कुछ दिनों से मेरे अंतर का कवि कुछ नाराज़ है. कुछ लिखा ही नहीं जा रहा था …पर मेरा शत शत नमन इस नेट की दुनिया को जिसने कुछ ऐसे हमदर्द और दोस्त मुझे दिए हैं , जिनसे मेरा सूजा बूथा देखा ही नहीं जाता और उनकी यही भावनाएं मेरे लिए ऊर्जा का काम करती हैं ॥ इन्हीं में एक हैं संगीता स्वरुप जिन्हें मैं दीदी कहती हूँ और ये कविता उन्होंने लिखी है मेरे लिए ..अब इतनी अच्छी कविता कोई किसी के लिए लिखे तो बांटने का मन तो करेगा ही न और उसके लिए आपसे अच्छे साथी कहाँ मिलेंगे मुझे ? तो लीजिये आपके समक्ष है ये कविता –
तुम्हारे लिए –
“मन की अमराई में तुम
कोयल बन कर आ जाती हो
घोर दुपहरिया में तुम
मीठे बोल सुना जाती हो ।
उजड़े हुए चमन में जैसे
फूल सुगन्धित बन जाती हो
वीराने में भी जैसे
बगिया को महका जाती हो ।
उद्द्वेलित सागर को भी जैसे
मर्यादित साहिल देती हो
सीली – सीली रेत पर जैसे
एक घरौंदा बना जाती हो ।
जेठ की दोपहर में भी तुम
शीतल चांदनी बरसाती हो ।
गम की घटा को भी हटा तुम
बिजली सी चमका जाती हो ।
शुष्क हवाओं में भी तुम
मंद बयार बन जाती हो
मन के सारे तम को हर
दीप – शिखा सी बन जाती हो।
दीदी ( संगीता स्वरुप )
Wednesday, November 18, 2009
तुम्हारे लिए
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