रिश्ते मिलते हों बेशक
स्वत: ही
पर रिश्ते बनते नहीं
बनाने पड़ते हैं।
करने पड़ते हैं खड़े
मान और भरोसे का
ईंट, गारा लगा कर
निकाल कर स्वार्थ की कील
और पोत कर प्रेम के रंग
रिश्ते कोई सेब नहीं होते
जो टपक पड़ते हैं अचानक
और कोई न्यूटन बना देता है
उससे कोई भौतिकी का नियम।
या ग्रहण कर लेते हैं मनु श्रद्धा
और हो जाती है सृष्टि.
रिश्ते तो वह कृति है,
जिसे रचता है एक रचनाकार
श्रम से, स्नेह से, समर्पण से
रिश्ते तो वो तस्वीर है
जिसे बनाता है कलाकार स्वयं
अपनी समझ की कूची से
और फिर भरता है उसमें रंग
अपनी ही अनुभूति के
तब कहीं जाकर पनपता है कोई रिश्ता
हमारे ही अथक परिश्रम से
रिश्ते खुद नहीं आते जाते
रिश्तों के पाँव जो नहीं होते।
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