Friday, October 31, 2014

काला सा... काला ....

काला धन काला धन सुन सुन कर कान तक काले हो चुके हैं । 

यूँ मुझे काला रंग खासा पसंद है। ब्लेक ब्यूटी की तो खैर दुनिया कायल है पर जब से जानकारों से सुना है की काले कपड़ों में मोटापा कम झलकता है तब से मेरी अलमारी में काफी कालापन दिखाई देने लगा है। 
परन्तु काले धन के दर्शन आजतक नहीं हुए किसी भी नोट या सिक्के में कहीं भी ज़रा सा भी काला रंग नजर नहीं आता। मुझे आजतक समझ में नहीं आया कि बेचारे धन को क्यों काला कहा जाता है। काल धन नहीं काला तो हमारा मन होता है। या फिर नाक,  मुंह आदि हो जाता है कभी कभी। 

मुझे याद है जब मास्को से लौट कर शादी के बाद दिल्ली में रहकर मैं नौकरी कर रही थी।कुछ छुट्टियों के बाद, पहली बार स्कूटर से वसुंधरा से दक्षिण दिल्ली ऑफिस पहुंची । वहां जाकर वाशरूम के शीशे पर नजर पड़ी तो अवाक रह गई। चेहरा एकदम काला हो चूका था। मन रोने को हो आया। सामझ नहीं आया कि अचानक इतना काला रंग कैसे हो गया। समस्या या तो मेरे घर के शीशे में है या ऑफिस के। हालाँकि ऑफिस के शीशे के खराब होने की उम्मीद नगण्य थी और मैंने शादी ही की थी, कोई भी काम मूंह काला करने जैसा तो किया नहीं था। डरते डरते एक दो बार उँगलियाँ चेहरे पर फिराईं  तो कहीं कहीं से काली सी एक परत राख की तरह निकलने लगी। जल्दी जल्दी लिपस्टिक छूटने की परवाह किये बिना पानी से रगड़ रगड़ के मूह धो डाला तो अपने मूंह काले होने की वजह समझ में आई। 
असल में ये कमाल दिल्ली के प्रदुषण का था। जिसे आजतक हम सिर्फ सुनते आये थे। कुछ स्कूटर पर चलती लड़कियों को नकाब, बांधे चलते देखा जरूर था पर उसे उन लड़कियों की फैशन परस्ती सोच टरका दिया था। अभी तक जितनी भी जगह गए,  रहे ज्यादा से ज्यादा कमीज के कॉलर तक को काला पाया था। प्रदुषण की वजह से दिल्ली में यह कालिख इस हद्द तक जम जाती होगी इसकी कल्पना भी नहीं की थी।

यह पहला अनुभव था और उसके बाद अब तक का आखिरी भी। लन्दन, अमेरिका, रूस या अन्य किसी भी पश्चमी देशों में, जहां अब तक गई हूँ इस तरह का प्रदुषण नहीं देखने को मिलता । लन्दन में 2 घंटे भी पब्लिक ट्रांसपोर्ट से सफ़र करने के वावजूद कपडे तक गंदे नहीं होते। 
पर अब शाम को मेट्रो से घर लौटो तो नाक कान के अन्दर कालिख घुस जाती है । यानि प्रदुषण अपने पाँव यहाँ भी जमाने लगा है, ऑक्सफ़ोर्ड स्ट्रीट को यूरोप में सबसे ज्यादा प्रदुषण वाली जगह का तमगा मिल गया है.  


यहाँ का प्रशासन उसे लेकर अभी से सतर्क भी हो गया है। 
वाहन चालकों के लिए नए मानक बना दिए गए हैं प्रदुषण फैलाने पर जुर्माना अधिक कर दिया गया है, लन्दन की हवा प्रदूषित न हो इस पर सावधानी वरती जा रही है.
लंदन के बस बेड़ों की सफाई, कार टैक्सी पर सख्ती,साइकिलिंग को बढ़ावा देना, लंदन में कम उत्सर्जन क्षेत्र के लिए नए और सख्त मानकों की स्थापना,  आरई के माध्यम से 55,000 घरों में ऊर्जा दक्षता में सुधार, निर्माण और विध्वंस साइटों पर वायु प्रदुषण पर लगाम आदि सुधारकार्य चल रहे हैं. आशा है जरूर अच्छे परिणाम निकलेंगे और फिर से सफ़र कालिख रहित हो जाएगा।

काश अपनी सरकार भी जागरूक हो जाती और काले धन के साथ, काले मन , काली हवा, और  काले आसमान को सफ़ेद करने के लिए भी कुछ करती।

Tuesday, October 21, 2014

अथातो डोन्ट तमाशा...



यदि बंद करना है तो जाओ 

पहले घर का एसी बंद करो. 
हर मोड़ पर खुला मॉल बंद करो 
२४ घंटे जेनरेटर से चलता हॉल बंद करो. 
नुक्कड़ तक जाने लिए कार बंद करो 
बच्चों की पीठ पर लदा भार बंद करो.
नर्सरी से ही ए बी सी रटाना बंद करो 
घर में चीखना चिल्लाना बंद करो. 
बच्चों से मजदूरी करवाना बंद करो 
कारखानों का प्रदुषण फैलाना बंद करो. 
मंदिर में रोज शाम का कीर्तन बंद करो 
मस्जिद में रोज सुबह की अज़ान बंद करो.  
कचरा कम करो, यहाँ वहां टपकाना बंद करो 
उसे पडोसी के दरवाजे पर फैलाना बंद करो.
बाउंड्री बढ़ाकर सरकारी जमीन हथियाना बंद करो 
बिना जरुरत तीन माले का घर बनाना बंद करो.
लड़कों को खुला सांड सा छोड़ना बंद करो 
लड़कियों पर प्रतिबन्ध लगाना बंद करो. 
ये सब रोज करो, पूरा साल करो 
सिर्फ एक दिन जिम्मेदारी का न प्रचार करो.

आप सभी को दीपोत्सव की अशेष शुभकामनाएं। 

Saturday, October 18, 2014

यंत्र और एहसास...

मोबाइल और टेबलेट जैसी नई तकनीकियों के आने से एक फायदा बहुत हुआ है कि कहीं कैफे या रेस्टौरेंट में अकेले बैठकर कुछ खाना पीना पड़े तो असहजता नहीं होती, यह एहसास नहीं होता कि कोई घूर रहा है. या कोई यह सोच रहा है कि भला अकेले भी कोई खाने पीने बाहर आता है. क्योंकि अब कोई भी, कभी भी, कहीं भी अकेला नहीं होता. हर एक के साथ कम से कम एक मोबाइल तो जरूर होता है जिसमें वह सिर घुसाए रहता है. अपने संगी साथियों से गुफ्तगू करते करते आराम से अपने व्यंजनों का आनंद लेता है. बराबर वाली सीट पर भी कोई अपने मोबाइल या लैपटॉप के साथ ही व्यस्त होगा. यहाँ तक कि नई पीढ़ी तो छ: – सात लोगों के साथ भी कहीं होती है तो आपस में एक दूसरे के साथ कम और इन गैजेट्स के साथ ज्यादा होती है. 


इस मशीनी युग की इस “गैजेटी” स्थितियों में लगता तो है कि मानवीय संवेदनाएं कम हो गई हैं या फिर इतनी महत्वपूर्ण नहीं रहीं, अब किसी को कुछ भी करने के लिए इंसान नहीं बस बित्ते भर का गैजेट चाहिए. परन्तु सच शायद ऐसा है नहीं. जब तक इंसान के शरीर में दिल नामक अंग धड़केगा कहीं न कहीं मानवीय संवेदनाएं सांस लेती ही रहेंगी. 

अब चूंकि इन गैजेटस के होते हुए भी मेरी घूरने की बीमारी कम नहीं हुई है ( आप चाहें तो मुझे पिछडा हुआ कह सकते हैं) और किसी कैफे में दोपहर के भोजन के समय मेरी आँखें और कान मोबाइल के होते हुए भी आस पास के लोगों पर ही लगे होते हैं सो हाल फिलहाल में मैंने कुछ ऐसे उदाहरण देखे, जिनसे मेरा यह ख्याल पुख्ता हो गया कि बेशक दुनिया मशीनी हो चली है परन्तु भावनाओं पर अब भी उसका कब्जा नहीं है. 
आप भी देखिये –

दृश्य एक – स्टारबक्स का भरा हुआ हॉल, हर कोई अपने- अपने में मस्त. मेरे सामने दो मेज छोड़कर और कैफे के लगभग शुरुआत की मेज पर बैठी दो महिलायें. एक कुछ ३० वर्ष की और एक उससे कुछ कुछ अधिक उम्र की. हाव भाव से माँ- बेटी लग रहीं थी. (सो उन्हें हम माँ बेटी ही संबोधित करते हैं). जाने क्या बात थी. बेटी सुबक सुबक कर, आंसू भर – भर कर रो रही थी. माँ का लगातार बहुत ही धीमी आवाज में कुछ बोलना जारी था. बीच बीच में बेटी कुछ रूकती, टिशु से चेहरा पोंछती, कुछ वाक्य रुआंसी होकर बोलती और फिर से  रोना शुरू कर देती. ऐसा क्या था जो उन्हें इस कदर परेशान कर रहा था कि वे घर तक जाने का इंतज़ार नहीं कर पा रही थीं. कुछ इतना गंभीर जो उन्हें इतना सार्वजनिक होने को विवश कर रहा था. सवाल था कि – क्या था जो मशीन नहीं काबू कर पाई थी. 

दूसरा दृश्य इसके बिलकुल विपरीत था. वह आप पढ़िए नहीं, बल्कि सुनिए. यहाँ – 

संवेदनाएं अभी बाकी हैं मेरे दोस्त 🙂 

Tuesday, October 14, 2014

रंगीन दुशाला...

आह… ऑटम ऑटम ऑटम… आ ही गया आखिर। इस बार थोड़ा देर से आया। सितम्बर से नवम्बर तक होने वाला ऑटम अब अक्टूबर में ठीक से आना शुरू हुआ है. सब छुट्टी के मूड में थे तो उसने भी ले लीं कुछ ज्यादा। अब आया है तो बादल, बरसात को भी ले आया है और तींनो मिलकर  छुट्टियों की भरपाई ओवर टाइम करके कर रहे हैं। वैसे उनका यूँ आना भी मुझे सुहाता ही है। धरती को पत्तों की शाल मिल जाती है। 
                                                                                                          अमेरिकी पतझड़ 
 
लन्दन में तो बारिश की मोनोपोली रहती है परन्तु अमरीका के कुछ क्षेत्रों में फॉल का अंदाज बेहद ही खूबसूरत हुआ करता है। लाल, नारंगी पीले हरे पत्तों का रंग बिरंगा दुशाला ओढ कर धरती और पर्वत खुद को आने वाली सर्दी से बचाने का उपाय कर लेते हैं। 
 
पेड़ों को फिर से अपनी भूमि और बाहें नए पत्तों के स्वागत के लिए तैयार करने में थोड़ा वक़्त लगेगा तब तक बारिश उन्हें नहलाएगी, धुलाएगी। बिना फूल, फल, पत्तों के उन्हें अकेलापन ना खले इसलिए वक़्त वक़्त पर बर्फ मेहमान बन कर जम जाएगी, खेलेगी, बतियाएगी, और  कभी कभी धूप आकर सहलाएगी।यानि पतझड़ भी आता है तो पूरे शबाब के   साथ और सबको अपने रंग में रंग लेता है. 
 
 
धरती पर बिछी ये खूबसूरत पत्तों की चादर मैं भी उठा कर तान लेना चाहती हूँ और उसमें ढांप  लेना चाहती हूँ जिंदगी के सारे पतझड़ी पलों को. और फिर से हो जाना चाहती हूँ तैयार नई खिलती कोपलों के लिए, फिर से नए परिवर्तन के लिए.  
 
काश सब कुछ चलता रहता यूँ ही और मैं भी हो जाती प्रकृति, जो अपनी इस व्यवस्थित व्यवस्था पर इठलाई फिरती है।




मास्को में पतझड़ की एक मित्र द्वारा भेजीं गईं कुछ ताज़ा तस्वीरें 

 

मेरी गली का पतझड़ (लंदन)
 

 












Saturday, October 4, 2014

नवयुवाओं में बढ़ता तनाव ??

पिछले दिनों बाजार गई तो १६ वर्षीय एक बच्ची को ढेर सारी अलग अलग तरह की खुशबू  वाली मोमबत्तियां खरीदते हुए देखा। बच्ची मेरी जानकार थी सो मैंने पूछ लिया, अरे अभी तो क्रिसमस में बहुत समय है, क्या करोगी इतनी मोमबत्तियों का?. उसने जबाब दिया कि यह मोमबत्तियां वह अपने स्ट्रेस पर काबू पाने के लिए खरीद रही है. कुछ अलग अलग तरह की खास खुश्बू वाली मोमबत्ती जलाने से स्ट्रेस यानि तनाव कम होता है, उसके इम्तिहान आने वाले हैं जाहिर है उसे तनाव होगा, उसकी टीचर ने यह उपाय सुझाया है, इसीलिए वह इन मोमबत्तियों को खरीद रही है. 

गज़ब है भाई, भगवान की दया से पढ़ेलिखे तो हम भी हैं, इम्तिहान हमारे भी होते थे, जाहिर है तनाव भी होता था. पर हमें तो कभी हमारी टीचर ने यह तरीका नहीं सुझाया, बल्कि कभी जब पढाई के बोझ से हम झुंझला जाते या कह देते भूख नहीं है , खाना नहीं खाना, तो हमारी मम्मी तो और उलटा हमें डाँट देती कि चिंता हो रही है तो बैठ कर पढ़ो ये टेंशन- टेंशन का गीत गाने से क्या होगा। तब ऐसा ही समय था. “चिंता, चिता से बदत्तर है” यह कहावत बहुत पुरानी है तो यह तो पक्का है कि यह स्ट्रेस यानि तनाव की बीमारी भी कोई आज की नई बीमारी तो नहीं है. परन्तु पहले इस तनाव का दायरा शायद कम था. या यह कहना ज्यादा ठीक होगा कि लोग इसे व्यक्त नहीं किया करते थे, यानि पुरुष को कमाई का तनाव हो, स्त्री को घर चलाने का, या फिर बच्चों को पढाई का, हर कोई अपने तक रखता था और अपने हिसाब उससे निबटने की कोशिश करता रहता था. 
तब न इस तनाव से निबटने के लिए बाजार था, न डॉक्टर्स, न ही उसे कहने की आवश्यकता थी. बस परिवार और मित्र थे जिनके सहयोग और प्रेम से अनजाने ही तनाव कम हो जाया करता था. 
परन्तु अब समय बदल गया है. परिवार छोटे हो गए हैं, हर कोई व्यस्त है और किसी के पास किसी की बात सुनने का समय नहीं है. 
हाल ही में कहीं पढ़ा था कि आज के हाईस्कूल के एक एवरेज बच्चे का स्ट्रेस लेवल सन 1950 के एक पागल व्यक्ति से ज्यादा है. यानि यदि आज के किसी दंसवीं में पढ़ने वाले बच्चे को टाइम मशीन से सन  1950 में पहुंचा दिया जाए तो उसे पागल करार देकर पागल खाने में भर्ती करा दिया जाएगा। 
हालाँकि इसी के साथ एक सत्य यह भी है कि तब के सामाजिक ढाँचे, मनुष्य के एवरेज दिमागी स्तर (आई क्यू ) में और आज की परिस्थियों में काफी फ़र्क है और शायद यही वजह है कि जैसे जैसे पीढ़ी दर पीढ़ी मनुष्य का मष्तिष्क विकसित हुआ, उसका एवरेज आई क्यू बढ़ा, वैसे वैसे ही तनाव का स्तर और कारण भी बढ़ते गए. 
एक सर्वे के अनुसार वर्तमान में पिछले वर्षों के अनुपात में युवाओं में स्ट्रेस लेवल लगातार बढ़ रहा है, जिससे वह मुकाबला करने में असमर्थ हो रहे हैं और इसकी वजह से उन्हें 
संभावित शारीरिक और भावनात्मक स्वास्थ्य चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है, विशेषज्ञों मुताबिक लगातार उच्च तनाव के परिणाम स्वरुप  चिंता, अनिद्रा, मांसपेशियों में दर्द, उच्च रक्तचाप और एक कमजोर प्रतिरक्षा प्रणाली सहित कई गंभीर स्वास्थ्य समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है . शोध बताते हैं कि  तनाव, हृदय रोग, अवसाद और मोटापे जैसी प्रमुख बीमारियों को बढ़ाने में भी योगदान देता है. और इसके मुख्य कारणों में पैसे के अलावा, काम काज रिश्तों में तनाव एवं वित्तीय परेशानियां व संघर्ष हैं. 
देखा जाए तो ये वजह कोई नई नहीं हैं परन्तु १६ से २५ साल के आयुवर्ग के बीच इन वजहों से तनाव का बढ़ना एक समस्या बन चुका है जिसे वे स्वयं संभालने में असमर्थ होते हैं. 
ऐसे में हर छोटी मोटी समस्या का कारण यह तनाव बन जाता है. १५ वर्ष के बालक के मुँह में छाले हो गए तो डॉक्टर्स ने सलाह दी, इसे स्ट्रेस मत दो, १६ साल की बच्ची के चेहरे पर मुँहासे हो गए – कारण स्ट्रेस है, १४  साल का लड़का चिड़चिड़ा हो रहा है, बात बात पर रोआंसा हो जाता है –  स्ट्रेस की वजह से है, २५ साल युवा परेशान है कि उसके पास अपना घर नहीं है, अच्छी नौकरी नहीं है, नवयुवती स्ट्रेस में है कि उसका कोई बॉय फ्रेंड नहीं है, एक्जाम में २ नंबर कम आ गए स्ट्रेस है, पड़ोसी ने नई कार खरीद ली स्ट्रेस है. यानि जिसे देखो वह अपने भविष्य को लेकर चिंतित है असुरक्षित है. देखा जाए तो तनाव तो जो है सो है पर तनाव का विज्ञापन अधिक है. हर कोई यही जुमला सुबह शाम बोलता नजर आता – “व्हाट अ स्ट्रेस फूल लाइफ नाउ अ डेज” और उन्हें इस तनाव के राक्षस से बचाने में परिवार, डॉक्टर्स सब असफल हो रहे हैं. 
ऐसे में बाजारवाद ने फायदा उठाया, अपने हाथ पैर फैलाये और आज बाजार में इस स्ट्रेस से निबटने के ढेरों साधन उपलब्ध हैं. स्ट्रेस रिलीवर क्रीम, शेम्पू, साबुन हैं. कमरे में जलाने के लिए महँगी खुश्बूदार मोमबत्तियां और अगरबत्तियां हैं, अपनी मेज और तकिये के नीचे रखने के लिए महंगे पत्थर हैं, तगड़ी फीस वाले मनोवैज्ञानिक हैं, आधुनिक योगा से लेकर आर्ट ऑफ़ लिविंग तक की दुनियाभर की थेरेपियां हैं.
कहने का मतलब यह कि तनाव अब बीमारी से ज्यादा फैशन और स्टेटस सिम्बल बन गया है. आप अपनी जेब और औकात के अनुसार जाइए और अपने स्ट्रेस का इलाज खरीद लाइए।  आपका स्ट्रेस कम हो न हो, आपने इससे निबटने के लिए नए फैशन के हिसाब से कोशिश की यह सुकून आपको अवश्य मिल जायेगा और आप अपने नए स्ट्रेस से लड़ने के लिए, फिर से कोई नई तकनीक या उत्पाद का प्रयोग करने के लिए तैयार हो जायेंगे।