इस शहर से मेरा नाता अजीब सा है। पराया है, पर अजनबी कभी नहीं लगा . तब भी नहीं जब पहली बार इससे परिचय हुआ। एक अलग सी शक्ति है शायद इस शहर में कि कुछ भी न होते हुए भी इसे हमने और हमें इसने पहले ही दिन से अपना लिया। अकेलापन है, पर उबाऊ नहीं है। सताती हैं अपनों की यादें, कचोटता है इतिहास, बेबस कर देती हैं दूरियां फिर भी …जाने क्या है कि इससे जुड़ा हुआ ही महसूस करती हूँ . एक सुरक्षा कवच की तरह यह सहेजे रहता है मुझे। जब भी कभी जिन्दगी से निराशा सी हुई इसने ही संभाला है, फैला देता है ये अपनी अकपट सी बाहें और मैं अपनी सारी नश्वरता उसे सौंप देती हूँ , हो जाती हूँ हवा सी हलकी फिर से बहने को उसी दिशा में जिस में चलना चाहिए मुझे. इस शहर ने मुझे सपने नहीं दिए पर उन तक पहुंचने की राह दिखाईं और फिर उन्हें पूरा करना सिखाया. इस शहर ने मुझे मुझतक पहुंचाया.मुझसे मेरा परिचय कराया और खुद से दोस्ती करना भी सिखाया.
Friday, April 19, 2013
थोड़ा अपना सा,थोड़ा बेगाना सा ..
कुछ भी अतिरेक नहीं होता इस शहर में . समय पर सब कुछ होता है , व्यवस्थित सा। यहाँ तक कि मौसम भी कहे अनुसार ही चलता है, अपने ही समय पर डेफोडेल आते हैं और अपने ही समय पर गुलाब। सर्दी और गर्मी की भी अपनी सीमायें हैं . वो भी एक दूसरे के क्षेत्र में हस्तक्षेप नहीं करतीं फिर आदमी की तो विसात ही क्या। सब कुछ संतुलित. यहाँ जिन्दगी से डर नहीं लगता। कल ऐसा होगा तो क्या होगा ये खौफ नहीं होता। उसने देखा तो क्या सोचेगा यह ख़याल नहीं आता। सड़क पर अपने ही साए से भय नहीं लगता। नहीं होती लाठी हाथ में पर पीठ भी झुकी नहीं होती। बस जरा इसके स्वभाव में ढलने की बात है फिर कुछ भी तो असहज नहीं लगता।
शायद इसलिए जब जब जिन्दगी की शीत लहर ने छुआ एक धूप की किरण इसने हमेशा पहुंचा दी सहलाने को। गरमाने को मन और देने को हौसला चलते जाने को। इस बेगानी धरती पर अब अपने ही बेगाने लगे तो लगें पर यह शहर अपना सा ही लगता है।आलम यह कि अपनों से दूरियों और यायावरी की आदत के वावजूद यह शहर अब घर लगता है। अब कहीं से भी आकर इसकी सरहद के अन्दर पहुंचना सुकून देता है .
ऐसा ही है यह शहर लन्दन – कुछ कुछ बेगानों सा फिर भी अपना सा , जाना पहचाना सा। । ये एकदम रुई से बादल हाथों की पहुँच से बस थोडा सा ही दूर, एकदम अभी अभी धुल कर आया जैसे, नीला स्वच्छ आसमान, बादलों के बीच में से शरारती बच्ची की तरह झांकती यह धूप और नादान बच्चे की तरह कहीं भी, कभी भी टपक पड़ने वाली ये बूँदें , सब अपनी सहेलियां लगने लगीं हैं,जिनके आसपास रहने से उनकी महत्ता पता नहीं लगती पर दूर जाते ही फिर मिलने की तड़प सी हो आती है।
ऐसे ही सुकून सा आ जाता है इस शहर से गले मिलकर .
हाँ यह शहर अब अपना अपना सा लगता है।
Monday, April 15, 2013
बड़ा हुआ बच्चा.
एक मित्र को परिस्थितियों से लड़ते देख, उपजी कुछ पंक्तियाँ
पढ़ा था कहीं मैंने
किसी का लिखा हुआ कि
“शादी में मिलता है
गोद में एक बच्चा
एक बहुत बड़ा बच्चा”.
अक्षम हो जाते हैं जब
उसे और पालने में
उसके माता पिता,
तो सौंप देते हैं
एक पत्नी रुपी जीव को.
जिसे देख भाल कर ले आते हैं वे
किसी दूसरे के घर से .
फिर वह पत्नी पालती है,
उस बड़े हो गए बच्चे को.
झेलती है उसकी सारी नादानियां
भूल कर खुद को .
लगा देती है सारा जीवन
उसे संवारने में फिर से.
खो देती है अपना अस्तित्व
बचाने के लिए उस बड़े बच्चे का अहम्.
खुद बन जाती है छोटी
और होने देती है उसे बड़ा.
वो बड़ा बच्चा होता रहता है बड़ा
और नकार देता है उसका योगदान
क्योंकि वो तो छोटी है.फिर
उसे कैसे बड़ा कर सकती थी वो भला.
Tuesday, April 2, 2013
उगतीं हैं कवितायें...
एक दिन उसने कहा कि
नहीं लिखी जाती अब कविता
लिखी जाये भी तो कैसे
कविता कोई लिखने की चीज़ नहीं
वो तो उपजती है खुद ही
फिर बेशक उगे कुकुरमुत्तों सी,
या फिर आर्किड की तरह
हर हाल में मालकिन है
वो अपनी ही मर्जी की।
कहाँ वश चलता है किसी का,
जो रोक ले उसे उपजने से।
हाँ कुछ भूमि बनाकर
उसे बोया जरूर जा सकता है।
बढाया भी जा सकता है,
कुछ दिमागी खाद पानी डाल कर .
संवारा भी जा सकता है,
कुछ कृत्रिम संसाधनों से।
फिर वो कविता जैसी तो होती है,
पर कविता नहीं होती।
कविता तो उगेगी खुद ही,
कभी भी, कहीं भी ..
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