” बताया था और वो भी एक स्टुडेंट ही थी पर शायद किसी और फैकल्टी की … उसके बाद उसे हमने ढूंढ़ने  की  बहुत कोशिश की  क्योंकि शुक्रिया तक नहीं कह पाए थे उसे हम ..पर वहां “लेना, ओल्गा ,जैसे नाम हर दूसरी लड़की के होते हैं ..तो वो हमें फिर कभी नहीं मिली .शायद मेरे माता -पिता की  दुआओं के चलते भगवान ने ही उसे हमारे लिए भेजा था.
तो ये था हमारी जिन्दगी का वो पहला और सबसे खतरनाक वाकया जिससे हम पता  नहीं कैसे उबार पाए… पर इस घटना  ने पूरे हॉस्टल में हमारी धाक  जमा दी और हमें “बोल्ड गर्ल” का ख़िताब अनचाहे ,अनजाने ही दे दिया गया.जो बाद में  हमारे बहुत काम आया ….. कैसे .? ये आपको फिर कभी  बताउंगी   .फिलहाल तो  इन पंक्तियों के  साथ इस पोस्ट  को ख़तम करती हूँ 

नहीं आता था ऊबड़  खाबड़ रास्तों पर चलना भी 
जिन्दगी सिखा ही देती है गिरना भी संभलना  भी.
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Voronezh state University.

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