Monday, November 30, 2009

उछ्लूं लपकूं और छू लूँ


आसमान के ऊपर भी
एक और आसमान है,
उछ्लूं लपक के छू लूँ 
बस ये ही अरमान है।
बना के इंद्रधनुष को
अपनी उमंगों का झूला ,
बैठूँ और जा पहुँचूँ
चाँद के घर में सीधा।
कुछ तारे तोडूँ और
भर लूँ अपनी मुठ्ठी में,
लेके सूरज का रंग
भर लूँ सपनो की डिब्बी में।
उम्मीदों का ले उड़नखटोला
जा उतरूं कुबेर की छत पे
प्रतिफल से सोने के सिक्के
भर लूँ अपनी जेबों में।
तोडूँ एक बादल का टुकड़ा
प्रेम जल भरा हो जिसमें
उडूँ मुक्त गगन में फ़िर
बाँध के उसको आँचल में।
यूँ समेट सब अभिलाषाएं,
बन जाऊँ वर्षा का जल कण
छम छम करती बोछारों संग
आ पहुँचूँ फिर धरती पर।
बंद पलक पर राह जो दिखती
खो जाती खुलने पर अखियाँ
कितना अच्छा होता गर ये
न होता बस एक सपना।

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