Monday, March 25, 2013

रंगों का मेला-देश काल से परे...

होली आने वाली है। एक ऐसा त्योहार जो बचपन में मुझे बेहद पसंद था। पहाड़ों की साफ़ सुथरी, संगीत मंडली वाली होली और उसके पीछे की भावना से लगता था इससे अच्छा कोई त्योहार दुनिया में नहीं हो सकता।फिर जैसे जैसे बड़े होते गए उसके विकृत स्वरुप नजर आने लगे। होली के बहाने हुडदंग , और गुंडा गर्दी जोर पकड़ने लगी और खुशनुमा रंगों की जगह कीचड , तारकोल और कांच वाले रंगों ने ले ली और धीरे धीरे मेरे मन में होली का उल्लास कम होता गया। परन्तु फिर भी कोई भी परम्परा, त्योहार या रिवाज़ जो अपने देश में अपनों के बीच रास नहीं आते, वहीँ अपनों से दूर, पराये देश में, पराये कहे जाने वोले लोगों के बीच उनकी कमी कचोटने लगती है। और देश काल परिस्थितियों के अनुकूल हम वह त्योहार मना ही लेते हैं।



यूँ देखा जाये तो अपने पराये की यह भावना सिर्फ एक मानसिकता भर है। जहाँ तक मुझे इस घुमक्कड़ी और अप्रवास ने सिखाया और अनुभव कराया है वह यह कि, मानो तो पूरी दुनिया एक जैसी है न मानो तो अपना पड़ोसी भी एलियन लगेगा। मनुष्य हर जगह एक जैसे ही हैं। सभी के शरीर में दिल,  दिमाग निश्चित जगह पर ही होता है,त्वचा का रंग बेशक अलग अलग हो परन्तु खून का रंग सामान ही होता है। हाँ कुछ भौगोलिक परिस्थितियों के अनुसार उनके रहन सहन के ढंग अवश्य बदल जाते हैं और फिर उनके अनुसार कुछ सोचने का ढंग भी,परन्तु मूलत: देखा जाये तो हर जगह , हर मनुष्य एक जैसा ही होता है। 
इसी तरह हम अपने त्योहारों को कुछ भी नाम दें, किसी भी तरह मनाएं परन्तु बाकी की दुनिया में भी वैसे ही त्योहार समान भावना के साथ ही मनाएं जाते हैं। हाँ उनका रूप कुछ भिन्न अवश्य हो सकता है परन्तु मूल भावना सामान ही होती है. 
ऐसे ही बसंत ऋतु में आने वाला हमारा होली का त्योहार है जिसके मूल में है आपसी प्रेम और सद्भावना की भावना, निज द्वेष त्याग कर मानवता की भावना, पकवान, प्रेम और मस्ती , बुराइयों को जलाकर अच्छाइयों के साथ एक नई शुरुआत। और इन्हीं सब भावनाओं के साथ बाकी दुनिया के देशों में भी बसंतोत्सव मनाये जाते हैं। उनके नाम अलग हैं, रूप अलग हैं परन्तु मूल भावना एक ही है. और जिनमें होली के सबसे नजदीक है –


थाईलैंड का -सोंग्क्रण जल महोत्सव – जो शुरू तो हुआ था अपने से बड़ों के सम्मान में उनके हाथ पर सुगन्धित पानी छिड़कने के रूप में, परन्तु कालांतर में इसने होली की ही तरह एक दूसरे पर पानी फेंकने का रूप ले लिया है। कई जगह पर नए साल की शुरुआत का यह उत्सव अप्रेल के मध्य में उस समय आता है जब उस इलाके में सबसे अधिक गर्मी पड़ती है और तब वहां के नागरिक एक दूसरे पर विभिन्न माध्यमों से पानी की बौछारें डाल कर इस त्योहार को मनाते हैं.



ऐसा ही कुछ एक त्योहार फरवरी महीने में इटली के एक छोटे से शहर इव्रेया में “संतरे की लड़ाई” के नाम से मनाया जाता है। जिसमें लोग अपनी अपनी टीम बनाकर एक दूसरे पर किसी बम की तरह संतरे फेंकते हैं।

वहीँ वेनिस में फरवरी – मार्च में एक बेहद खूबसूरत कार्निवाल आयोजित किया जाता है जहाँ लोग किसी भी ऊंच – नीच या अमीरी गरीबी के भेदभाव को भुला कर एक साथ हिस्सा लेते हैं। चेहरे पर विभिन्न खूबसूरत नकाब लगाते हैं और आकर्षक परिधान पहनते हैं। यह कार्निवाल दुनिया के सबसे आकर्षक कार्निवाल में गिना जाता है।

ताइवान में बसंत का यह त्योहार फरवरी माह में ही नई रौशनी और इच्छाओं के रूप में मनाया जाता है जिसे लालटेन महोत्सव कहते हैं। इस उत्सव पर नागरिक आग की लालटेन पर अपनी इच्छाओं को लिख कर एक साथ आकाश में छोड़ते हैं जिससे आसमान पर तैरती रौशनी की लालटेन से एक बेहद आकर्षक नजारा उत्पन्न होता है. 


रियो डी जनेरियो, ब्राजील का कार्निवल: फरवरी या मार्च महीने में पूरे सप्ताह असाधारण परेड, नृत्य, रंग, और शराब के साथ मनाया जाता है और यह दुनिया के सबसे रोमांचक और प्रसिद्ध त्योहारों में से एक है.


हमारे पडोसी देश चीन में भी बसंत के आगमन पर उत्सव पूरे सप्ताह पकवानों, दावतों , नए परिधानों, आतिशबाजी और परिवार के इकट्ठे होने के रूप में मनाया जाता है।


स्पेन में भी मार्च में पड़ने वाला पांच दिवसीय लॉस फल्लास नाम का यह मेला बेहद आकर्षक होता है जहाँ दावतें,आतिशबाजी, परेड, सांडों की लड़ाई और अन्य अजीबो गरीब खुशमिजाज खेल शामिल होते हैं .

ऐसे ही जर्मनी, फ्रांस और बेल्जियम में भी कभी धूम धाम से बसंत के आगमन का उत्सव मानया जाता था परन्तु अब यह परंपरा जर्मनी के कुछ समुदायों तक ही सिमित रह गई है। 


यानि कहने का तात्पर्य है कि, मानव समुदाय कहीं भी हो, मौसम और परिवेश के अनुसार त्योहार बना ही लेता है, जो एक दूसरे से ही कहीं न कहीं प्रेरित होते हैं इसलिए कुछ न कुछ समानता लिए हुए भी होते हैं 


इसीतरह त्योहार कहीं के भी हों उनमें पकवानों का महत्व हर जगह ही होता है ,और वे भी अलग अलग नाम से पुकारे जाने और अलग रूप में परोसे जाने के वावजूद मूलत: काफी मिलते जुलते हैं। अब इन पकवानों की समानता पर फिर कभी। 

फिलहाल आप सभी को होली की अशेष शुभकामनाएं .

Tuesday, March 19, 2013

एक दिन "लेखनी सानिध्य" में ...

मार्च ख़तम होने को है पर इस बार लन्दन का मौसम ठीक होने का नाम ही नहीं ले रहा। ठण्ड है कि कम होने को तैयार नहीं और ऐसे में मेरे जैसे जीव के लिए बहुत कष्टकारी स्थिति होती है। पैर घर में टिकने को राजी नहीं होते और मन ऐसे मौसम में बाहर निकलने से साफ़ इनकार कर देता है। ऐसी परिस्थितियों में अगर कहीं से निमंत्रण आ जाये तो मैं अपने मन को बहाना देकर ठेलने में कामयाब हो जाया करती हूँ। आखिर यही हुआ। बर्मिंघम में रहने वाली साहित्यकार, शैल अग्रवाल (लेखनी डॉट नेट वाली ) जी का सस्नेह आग्रह आ पहुंचा कि 17 मार्च रविवार को एक काव्य गोष्ठी रख रही हूँ कुछ लोगों के साथ। अपनी पसंदीदा कविताओं के साथ आ जाओ। अब मन को घर के बाहर धकेलने का मौक़ा तो मिल गया पर बाधाएँ और बहुत थीं, – दूसरा शहर , टिकट की बुकिंग , बच्चों को छोड़ने का इंतजाम और कम से कम ४ घंटे का अकेले सफ़र उसपर सुबह छ: बजे घर से निकलना, मतलब पांच बजे उठना. इसी उहापोह में कुछ वक़्त निकल गया। फिर डॉ कविता वाचक्नवी जी से बात हुई तो रास्ता निकला कि उन्हीं के साथ अभी भी टिकट मिल सकता है तो आनन-फानन में ढूंढा और कम से कम लन्दन – बर्मिंघम की टिकट उनके ही साथ मिल गई।एक तरफ से अकेले आना इतना तकलीफ देह नहीं होगा,फिर काफी अरसे से कोई हिंदी साहित्य का कार्यक्रम नहीं हुआ था, बहुत से लोगों से मिलने का भी मन था यह सोच कर हमने जाने के फैसला कर लिया।

और जैसी की उम्मीद थी कविता जी के साथ वक़्त न जाने कहाँ बीत गया। हालाँकि रास्ते भर बर्फबारी हमारे साथ साथ चली .परन्तु बस के अन्दर कविता जी की बातें खासी गर्माहट लिए हुए थीं और मेरे लिए तो जैसे एक अलग युग की पहचान.
खैर बर्मिंघम पहुँच कर फिर एक लोकल बस लेकर हम शैल जी के घर पहुंचे और उसके बाद की जानकारी इन चित्रों के जरिये –
दिव्या माथुर जी के साथ , बस आकर बैठे ही हैं अभी।
डॉ सतेन्द्र श्रीवास्तव (केम्ब्रिज यूनिवार्सिटी के पूर्व प्रवक्ता)। निखिल कौशिक (फिल्मकार )और बर्मिघम के एक सर्जन और कवि. 
टीका लगाए हुए राजीव जी,जिन्होंने गोष्ठी का सञ्चालन किया और बीच में शैल जी 
कविता जी और जर्मन मूल की हिंदी साहित्यकार जूटा ऑस्टिन 

शैल जी ने दीप जलाने के लिए बुलाया सभा में उपस्थित वरिष्ठतम (डॉ सतेन्द्र श्रीवास्तव) और कनिष्ठतम को 🙂 , तो सौभाग्य मिला मुझे भी।
पर कहीं सौभाग्य तो कहीं नुकसान कनिष्ठतम होने के कारण रचना सुनाने का आगाज भी मुझे ही करना पड़ा।

शुरू हुआ कार्यक्रम। एक से बढ़कर एक रचनाएं . और मंत्रमुग्ध श्रोता।

भोजन और फिर चाय। कहने की जरूरत नहीं, तस्वीरें खुद कर रही हैं अपना हाल (स्वाद) बयां।
सभा अपनी समाप्ति पर , परन्तु शैल जी का स्नेह कभी समाप्त नहीं होता .
और एक खूबसूरत दिन , बेहतरीन रचनाओं, रचनाकारों से मिलकर और शैल जी का आभार व्यक्त करते,हम लौट आये अपने घर…. अकेले …
हम यूँ फसलों से गुजरते रहे और स्वरलहरियां पीछा करती रहीं :).

Wednesday, March 13, 2013

अब और क्या ??

भाव अर्पित,राग अर्पित 

शब्दों का मिजाज अर्पित 
छंद, मुक्त, सब गान अर्पित 
और तुझे क्या मैं अर्पण करूं।

नाम अर्पित, मान अर्पित 
रिश्तों का अधिकार अर्पित 
रुचियाँ, खेल तमाम अर्पित 
और तुझे क्या मैं अर्पण करूँ 

शाम अर्पित,रात अर्पित 
तारों की बारात अर्पित 
आधे अधूरे ख्वाब अर्पित 
और तुझे क्या मैं अर्पण करूँ।

रूह अर्पित, जान अर्पित 
जिस्म में चलती सांस अर्पित 
कर दिए सारे अरमान अर्पित 
अब और क्या मैं अर्पण करूँ।

Wednesday, March 6, 2013

विचारों की मनमानी....

सुना है, लिखने वाले रोज नियम से २- ४ घंटे बैठते हैं। लिखना शुरू करते हैं तो लिखते ही चले जाते हैं। मैं आजतक नहीं समझ पाई कि उनके विचारों पर उनका इतना नियंत्रण कैसे रहता है। मैं तो यदि सोच कर बैठूं कि लिखना है तो दो पंक्तियाँ न लिखीं जाएँ .


मेरे विचारों की आवाजाही तो जिन्दगी और मौत की तर्ज़ पर पूरी तरह ऊपर वाले पर निर्भर है। यूँ शायद सभी के होते हों पर उनके घरों में छत होती हो, और ऊपर जाकर वे उतार लाते हों ख्याल। पर यहाँ तो कमबख्त छत भी ऐसी नहीं होती की कोई चढ़ जाए, सीधे दरवाजे के रास्ते आते नहीं, ले देकर एक खिड़की है जिसके रास्ते आ जाया करते हैं कभी उनका मूड हो तो. कभी कभी तो ऐसे टुकड़ों और वैराइटी में, कि दिमाग में उनका मेला सा लग जाता है .
और हर तरह के छोटे मोटे विचार गड्ड मड्ड हो जाया करते हैं. ऐसे में कुछ दोस्त कहते हैं कि अच्छा है, विचारों का विस्फोट होकर निकलेगा रचनाओं में, परन्तु मुझे डर लगता है कि कहीं सब मिक्स होकर कीचड़ सा न बह जाये. 

यूँ जब ये विचार आते तो ऐसे ताबड़ तोड़ कि मुझ जैसी महा जल्दबाज को भी शब्दों में ढालने में मुसीबत हो जाती है।और कभी कभी तो ऐसी जगह आते हैं कि संभाला जाना भी संभव नहीं होता. जैसे कल बिना बताये मेट्रो में धावा बोल दिया।अब उन्हें लिखूं तो कहाँ , एक तो इस तथाकथित विकसित देश में मेट्रो में फ़ोन नेटवर्क नहीं आता जो उसी पर लिख लो, पर्स खंखाला तो “लड़कियों का पर्स” से इतर एक टुकडा तक कागज का नसीब नहीं हुआ।पहली बार और्ग्नाइज पर्स रखने का एक नुकसान समझ में आया। तभी बराबर बैठे एक अंकल जी पर नजर पड़ी, एक रूसी अखबार गोद में लिए बैठे थे।कोई “खूबसूरती और स्वास्थ्य “(क्रसाता ई ज्द्रोवे) लेख खुला हुआ था , जाहिर है पढ़ तो रहे नहीं थे।मन किया की उन्हीं से वह अखबार मांग लूं .यूँ भी रूसी में लिखा देख कर बड़ी अपनी अपनी सी फीलिंग आ रही थी .फिर लगा – रूसियों से आजकल कुछ मांगना बेशक अखबार ही क्यों न हो , बड़ी भिखारी टाइप लगोगी यार शिखा , जाने दो .क्या पता उतरते हुए यहीं छोड़ जाएँ .इसी उहा पोह में, जिस स्टेशन पर मुझे उतरना था वह निकल गया , २ स्टेशन बाद होश आया हड़बड़ी में उतरी तो विचार उस मेट्रो के डिब्बे में ही छूट गए। अब बचपन में खाए बादाम, सारे अब तक कंज्यूम हो चुके हैं तो एक बार जो गए ख्याल, वापस उनके आने की संभावनाएं नहीं रहतीं।सो मेट्रो जैसी जगह में उनका आना खतरनाक होता है . पर वो सुनते ही कहाँ हैं, अपनी ही चलाते हैं हमेशा।जब मूड होगा उनका आयेंगे- जायेंगे। बैठे रहो तुम तकते रहो राह उनके मूड की।

काश कभी मौका मिले तो कहूँ उनसे कि यार रहम करो, और कुछ नहीं तो बढ़ती  उम्र का ही लिहाज कर लो ,कुछ तो नोटिस देकर आया करो क़ि कम से कम एक कागज पेन का जुगाड़ तो कर सकूँ .

Monday, March 4, 2013

पन्नों में सिमटा रूस है “स्मृतियों में रूस”

“स्मृतियों में रूस” को प्रकाशित हुए साल हो गया. इस दौरान बहुत से पाठकों ने, दोस्तों ने, इस पर अपनी प्रतिक्रया से मुझे नवाजा. मेरा सौभाग्य है कि अब भी, जिसके हाथों में यह पुस्तक आती है वो मुझतक किसी न किसी रूप में अपनी प्रतिक्रिया अवश्य ही पहुंचा देते हैं.पिछले दिनों दिल्ली के स्वतंत्र पत्रकार शिवानंद द्विवेदी”सहर ने इस पुस्तक की विस्तृत समीक्षा की, जिसके कुछ अंश दैनिक जागरण ने प्रकाशित किये.वही  समीक्षा का सम्पूर्ण स्वरूप में आपकी नजर है.

पन्नों में सिमटा रूस है “स्मृतियों में
रूस”
स्मृतियों में रूस हमेशा पाठक की स्मृतियों में
उसी तरह बनी रहेगी जिस तरह मानो उसे भूलने की कला आती ही नहीं हो,या भूलने की कला
का माहिर खिलाड़ी होते हुए भी हमेशा उसे ना भुल पाने की वजह ढूंढता
फिरता हो
! पाठक मन यत्र-तत्र लिखता-पढ़ता हुआ, कुछ खोजता सा, कुछ गढता सा भटकता रह जाता है
कि स्मृतियों में रूस में आखिर ऐसा क्या है कि पाठक की स्मृति में यह संस्मरण
पुस्तक हमेशा बनी  रहती है !लन्दन में रह
रहीं लेखिका शिखा वार्ष्णेय जी की संस्मरण पुस्तक “स्मृतियों में रूस” मुझे मेरे
दफ्तर के पते पर पहुचने के दो दिन बाद मिली, क्योंकि मै अवकाश पर था ! पुस्तक
मिलने के उपरान्त एक सरसरी निगाह डालना एक स्वाभाविक प्रक्रिया होती है बेशक पाठक
द्वारा वो विस्तार से बाद में पढ़ी जाय ! मैंने भी दफ्तर में ही सरसरी निगाह से
एकाध पन्ने पलटना शुरू किया, लेकिन एक एक पंक्तियाँ  एक के बाद एक कुछ यूँ कड़ियों में जुडती गयीं कि
मेरा पाठक मन पंक्तियो,अवतरणों और अध्यायों के बनाये साहित्य जाल में पूरी तरह
नतमस्तक हो चुका था ! पंक्ति दर पंक्ति आगे बढ़ने और  हर 
पंक्ति को जल्दी पढ़ लेने की होड़ ने मेरे मन को बिना पूरा पढ़े रुक जाने  की इजाजत देने से इनकार कर दिया   !
साहित्य और शब्दों की क़ैद में कैदी बन जाने का अनुभव बहुत कम मिलता है, इसलिए मै
उस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था ! शब्द बांधे जा रहे थे और मेरा पाठक मन बंधा जा
रहा था !  
              एक
भारतीय परम्परा और आदर्श संस्कृति में पली बढ़ी लड़की का घर से पराये देश अध्यन करने
हेतु जाते समय  उत्पन्न हुई पारिवारिक
मनोदशा एवं परिजनों की चिंता का बड़ा ही व्यवहारिक पक्ष पुस्तक के प्रथम अध्याय
“दोपहर और नई सुबह” में देखने को मिलता है ! माँ की स्वाभाविक चिंताएं और पिता का
पुत्री के प्रति खुद को संतोष दिलाने वाला वो आत्मविश्वास एवं  आभासी परिणामों के प्रति परिजनों को होने वाली
चिंताओं का सुंदर समन्वय भी इसी अंश में खुल कर मुखरित हुआ है ! इन्ही चिंताओं को
शब्दों में उकेरते हुए लेखिका लिखती हैं “ अब जब अचानक मेरा चयन रूस जाने के लिए हो
चुका था तो ये समझ नहीं पा रही थी कि खुश होऊं,डरूं या फिर…अजीब मनोदशा !” लेखिका
के ये शब्द एक तरफ जहाँ प्रेम,विछोह और परिजनों की चिंता को बखूबी प्रस्तुत करते
हैं तो वहीँ दूसरी तरफ इन्ही शब्दों में भारतीय परिवारों के रुढियों एवं रुढियों
से लड़ने सहित तमाम मनोभावों के भी दर्शन होते  है ! लेखिका के इस डर में एक तरफ जहाँ भारतीय
समाज की रूढियां उभर कर सामने आती हैं तो वहीँ रूस जाने के फैसले पर कायम रहना इन
रुढियों को झुठलाने के साहस को दिखाता है !
पुस्तक के अगले अध्याय का सबेरा हमें रूस
की चाय के साथ देखने को मिलता है जहाँ भौगोलिक विषमताओं में भाषाई समस्या का बड़ा
ही पुष्ट उदाहरण लेखिका के संस्मरण का हिस्सा बन जाता है ! चाय को रूस में भी चाय
ही बोलते हैं यह बात शायद बहुत कम लोगों को पता हो ! भाषाओं को लेकर हमारे मन में
कोई पूर्वाग्रह का भाव होता है या भाषाई विषमता का असर कि लेखिका एवं उनके मित्रों
द्वारा रूस में चाय को हर उस नाम से माँगा जाता है जिसे रूसी वेटर नहीं समझ पाती !
लेकिन जैसे ही लेखिका के मित्र द्वारा झुंझलाते हुए यह कहा जाता है कि “चाय दे दे
मेरी माँ”……वेटर तुरंत समझ जाती है ! भाषा के दृष्टिकोण से मेरे मन में यहाँ
एक अतिरिक्त सवाल यह उठता है कि चाय शब्द  भारत से रूस गया है या रूस से भारत आया ?  खैर, इसे तमाम विषमताओं के बीच की भाषाई समानता
ही कह सकते हैं जो कि विश्व के दो अलग-अलग संस्कृतियों  को जोड़ने का काम चाय जैसे शब्द द्वारा संभव हो
पाता है !
              संस्मरण
की स्मृति यात्रा पर निकलीं लेखिका, रूस के एक शहर वोरोनिश को करीब से  टटोलते हुए उसमे अपने गृह नगर कानपुर को तलाश
लेती हैं !व्यावहारिकता का एक सबसे बेहतर चरित्र यह है  कि  दूर
दराज में जहाँ हमे हमारे अपने कम ही मिलते हैं तो हम तमाम विषमताओं को दरकिनार कर
छोटी-छोटी समानताओं में अपनापन ढूढ लेते है !  इसका अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रूस
जैसे देश में भी लेखिका ने एक कानपुर ढूढ लिया ! प्राथमिक स्तर पर भाषाई विषमता की
समस्या के चलते लेखिका को एक तरफ जहाँ 
भाषा की  दिक्क्त का सामना करना पड़
रहा था तो वहीँ दुभाषिये की जरुरत कदम कदम पर पड़ रही थी ! शायद अंतर्राष्ट्रीय
भाषा के नाम से जानी जाने वाली अंग्रेजी अभी वहाँ अपना वजूद नहीं बना पाई थी ! हालाकि
लेखिका ने इस पुस्तक में इस बात का जिक्र किया है कि व्यक्ति के नामो का सरलीकरण भारत
जैसे ही रूस में भी कर लिया जाता है ! इसमें कोई दो राय नहीं कि  लेखिका के लिए यह शायद मुश्किल भरा किन्तु
एतिहासिक दौर था क्योंकि वो नब्बे का शुरुआती दशक था जब वो जब रूस प्रवास पर थी और
उसी दौरान रूस में आंतरिक हालात भी बहुत बिगडने लगे थे! आर्थिक हालात चरमरा गए थे
,अमेरिकी प्रभाव कायम होने लगा था और सोबियत टूट रहा था  ! तत्कालीन परिस्थितियों के आधार पर आज मै यही
कह सकता हूँ कि उन विषम परिस्थितियों का गवाह बनना लेखिका के लिए एक साहसिक ही
नहीं बल्कि  ऐतिहासिक स्मृति के रूप में भी
उनके  जीवन का महत्वपूर्ण हिस्सा होगा ! लेखिका
द्वारा लिखे गए संस्मरण में तत्कालीन परिस्थितियों में  आर्थिक तंगी से जूझते रूस और बदहाल देश का
चित्रण भी बखूबी देखने को मिलता है !रूस के उन तत्कालीन बदलावों को भी लेखिका की
कलम ने बड़ी बारीकी से रेखांकित किया है और लेखिका के इसी रेखांकन ने  साहित्य के संस्मरण विधा की इस कृति को  अत्यधिक प्रभावशाली बनाता बनाने का काम किया है
!   इस कृति की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें
संस्कार और संस्कृति के साथ-साथ देशकाल और वातावरण तक को लेखिका द्वारा शब्दों में
सहेजने का सफल प्रयास किया गया है और इस बात के प्रति खास ख्याल रखा गया है
कि  संस्मरण के हर संभव दृश्य को कागजों पर
बखूबी गढा जा सके !इस पुस्तक के माध्यम से रूस के कल पक्ष पर नजर डालने पर ऐसा
प्रतीत होता है कि  फिल्मो के मामले में भारतीय
कलाकारों की फिल्मे उस दौर में भी वहाँ खूब प्रचलित थी और देखी जाती थी ! रूस के
नागरिक शायद हमारी अपेक्षा ज्यादा कलाप्रेमी हैं यही कारण है कि वहाँ हिन्दी
फिल्मे भी प्रचलित रहीं हैं  ! पुरे
संस्मरण में कई बार ऐसा भी समय आया जब लेखिका को अपने भारतीय संस्कृति के मूल्यों
से समझौता करने की मजबूरियों का भी प्रस्ताव आया ! शायद इसी अनुभव को साझा करते
हुए लेखिका ने जिक्र किया है कि वहाँ हर मर्ज के इलाज के रूप में वोदका का सुझाव
आम था ! खाने पीने और नाचने में खुशी तलाशने का रुसी फार्मूला अब भारत में भी आम
हो चुका है लेकिन रूस इसे किस नजरिये से समझता है ,यह कहना मुश्किल है ! जिस वोदका
को ना लेने की मजबूरियां भारतीयों को आसानी से समझाई जा सकती थी उन्ही मजबूरियों
और कारणों को रुसी मित्रों को समझाना उतना ही मुश्किल हो जाता था ! मांस वहाँ खूब
प्रचलित था ! रूस में पढ़ाई के साथ-साथ स्वतंत्र लेखन में हाथ लगाने और अखबारों में
प्रकाशित लेखों का जिक्र भी लेखिका के संस्मरण से अछूता नहीं रहा है ! रूस की
राजधानी मास्को की सुंदरता और वहाँ के संसकृति ,संगीत ,संगीत प्रेमियों ,नृत्य कला
आदि को भी लेखिका के कलम की बारीक निगाहों ने करीब से पढ़ा है जो इस पुस्तक को सीधे
रूस से जोडने का काम करती है !लेखिका की कलम रूस के ऐतिहासिक तथ्यों को समझते और
जिक्र करते हुए टालस्टाय और चेखव की कहानियों में भारत दर्शन को भी तलाशती हैं
,जहाँ उन्हें गाँधी और अहिंसा के प्रभाव् का दर्शन होता है !
 अपने हर घड़ी 
और हर पल में रूस को समझने की कोशिश करती यह  भारतीय लेखिका अपने अनुभव को जहाँ विराम देती
है वहीँ से पाठक का मन रूस को निहारने पर विवश होता है ! लेखिका ना तो वहाँ की
बबुश्का को भूली हैं, ना ही वहाँ की चाय को और ना ही उन दोस्तों सहेलियों को जो
शौक से भारतीय साडियां पहन लेती थीं ! इस संस्मरण पुस्तक में अनुभवों,तथ्यों और
चित्रों का शानदार समन्वय जिस तरह से लेखिका द्वारा प्रस्तुत किया गया है ,पाठक
हमेशा शिकायत करेगा लेखिका से कि थोड़ा और होता तो कितना अच्छा होता ! बेस्वाद पड़े
सफ़ेद पन्नों पर रूस का स्वाद लेखिका ने अपनी कलम से कुछ यूँ विखेरा है कागज के बने
मुर्दा पन्ने हर बार जी उठते हैं और पाठक के मन एक रूस बनकर घुस जाते हैं ! हर वो
व्यक्ति जो शायद रूस ना जा पाए एक बार इन पन्नों को निहार ले शायद एक रूस उस तक
चलकर खुद आ जाए ! अंत में मै एक पाठक की प्रतिक्रिया के तौर पर यही कहूँगा कि इस
दुनिया में दो रूस बसते हैं एक ,जो एशिया और यूरोप के भूभाग पर तो दूसरा
“स्मृतियों में रूस के इन पचहत्तर पन्नों में”….! धन्यवाद

पुस्तक : स्मृतियों में रूस 
मूल्य : ३०० रुपए (सजिल्द)
लेखक : शिखा वार्ष्णेय 
प्रकाशक : डायमंड पॉकेट बुक्स 

एक्स-३०, ओखला इंडस्ट्रियल एरिया, फेज-२, नईदिल्ली-११००२

or
http://www.infibeam.com/Books/smritiyon-mein-roos-hindi-shikha-varshney/9788128837517.html


शिवानन्द द्विवेदी “सहर”
(विभिन्न राष्ट्रीय समाचार पत्र
,पत्रिकाओं के लिए स्वतंत्र लेखन)
 09716248802

दैनिक जागरण में प्रकाशित समीक्षा.