Monday, November 30, 2009
उछ्लूं लपकूं और छू लूँ
Wednesday, November 25, 2009
करवट लेती जिन्दगी.
Wednesday, November 18, 2009
तुम्हारे लिए
कुछ दिनों से मेरे अंतर का कवि कुछ नाराज़ है. कुछ लिखा ही नहीं जा रहा था …पर मेरा शत शत नमन इस नेट की दुनिया को जिसने कुछ ऐसे हमदर्द और दोस्त मुझे दिए हैं , जिनसे मेरा सूजा बूथा देखा ही नहीं जाता और उनकी यही भावनाएं मेरे लिए ऊर्जा का काम करती हैं ॥ इन्हीं में एक हैं संगीता स्वरुप जिन्हें मैं दीदी कहती हूँ और ये कविता उन्होंने लिखी है मेरे लिए ..अब इतनी अच्छी कविता कोई किसी के लिए लिखे तो बांटने का मन तो करेगा ही न और उसके लिए आपसे अच्छे साथी कहाँ मिलेंगे मुझे ? तो लीजिये आपके समक्ष है ये कविता –
तुम्हारे लिए –
“मन की अमराई में तुम
कोयल बन कर आ जाती हो
घोर दुपहरिया में तुम
मीठे बोल सुना जाती हो ।
उजड़े हुए चमन में जैसे
फूल सुगन्धित बन जाती हो
वीराने में भी जैसे
बगिया को महका जाती हो ।
उद्द्वेलित सागर को भी जैसे
मर्यादित साहिल देती हो
सीली – सीली रेत पर जैसे
एक घरौंदा बना जाती हो ।
जेठ की दोपहर में भी तुम
शीतल चांदनी बरसाती हो ।
गम की घटा को भी हटा तुम
बिजली सी चमका जाती हो ।
शुष्क हवाओं में भी तुम
मंद बयार बन जाती हो
मन के सारे तम को हर
दीप – शिखा सी बन जाती हो।
दीदी ( संगीता स्वरुप )
Friday, November 13, 2009
शुक्र की मंगल से होड़
आज कुछ पल सुकून के मिले थे शुक्रवार था .सप्ताहांत शुरू हो चुका था ,फुर्सत के क्षण थे तो यादों के झरोखे खुल गए और कुछ खट्टे मीठे पल याद आते ही जहाँ होठों पर मुस्कराहट आई वहीँ मन में एक सवाल हिल्लोरे लेने लगा… सोचा आपलोगों से बाँट लूं शायद जबाब मिल जाये.
हुआ यूँ कि एक बार एक जबर्दस्त बीमारी ने हमें आ घेरा तकलीफ कुछ ज्यादा ही बढ गई थी जब सहा ना गया तो २-४ आंसूं भी लुढ़क पड़े थे …..मेरी ८ साल की बेटी और ६ साल का बेटा भी पास ही बैठे थे और व्याकुल थे माँ की हालत देख कर . हमारी आँखे गीली देख बिटिया की आँखें भी भर आयीं , उससे रहा न गया तो हमें आराम पहुँचने की गरज से कहने लगी “मम्मा ! नानी को फ़ोन लगाऊं ? उनसे बात कर लो आपको अच्छा लगेगा …दर्द कम हो जायेगा “बेचारी छोटी सी बच्ची को लगा जैसे उसकी तकलीफ माँ की गोद में आकर कम हो जाती है वैसे ही मेरी भी अपनी माँ से बात कर के कम हो जायेगी.वहीँ मेरा ६ वर्षीय बेटा था वो भी व्याकुल था छूटते ही उसने अपना कंसर्न दिखाया और बड़े रोबीले अंदाज में अपने पापा को बोला ” डैड! अब आप बस कल ही किसी काम वाली का इंतजाम करो मम्मी की तबियत ठीक नहीं है फिर खाना कौन बनाएगा?” इतनी तकलीफ के वावजूद एक हलकी सी हंसी हमारे होठों पर आ गई और ये सोच भी …..कि दोनों बच्चों की परवरिश एक ही जैसी कर रहे हैं हम, दोनों बच्चे प्यार भी बराबर करते हैं, पर कितना फर्क है दोनों के प्यार जताने में जहाँ बेटी ने तकलीफ का इलाज़ भावुकता और भावनाओं से निकाला ,वहीँ बेटे ने व्यावहारिकता से ...ये सोच इतनी परिपक्व नहीं थी कि हम कह सके कि माहौल या शिक्षा से मिली थी ..ये एक प्राकृतिक सोच थी जो प्रकृति से ही मिली थी
अचानक ही हमें जोन ग्रे कि पुस्तक “Men are from Mars Women are from Venus कि कुछ पंक्तियाँ याद आ गईं जहाँ उन्होंने कहा है कि “सोचिये एक बार बहुत पहले मार्स वालों (मंगल गृह ) ने वीनस (शुक्र गृह ) का पता लगाया और उन्हें उन खुबसूरत प्यारे लोगों से प्यार हो गया ..वीनस वालों ने भी खुली बाहों से उनका स्वागत किया और वे खुश रहने लगे उसी तरह अलग- अलग प्लानेट के वासी बनकर. फिर एक बार वे प्रथ्वी पर आये और वहां के माहौल के असर से धीरे धीरे भूल गए कि वो अलग- अलग प्लानेट के वासी हैं, और एक दूसरे से स्वाभाव और गुणों में भिन्न हैं “…बस तब से ये होड़ जारी है.“
तो जब प्रकृति ने ही स्त्री और पुरुष को अलग -अलग गुण और सोच से नवाजा है तो हम क्यों उन्हें समान बनाने पर तुले हुए हैं ?
जहाँ उसने स्त्री को प्रेम, भावनाएं ,भावुकता , कोमलता ,त्याग जैसे गुणों की अधिकता दी है ,वहीँ पुरुषों में जोश, व्यावहारिकता ,ताक़त और नापतोल जैसे गुण अधिक पाए जाते हैं .और फिर दोनों के मिलन से बनता है एक संतुलित समाज …फिर क्यों हम एक समान बनने की होड़ में प्रकृति के संतुलन में बाधा पहुंचा रहे हैं?
क्या हम अपने स्वाभाविक गुणों के साथ एक दूसरे को सम्मान नहीं दे सकते ?
जरा गौर कीजिये आप भी.
