Monday, May 27, 2013

मजहब नहीं सिखाता ....

अपने देश से लगातार , भीषण गर्मी की खबरें  मिल रही हैं, यहाँ बैठ कर उन पर उफ़ , ओह , हाय करने के अलावा हम कुछ नहीं करते, कर भी क्या सकते हैं. यहाँ भी तो मौसम इस बार अपनी पर उतर आया है. तापमान ८ डिग्री से १२ डिग्री के बीच झूलता रहता है. घर की हीटिंग बंद किये महीना हो गया, अब काम करते उँगलियाँ ठण्ड से  ठिठुरती हैं तब भी हीटिंग ऑन करने का मन नहीं करता, मई का महीना है। आखिर महीने के हिसाब से सर्दी , गर्मी को महसूस करने की मानसिकता से उबर पाना इतना भी आसान नहीं. बचपन की आदतें, मानसिकता और विचार विरले ही पूरी तरह बदल पाते हैं. फिर न जाने कैसे कुछ लोग इस हद्द तक बदल जाते हैं कि आपा ही खो बैठते हैं.

लन्दन में पिछले दिनों हुए एक सैनिक की जघन्य हत्या ने जैसे और खून को जमा दिया है।सुना है उन दो कातिलों में से एक मूलरूप से इसाई था, जो 2003 में औपचारिक रूप से मुस्लिम बना , और पंद्रह साल की उम्र में उसके व्यवहार में बदलाव आना शुरू हुआ, उससे पहले वह एक सामन्य और अच्छा इंसान था, उसके स्कूल के साथी उसे एक अच्छे साथी के रूप में ही जानते हैं। आखिर क्या हो सकती है वह बजह कि वह इस हद्द तक बदल गया, ह्त्या करने के बाद उसे खून से रंगे हाथों और हथियारों के साथ नफरत भरे शब्द बोलते हुए पाया गया, यहाँ तक कि वह भागा भी नहीं, इंतज़ार करता रहा पुलिस के आने का। 
कहीं कुछ तो कमी परवरिश या शिक्षा या व्यवस्था में ही रही होगी जो एक सामान्य छात्र एक कोल्ड ब्लडेड मर्डरर में तब्दील हो गया।

सोचते सोचते सिहरन सी होने लगी शिराओं में। ख्याल रखना होगा बच्चों का, न जाने दोस्तों की कौन सी बात कब क्या असर कर जाए, और कब उनकी विचार धारा गलत मोड़ ले ले और  हमें  पता भी न चले। 

ऐसे में जब बेटी किसी बात पर कहती है “आई डोंट बीलिव इन गॉड” तो गुस्से की जगह सुकून सा आता है। बेशक न माने वो अपना धर्म, पर किसी धर्म को अति तक भी न अपनाए,  ईश्वर  को माने या न माने, इंसान बने रहें  इतना काफी है। 

ऐसे हालातों में जमती रगों में कुछ गर्मी का अहसास होता है तो वो सिर्फ उन महिलाओं के उदाहरण देखकर। जिन्होंने इस घटना स्थल पर साहस का परिचय देकर स्थिति को संभाले रखने की कोशिश की। आये दिन स्त्रियों पर होते अत्याचार की कहानियों के बीच यह कल्पना से बाहर की बात लगती है कि  कोई महिला सामने रक्त रंजित हथियारों के साथ खड़े खूनी और पास पड़ी लाश को देखने के बाद भी उस जगह जाकर उस खूनी से बात करने की हिम्मत करती है। महिलाओं और स्कूली बच्चों से भरी उस चलती फिरती सड़क पर वो किसी और को निशाना न बनाए, इसलिए वह उसे बातों में लगाए रखती है.,तो कोई सड़क पर पड़े खून से लथपथ व्यक्ति को बचाने के प्रयास करती है। बिना यह परवाह किये कि उस व्यक्ति का कहर खुद उस पर भी टूट सकता है। 


क्या यह हमारे समाज में संभव था ? हालाँकि रानी झाँसी और दुर्गाबाई के किस्से हमारे ही इतिहास से आते हैं। परन्तु वर्तमान सामाजिक व्यवस्था और हालातों में सिर्फ किस्से ही जान पड़ते हैं। अपने मूल अधिकारों तक के लिए लड़ती स्त्री, जिसके  बोलने , चलने , पहनने तक के तरीके, समाज के ठेकेदार निर्धारित करते हों , क्या उसमें इतना आत्म विश्वास और इतनी हिम्मत होती कि वह इतने साहस का यह कदम उठा पाती ? क्या अगर मैं वहां होती तो ऐसा कर पाती ?
सवाल और बहुत से दिल दिमाग पर धावा बोलने लगते हैं, जिनका जबाब मिलता तो है पर हम अनसुना कर देना चाहते हैं। वर्षों से बैठा डर और असुरक्षा,व्यक्तित्व पर हावी रहती है, हमारे लिए शायद उससे उबरपाना मुश्किल हो , परन्तु अपनी अगली पीढी को तो उन हीन भावनाओं से हम मुक्त रख ही सकते हैं। बेशक आज समाज की स्थिति चिंताजनक हो , पर आने वाला कल तो बेहतर हो ही सकता है।
इन्हीं ख्यालों ने ठंडी पड़ी उँगलियों में फिर गर्माहट सी  भर दी है, और चल पड़ी हैं वे फिर से कीबोर्ड पर, अपने हिस्से का कुछ योगदान देने के लिए।

(तस्वीरें गूगल इमेज से साभार )

Monday, May 20, 2013

जमाव रिश्तों का ...

एक ज्योतिषी ने एक बार कहा था
उसे वह मिलेगा सब
जो भी वह चाहेगी दिल से
उसने मांगा
पिता की सेहत,
पति की तरक्की,
बेटे की नौकरी,
बेटी का ब्याह,
एक अदद छत.
अब उसी छत पर अकेली खड़ी
सोचती है वो
क्या मिला उसे ?
ये पंडित भी कितना झूठ बोलते हैं
.
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चाहते हैं हम कि बन जाएँ रिश्ते 
जरा से प्रयास से 
थोड़ी सी गर्मी से 
और थोड़े से प्यार से 
पर रिश्ते दही तो नहीं 
जो जम जाए बस दूध में 
ज़रा सा जामन मिलाने से .
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आखिर क्यूँ कर कोई उन्हें कहे अपना 

जो देते हैं यह बहाना अपनी दूरी का कि 
तुम्हारे करीब लोगों का जमघट बहुत है
अपना तो वो हो जो मिले जमघट में भी
अपनों की तरह, पूरे अधिकार से


Thursday, May 9, 2013

त्रिशूल,चीड़ और भांग --दिग दिगंत आमोद भरा...

 

आह हा आज तो त्रिशूल दिख रही है. नंदा देवी और मैकतोली आदि की चोटियाँ तो अक्सर दिख जाया करती थीं हमारे घर की खिडकी से। परन्तु त्रिशूल की वो तीन नुकीली चोटियाँ तभी साफ़ दिखतीं थीं जब पड़ती थी उनपर तेज दिवाकर की किरणें.

एकदम किसी तराशे हुए हीरे की तरह लगता था हिमालय। सात रंगों की रोशनियाँ जगमगाया करती थीं. एक अजीब सा सुकून और गर्व का सा एहसास होता था उसे देख. कि यह धीर गंभीर, शांत, श्वेत ,पवित्र सा गिरिराज हमारा है, कोई बेहद अपना सा. 
यूँ वो चीड़ के ऊँचे ऊँचे पेड़ भी कम लुभावने नहीं होते. सीधे, लंबे तने हुए वे वृक्ष जैसे संयम और संकल्प का पाठ पढाते हैं. बड़े बड़े आंधी तूफानों में भी सहजता और धीरता के साथ सीधे खड़े रहते हैं.अपनी प्रकृति के अनुरूप उनके फूल भी होते हैं. विभिन्न आकार के उन्हीं फूलों को ढूँढने हम घंटों उन चीड़ के जंगलों में घूमा करते थे, रोज रोज की इन बातों के बावजूद कि जंगल में बाघ है, चीड़ के आपस में रगड़ने से आग लग जाती है या जंगली चीड़ की नुकीली पत्तियाँ चुभ कर खरोंच बना देंगी पैरों में , हम दौड़ते भागते छोटे – छोटे उन पहाड़ों पर उछल कूद मचाते न जाने कितनी दूर निकल जाते फिर शाम ढलने पर होश आता तो इतनी दूर लौटने में नानी याद आ जाती परन्तु फिर भी यह क्रम रुका नहीं करता था. शायद चीड के उन फूलों को रंग कर, खूबसूरत सजावटी कोई वस्तु बनाने का उत्साह और खुशी, जंगल के उन सभी डर पर भारी पड़ा करता था.
फिर उन्हीं जंगलों में तो मिला करते थे किलमोड़े और जंगली बेर (हिसालू) भी, जिन्हें मन भर खाने के बाद अपनी छोटी छोटी जेबों में भर लाया करते थे , और घर में दोपहर को मम्मी की नज़रों से बच कर , घर के बाहर से ही एक अनगढ़ सा सिलबट्टा तलाश कर, उनकी खट्टी मिट्ठी चटनी बना करती थी.और फिर वहीँ पेड़ों से आडू और प्लम तोड़ कर या बड़े से पहाड़ी खीरे पर लगा कर चटखारे लेकर खाई जाती थी. जाने क्यों हम सब के घरवाले यह सब खाने को मना किया करते थे, हमारे स्कूल बंक करने के पेट दर्द के बहाने का कारण उन्हें हमेशा वे किलमोड़े ही लगा करते. पर राज की यह बात कोई नहीं जनता था कि उनसे कभी कोई परेशानी हमें नहीं हुई थी. सिवाय हाथ पैरों में लगी खरोंचों के, जिनके बारे में मम्मी को शायद आज तक पता नहीं.
 
खीरा , हिसालू,  किलमोड़ा 
यूँ मम्मी को यह समझाने में भी खासा वक्त लगा था. कि इस भांग में नशा नहीं होता, जिसके बीजों को नमक, हरी मिर्ची के साथ पीस कर हम मसाला बनाया करते थे और फिर उसके साथ उन बड़े बड़े नीबू की चाट, फिर नीबू में दही भी डालना मम्मी के हाजमे से बाहर की बात थी. वो तो भला हो पापा का जिन्होंने मम्मी को स्थानीय व्यंजनों पर व्याख्यान देकर समझा दिया था, हालाँकि पूरी तरह से वो आश्वस्त नहीं हो पाईं कभी.और इसीलिए वर्षों उस इलाके में रहने के वावजूद कभी चखी तक नहीं यह बेमेल चाट उन्होंने.
उन सीढ़ीदार खेतों में ही पत्थर से गाड़ा खोद कर स्टापू बनाना दुनिया का सबसे मुश्किल और महत्वपूर्ण काम हुआ करता था. अत: बारिश का होना और फिर थोड़ी देर में बंद हो जाना हमारे लिए बेहद आवश्यक था, जिससे जमीन थोड़ी मुलायम हो जाए और हम उसपर इक्का दुक्का (स्टापू ) काढ सकें. वर्ना सूखी मिट्टी में घेरा बनाकर सिर्फ गिट्टू ही खेले जा सकते थे.
वैसे वो सूखे खेत धूप में चादर बिछाकर बैठने के काम भी आते थे और ऐसे ही एक शुभ दिन हम दोनों बहने वहीँ एक पड़ोसन से, सुई से ही कान छिदवा कर आ गईं थीं. सोचा था अपनी इस बहादुरी के लिए तमगा न सही एक शाबाशी तो मिलेगी ही, परन्तु जो इन्फेक्शन पर लेक्चर मिला वो आज तक याद है.
मकानों के बीच सीढ़ीदार खेत (पिथौरागढ़)
ये लो हिमालय से खेतों तक पहुँच गए हम यूँ ही बात करते करते ….. आज किसी ने हिमालय के कुछ चित्र भेजे मेल में, तो रानीखेत, पिथौरागढ़ में बिताए बचपन की यादों का यह पिटारा खुल पड़ा.
काश लौट आता फिर से वो बचपन.
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Friday, May 3, 2013

चीखते प्रश्न...

कैसे कहूँ मैं भारतीय हूँ 

क्यों करूँ मैं गुमान 
आखिर किस बात का 
क्या जबाब दूं उन सवालों का 
जो “इंडियन” शब्द निकलते ही 
लग जाते हैं पीछे …
वहीँ न , 
जहाँ रात तो छोड़ो 
दिन में भी महिलायें 
नहीं निकल सकती घर से ?
बसें , ट्रेन तक नहीं हैं सुरक्षित
क्यों दूधमुंही बच्चियों को भी 
नहीं बख्शते वहां के दरिन्दे ?
क्या बेख़ौफ़ खेल भी नहीं सकतीं 
नन्हीं बच्चियाँ ?
कैसे जाते हैं बच्चे स्कूल ?
क्या करती हैं उनकी मम्मियाँ 
क्या रखती हैं हरदम उन्हें 
घर के अन्दर बंद 
या फिर बाहर भी नहीं करतीं 
एक पल को नज़रों से ओझल.
क्या हैं वहां कोई नागरिक अधिकार? 
अपने किसी नागरिक की क्या 
कोई जिम्मेदारी लेती है सरकार ?
क्यों एक भी मासूम को नहीं बचा पाती 
दुश्मनों के खूनी शिकंजे से ?
कैसे वे मार दिए जाते हैं निर्ममता से 
उनकी जेलों में ईंटों से 
क्या होते है वहां पुलिस स्टेशन?
क्या बने हैं कानून और अदालतें?
या बने हैं सिर्फ मंदिर और मस्जिद 
गिरजे और गुरुद्वारे……
ओह.. बस बस बस ..
चीखने लगती हूँ मैं 
लाल हो जाता है चेहरा 
बखानने लगती हूँ 
अपना स्वर्णिम इतिहास 
सुनाने लगती हूँ गाथाएँ महान 
उत्तर आता है ..
ओह !! इतिहास है 
वर्तमान नहीं, 
और भविष्य का तो 
पता ही नहीं..
मैं रह जाती हूँ मौन,स्तब्ध 
और चीखने लगते हैं 
फिर से वही प्रश्न..