एक दिन उसने कहा कि
नहीं लिखी जाती अब कविता
लिखी जाये भी तो कैसे
कविता कोई लिखने की चीज़ नहीं
वो तो उपजती है खुद ही
फिर बेशक उगे कुकुरमुत्तों सी,
या फिर आर्किड की तरह
हर हाल में मालकिन है
वो अपनी ही मर्जी की।
कहाँ वश चलता है किसी का,
जो रोक ले उसे उपजने से।
हाँ कुछ भूमि बनाकर
उसे बोया जरूर जा सकता है।
बढाया भी जा सकता है,
कुछ दिमागी खाद पानी डाल कर .
संवारा भी जा सकता है,
कुछ कृत्रिम संसाधनों से।
फिर वो कविता जैसी तो होती है,
पर कविता नहीं होती।
कविता तो उगेगी खुद ही,
कभी भी, कहीं भी ..
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