Thursday, January 31, 2013

असमंजस..

कल रात सपने में वो मिला था 
कर रहा था बातें, न जाने कैसी कैसी 
कभी कहता यह कर, कभी कहता वो 
कभी इधर लुढ़कता,कभी उधर उछलता 
फिर बैठ जाता, शायद थक जाता था वो 
फिर तुनकता और करने लगता जिरह 
आखिर क्यों नहीं सुनती मैं बात उसकी 
क्यों लगाती हूँ हरदम ये दिमाग 
और कर देती हूँ उसे नजर अंदाज 
मारती रहती हूँ उसे पल पल 
यूँ ही, ऐसे ही, किसी के लिए भी।
मैं तकती रही उसे, यूँ ही 
निरीह, किंकर्तव्यविमूढ़  सी 
क्या कहती, कैसे समझाती उसे 
कि कितना मुश्किल होता है 
यूँ उसे दरकिनार कर देना 
सुनकर भी अनसुना कर देना 
और फिर भी छिपाए रखना उसे 
रखना ज़िंदा अपने ही अन्दर 
रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ 
जो तुझे मारती हूँ तो 
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.

Monday, January 28, 2013

पुस्तकालय ऐसे भी..

यदि विदेशी धरती पर उतरते ही मूलभूत जानकारियों के लिए कोई आपसे कहे कि पुस्तकालय चले जाइए तो आप क्या सोचेंगे? यही न कि पुस्तकालय तो किताबें और पत्र पत्रिकाएं पढ़ने की जगह होती है, वहां भला प्रशासन व सुविधाओं से जुड़ी जानकारियां कैसे मिलेंगी। यह बात शत प्रतिशत सच है। खासकर इंग्लैंड में। यहां आपको बेशक घर ढूंढ़ना हो, बच्चों के स्कूल के बारे में पता करना हो, नौकरी चाहिए हो, मनोरंजन का कोई उपयुक्त स्थान चाहिए हो या फिर पास के क्लीनिक का पता करना हो- सभी का सबसे सुगम जबाब है- लाइब्रेरी। बस एक लाइब्रेरी कार्ड बनवाइए, जो यहां हर बच्चे-बड़े के लिए पासपोर्ट जितना ही जरूरी होता है और आपकी हर समस्या का समाधान इस एक छत के नीचे ही मिल जाएगा। यहां दूसरे मुल्क का कोई भी नागरिक अपना पासपोर्ट, एक फोटो और रेजिडेंशियल प्रूफ देकर यह कार्ड बनवा सकता है। 


अकेले लंदन में ही करीब 400 लाइब्रेरी हैं, जहां आपको हर भाषा में अनगिनत पुस्तकें मिलती हैं। इन्हें आप घर भी ले जा सकते हैं। यहां एक सामुदायिक केंद्र भी है, जो युवाओं के लिए ज्ञान बटोरने का माध्यम हैं तो बुजुर्र्गो के लिए मेल-मिलाप का अड्डा भी। बच्चों के लिए अलग से एक खंड होता है, जहां उनकी रुचि और जरूरत के अनुरूप सभी सुविधाएं और पठन सामग्री होती है। यहां नन्हे मुन्नों के लिए कहानी सुनाने जैसी कार्यशालाएं भी चलाई जाती हैं। स्कूली बच्चों के गृहकार्य में मदद करने के लिए विशेष सत्र भी चलाए जाते हैं, जिन्हें बहुत गंभीरता, मधुरता और अनुशासन के साथ निभाया जाता है। समय-समय पर देश-विदेश की संस्कृति से जुड़ी प्रदर्शनियां भी लगाई जाती हैं। जैसे आजकल भारत में मुगल काल की संस्कृति संबंधी प्रदर्शनी चल रही है और इससे पहले कथकली नृत्य पर प्रदर्शनी व कार्यशालाएं चल रही थीं। इतना ही नहीं, आपके बच्चे के लिए इस क्षेत्र में कौनसा स्कूल उपलब्ध है, यदि आप नौकरी करना चाहते हैं तो कौनसे कोर्स कहां कर सकते हैं, स्कूल के बाद और स्कूल से पहले बच्चे की समस्त गतिविधियां, और तो और सरकारी मामलों से जुड़ी परीक्षाएं और पाठ्यक्रमों का संचालन भी ये पुस्तकालय करते हैं। यदि आपके घर में इंटरनेट सुविधा नहीं है तो उसका इलाज भी यहां है, इन पुस्तकालयों में पर्याप्त कंप्यूटर लगे हैं। इनके अलावा मोबाइल पुस्तकालय भी हैं जो उस क्षेत्र में घूमते रहते हैं जहां कोई पुस्तकालय नहीं हैं और यह पूरी की पूरी दुनिया आपके लिए होती है। एकदम मुफ्त। 


यही कारण है की जब 2011- 2012 में आर्थिक मंदी के चलते ब्रिटिश सरकार ने इनमें से 10 प्रतिशत पुस्तकालय बंद करने की घोषणा की तो लंदन के ब्रेंट इलाके में इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। तब दलील दी गई कि इंटरनेट के विकास से अब पुस्तकों का महत्व इतना नहीं रह गया है। ई-पाठकों की संख्या बढ़ गई है, लिहाजा पुस्तकालय बंद किए जा सकते हैं। सभी जानते हैं कि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के घर नहीं। हर उम्र के नागरिकों का घर से बाहर एक ऐसा स्थान है जहां वे अपनी जिंदगी से जुड़ी हर गतिविधि सुरक्षित और सुविधाजनक तरीके से कर सकते हैं। इसे बचाने की मुहिम चली, लोगों ने सैकड़ों पुस्तकें दान दीं, लेकिन पूरे ब्रिटेन में काफी पुस्तकालय बंद कर दिए गए। बहुतों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है और कुछ को पूर्णत: स्वयंसेवी संस्थाओं को सौंप दिया गया है। 


सवाल यह खड़ा होता है कि जिस देश में कितनी ही मंदी के बावजूद नागरिकों के टैक्स से आज भी एनएचएस (नेशनल हेल्थ सर्विस) जैसी सुविधाएं चलती रह सकती हैं तो नागरिकों की संपूर्ण जरूरतों और बौद्धिक विकास में सहायक अड्डों की पूरी जिम्मेदारी उठाने वाले पुस्तकालयों पर ही यह कहर क्यों। विभिन्न सर्वेक्षण कहते हैं कि लंदन में बच्चों की पुस्तक पढने में रुचि लगातार कम हो रही है और लगभग तीन में से एक बच्चे के पास अपनी एक पुस्तक भी नहीं होती।


शेक्सपियर की इस धरती में ऐसे आंकड़े दुखद और निराशापूर्ण हैं। इसलिए जरूरत है कि उन बच्चों को उनकी पुस्तकें फिर से लौटाई जाएं, युवाओं को टीवी के आगे से उठाकर फिर पुस्तकालयों की तरफ मोड़ा जाए और बुजुर्र्गो को उनकी सभाओं के लिए सुरक्षित और अपनत्व भरा स्थान फिर से लौटाया जाए, क्योंकि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के लिए नहीं हैं। ये नागरिकों के संपूर्ण विकास और सुविधाओं का केंद्र हैं


* हर दूसरे शनिवार “दैनिक जागरण”(राष्ट्रीय संस्करण)में मेरे स्तंभ “लन्दन डायरी” के तहत 26/1/2013 को प्रकाशित.

Monday, January 21, 2013

रिश्ते ..

रिश्ते मिलते हों बेशक 

स्वत: ही 
पर रिश्ते बनते नहीं 

बनाने पड़ते हैं।

करने पड़ते हैं खड़े 
मान और भरोसे का 
ईंट, गारा लगा कर
निकाल कर स्वार्थ की कील 
और पोत कर प्रेम के रंग 
रिश्ते कोई सेब नहीं होते 
जो टपक पड़ते हैं अचानक 
और कोई न्यूटन बना देता है 
उससे कोई भौतिकी का नियम।
या ग्रहण कर लेते हैं मनु श्रद्धा 
और हो जाती है सृष्टि.
रिश्ते तो वह कृति है,
जिसे रचता है एक रचनाकार 
श्रम से, स्नेह से, समर्पण से
रिश्ते तो वो तस्वीर है 
जिसे बनाता है कलाकार स्वयं 
अपनी समझ की कूची से 
और फिर भरता है उसमें रंग 
अपनी ही अनुभूति के 
तब कहीं जाकर पनपता है कोई रिश्ता 
हमारे ही अथक परिश्रम से 
रिश्ते खुद नहीं आते जाते 
रिश्तों के पाँव जो नहीं होते।

Tuesday, January 15, 2013

अवांछित टहनियाँ ...


कुछ ताज़ी हवा के लिए खिड़की खोली तो ठंडी हवा के साथ तेज कर्कश सी आवाजें भी आईं, ठण्ड के थपेड़े  झेलते हुए झाँक कर देखा तो घर के सामने वाले पेड़ की छटाई हो रही थी।एक कर्मचारी सीढियाँ लगा कर पेड़ पर चढ़ा हुआ था और इलेक्ट्रिक आरी से फटाफट टहनियां काट रहा था, दूसरा ,थोड़ी दूरी पर ही ट्रक के साथ रखी मशीन में उसे डालता जा रहा था , जहाँ हाथ की हाथ उन लकड़ियों के चिप्स बनते जा रहे थे जिन्हें उस ट्रक में इकठ्ठा किया जा रहा था , और फिर इन्हें फुटपाथ की खुली मिट्टी के ऊपर डाल दिया जाता है जिससे की मिट्टी या धूल न उड़े, यानि उन टूटी हुई टहनियों की रिसायकलिंग की जा रही थी। यह कार्य यहाँ प्रतिवर्ष हर इलाके में बारी बारी से इस मौसम में किया जाता है जब पेड़ पूरी तरह से पत्तियों से वंचित होते हैं और बसंत के आने में कुछ समय बाकी होता है, ऐसे में पेड़ों की लटकती शाखाएं जो नागरिकों की आवाजाही या कार्यकलापों में बाधा उत्पन्न करती हैं उन्हें काट दिया जाता है। और पेड़ों के ठूंठ फिर से नई पत्तियों और शाखाओं के लिए तैयार हो  जाते हैं। यह शोर उन्हीं मशीनों का था। 

टहनियां कटती और चिप्स बनकर ट्रक तक पहुँचती 




न जाने क्यों मेरा मन इस आवाज से बचने के लिए खिड़की बंद करने का नहीं हुआ, बहुत देर तक बाहर चलते इस क्रम को निहारती रही। जाने क्यों मन किया कि मैं भी पहुँच जाऊं वहां और काट डालूँ उन सूखी शाखाओं को जो जनजीवन में बाधा उत्पन्न करती हैं। कुछ तथाकथित पुरानी जर्जर परम्पराओं की तरह ,जो धर्म और संस्कृति के पेड़ से उपजीं। और समय के साथ फ़ैल गईं परन्तु हमने उन्हें हटाया नहीं, नए समय के अनुसार उनमें बदलाव लाने की चेष्टा नहीं की, अपनी संस्कृति को नई बहार के साथ फलने फूलने के लिए तैयार नहीं किया, बल्कि लटकने दिया उन सूखी शाखाओं को इतना कि वर्तमान परिवेश और रहन सहन में वह बाधा बनती गईं, एक बोझ और कुरीतियों को जन्म देती गईं, समय के बदलते हुए अर्थ हीन होती गईं, पर हम उन्हें सहेजे गए न जाने क्यों? 

मैला कर दिया हमने पवित्र कहे जाने वाले पानी को फिर भी अपना मैल उससे धोते जा रहे हैं, कैसे वह साफ़ होगा नहीं जानते पर परंपरा है तो निभा रहे हैं। करोड़ों की भीड़ में गुमा देते हैं अपनों को, धकम पेल में न जाने हो जाते हैं कितने आहत, अपनी गली, मोहल्ले की महिलाओं का करते हैं अनादर और फिर एक खास दिन , खास स्थान पर जाकर माँ और एक स्त्री रुपी देवी से गुजारिश करते हैं पाप धोने की, मानवता होती है हर पल शर्मसार , फिर भी पुण्य मिलता है हमें, परंपरा जो है। बेटा नहीं है, फिर भी माता पिता को शादी शुदा बेटी के घर रहने से पाप लगेगा, परंपरा जो है। देश बेशक मंदी के दौर से गुजरे पर महारानी के जश्न वैभवपूर्ण हों, आखिर परंपरा का सवाल है। ऐसा नहीं कि सभी परम्पराएँ गलत हैं, किसी की श्रृद्धा या भावना को आहत करने का मेरा मकसद नहीं है। परन्तु न जाने कितनी ही ऐसी परम्पराएं हैं दुनिया में, जो मानव ने अपनी खुशी के लिए बनाईं पर आज उन्हीं के बोझ तले दबा है। क्यों नहीं वह पेड़ की अवांछित टहनियों की तरह इन अनावश्यक परम्पराओं से भी छुटकारा पा सकता।
मन में ख्याल आया तो, कि जाकर मैं भी कोशिश करूँ एक बार इन्हें काटने की। पर क्या जितनी कुशलता से वह काट रहे थे इतनी कुशलता से मैं काट पाती , “जिसका काम उसी को साजे ” बेहतर है करने दिया जाये उन्हीं को, जो सक्षम हैं, जिन्हें ज्ञान है पूरा और जिन्हें नियुक्त किया गया है इसी कार्य के लिए। हमने टैक्स देकर अपना योगदान दिया है, हमसे सिर्फ इतना अपेक्षित है कि जब उन्होंने बोर्ड लगाया था पहले दिन कि, कल यहाँ वाहन न खड़ा करें तो उसे हम मानें। जिससे कर सकें वे सुचारू रूप से अपना काम। बेहतर है हर एक को करने दिया जाये उसका कार्य और हर कोई करे अपना काम, तभी बनती है व्यवस्था और साफ़ सुधरा रहता है समाज भी और वातावरण भी। क्यों हमें बताना चाहिए सीमा पर तैनात बहादुर सैनिकों को कि, उन्हें कैसे निबटना चाहिए दुश्मनों से, या कैसे सिखाना चाहिए उन्हें सबक, क्यों अड़ाई जाये किसी के काम में अपनी टांग,और दिए जाएँ बेवजह अपने उपदेश, क्योंकि है हमें आजादी अभिव्यक्ति की।
हाँ इतना जरूर है कि उनकी मदद हम कर सकते हैं। अपना हिस्से का कर्तव्य पूरा कर के। वह अपना कार्य सुचारू रूप से कर सके इसमें उनकी मदद ,अपना फ़र्ज़ पूरा करके।एक सभ्य और जिम्मेदार नागरिक की तरह क्यों नहीं हम वह करते जिसकी कि व्यवस्था के तहत हमसे अपेक्षा की जाती है। भरें सही टैक्स कि मिल सकें उन्हें सही सुविधाएँ, करें अपने मत के अधिकार का सही प्रयोग और चुने सही प्रतिनिधि, करें अपने विचार व्यक्त पर उन्हें थोपें नहीं.न करे ऐसा कोई काम जो बने बाधा किसी के भी कार्य में।
बस इतना भर …क्या इतना मुश्किल है करना ?.
तैयार पेड़ नई बहार के स्वागत में .

Monday, January 7, 2013

एक कैपेचीनो और "कठपुतलियाँ"

गुजर गया 2012 और कुछ ऐसा गुजरा कि आखिरी दिनों में मन भारी भारी छोड़ गया। यूँ जीवन चलता रहा , दुनिया चलती रही , खाना पीना, घूमना सब कुछ ही चलता रहा परन्तु फिर भी मन था कि किसी काम में लग नहीं रहा था . ऐसे में जब कुछ नहीं सूझता तो मैं पुस्तकालय चली जाया करती हूँ और वहां से ढेर सी किताबें ले आती हूँ और बस झोंक देती हूँ खुद को उनमें। पर इस बार कुछ पढने लिखने का भी मन नहीं था. फिर भी,  पहुँच गई लाइब्रेरी. कुछ अंग्रेजी किताबें उठाईं, फिर सोचा एक नजर हिंदी वाली शेल्फ पर भी डाल ली जाये, हालाँकि उस शेल्फ की सभी किताबों को मैं जैम लगाकर चाट चुकी हूँ फिर भी लगा काफी अरसा हो गया हो सकता है कोई नई ट्रीट मिल जाये, और शायद वह दिन कुछ अच्छा था। मेरी नजर एक कुछ जाने पहचाने से नाम पर पड़ी, हालाँकि लेखिका से मेरा कोई संपर्क नहीं, पर ब्लॉग पर थोडा बहुत उन्हें पढ़ा था, मैंने झट से वह किताब उठाई और शायद इतने दिनों की यह किताबी प्यास थी या किताब पर छपा वह कुछ जाना सा नाम, कि मुझसे रहा नहीं जा रहा था। अत: बेटे को हॉट चोकलेट पिलाने के बहाने मैं वहीँ एक कॉफ़ी शॉप में जा बैठी और जो पन्ने पलटने शुरू किये तो डेढ़ घंटे में कॉफ़ी तो ख़तम नहीं हुई पर किताब ख़तम कर डाली 
यह किताब थी – “कठपुतलियाँ “
और लेखिका थीं – मनीषा कुलश्रेष्ठ।

मनीषा कुलश्रेष्ट की कुछ कवितायें मैंने यूँ ही ब्लॉग्स पर टहलते हुए पढ़ीं थीं और कुछ उनका नाम फेसबुक पर कुछ मित्रों के स्टेटस पर टिप्पणी के साथ देखा था। जिनमें उनकी भाषा शैली और वर्तमान परिवेश की सटीक समझ ने मुझे काफी प्रभावित किया। इस कहानी संग्रह “कठपुतलियाँ ” की कहानियों ने, न सिर्फ वह प्रभाव बढाया बल्कि मौजूदा कहानीकारों में उन्हें मेरा पसंदीदा कहानीकार बना दिया।

मनीषा ने अपनी कहानियों में उन सभी समस्यायों और बातों पर प्रकाश डाला है जिन्हें हम आज के हिंदी साहित्य में बोल्ड विषय कह सकते हैं, परन्तु इतनी खूबसूरती से उनकी विवेचना की है कि वह पूरी बात स्पष्ट कह जाती हैं और कहीं भी कोई भी शब्द या वाक्य असहज नहीं लगता।
और यही बात मुझे लगातार महसूस होती रही कहानी “कठपुतलियाँ” में कि – जब स्त्री , पुरुष संबंधो से जुडी किसी बात को इतने खूबसूरत बिम्बों के सहारे और इतने सहज और सुन्दर तरीके से कहा जा सकता है कि पाठक को न तो वह पढने में असहज लगें न अश्लील और न ही उसे अपने बच्चों को वह पढने को कहने में शर्म आये , तो फिर क्यों साहित्य में उत्कृष्टता, और सत्यता के  नाम पर वही बातें इस तरह से कहीं जाती हैं कि उन्हें पढने में असहजता होने लगे।

यहाँ हो सकता है मैं रूढ़िवादी हो रही हूँ। परन्तु बेवजह, कुछ खास शब्दों के सहारे रचना को उत्कृष्ठता ,यथार्थ और प्रगतिशीलता का जामा पहना कर चर्चा और समाज सुधार का बहाना करती रचनाएं मुझे आकर्षित नहीं करतीं. बोल्डनेस और बोल्ड लेखन सिर्फ सेक्स नहीं होता। और यहीं मनीषा मुझे उन सब से कुछ अलग लगती हैं।

इस संग्रह में कुल नौ कहानियाँ हैं – कठपुतलियाँ , प्रेत कामना, रंग-रूप-रस-गंध , भगोड़ा, परिभ्रान्ति, अवक्षेप, कुरजाँ , बिगडैल बच्चे, स्वाँग .
सभी कहानियों में लेखिका की विषय सम्बंधित गहरी पकड़ परिलक्षित होती है। परन्तु सबसे ज्यादा मुझे प्रभावित किया कहानी “बिगडैल बच्चे” ने .जितने संतुलन से कहानी आगे बढती है और जिस कुशलता से लेखिका उस वातावरण को और पात्रों के चरित्र को पकडे रहती है प्रशंसनीय है। 
वर्तमान और अतीत के परिवेश, पुरानी पीढी की नई पीढी से होड़ , सोच और रहन सहन का आपसी द्वन्द और फिर उसका एक कॉमन जगह पर आकर मिल जाना कमाल का तालमेल दिखाता है। 
बहुत कम कहानियाँ ऐसी होती हैं जो पढने के बाद दिल पर गहरी छाप छोड़ जाती हैं, कहानी जो किसी की सोच बदल सकती है, कहानी जो परिवेश और माहौल को प्रभावित कर सकती है, कहानी जो यथार्थ से रू ब रू कराती है, और मेरी जैसी एक साधारण पाठक को, जिसे न कहानी शिल्प की समझ है न समीक्षा की, उसे मजबूर कर देती हैं कि कहूँ इसके बारे में कुछ , कुछ तो।
अभिनन्दन मनीषा कुलश्रेष्ठ  !!! आपकी सुलझी हुई शानदार सोच को सलाम।



Wednesday, January 2, 2013

कितना जरुरी है डर...

 हम बचपन से सुनते आये हैं ” डर के आगे जीत है ” , जो डर गया समझो मर गया ” वगैरह वगैरह। परन्तु सचाई एक यह भी है कि कुछ भी हो, व्यवस्था और सुकून बनाये रखने के लिए डर बेहद जरूरी है। घर हो या समाज जब तक डर नहीं होता कोई भी व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल सकती। घर में बच्चे को माता – पिता  का डर न हो तो वह होश संभालते ही चोर बन जाए, स्कूल में अध्यापकों का डर न हो तो अनपढ़ – गंवार रह जाए, धर्म – समाज का डर न हो तो न परिवार बचें, न ही सभ्यता। और अगर कानून का डर न हो, तो जो होता है , वह आजकल हम देख ही रहे हैं। यानि इतनी अव्यवस्था और अपराध हो जाएँ की जीना मुश्किल हो जाए। 
पता नहीं हमारे समाज में कानून या सजा का कभी डर था या नहीं परन्तु पिछले कुछ समय की घटनाओं को देखकर तो लगने लगा है कि हमाँरे भारतीय समाज में न तो कानून रह गया है न ही कानून के रखवालों का कोई भय . यही कारण है कि घिनोने से घिनोने अपराध बढ़ते जा रहे हैं और उनका कोई भी समाधान सामने दिखाई नहीं पड़ता। पिछले दिनों बर्बरता की परकाष्ठा पर हुए दामिनी केस ने सबके दिलों को हिला कर रख दिया। अरसे बाद जनता जागी, उसे एहसास हुआ कि अब व्यवस्था पर भरोसा रखकर बैठे रहने से कुछ नहीं होगा और शुरू हुआ आन्दोलन, परन्तु जैसे समाज दो भागों में बट चूका है एक वो, जो इंसान हैं, जिनके दिलों में धड़कन है , संवेदना है , जो परेशान हैं व्यवस्था से , उसके कार्यकलापों से और उसे बदलना चाहते, पर मजबूर हैं ,कुछ नहीं कर पाते। दुसरे वह, जो हैं तो व्यवस्था के संरक्षक पर जैसे साथ अपराधियों के हैं। उनपर किसी भी बात का कोई असर नहीं होता, इतने हो- हल्ले के बाद भी लगातार ऐसे ही घिनोने , हैवानियत भरे  और गंभीर अपराधों की ख़बरें आती रहती हैं। जैसे अपराधी एलान कर देना चाहते हैं कि ” लो कर लो , क्या कर लोगे “. समाज से कानून और सजा का डर बिलकुल ख़तम हो चूका है, अपराधी खुले सांडों की तरह मूंह खोले घुमते रहते हैं और निर्मम अपराध अपने चरम पर हैं।

आखिर इस अव्यवस्था की वजह क्या है ? जबाब बहुत से हो सकते हैं। तर्क , कुतर्क भी अनगिनत किये जा रहे हैं। परन्तु मूल में जो बात है वह यही कि हममें से हर कोई सिर्फ अपने काम को छोड़कर बाकि हर एक के काम में टांग अड़ाता नजर आता है। एक केस को लेकर जागृति  होती है तो आवाजें आने लगती हैं कि  ..इसपर हल्ला क्यों ? उसपर क्यों नहीं किया था ..गोया कि अगर पिछले अपराधों पर गलती की गई तो आगे भी नहीं सुधारी जानी चाहिए। उसको छोड़ा तो इसे भी छोडो। 

हम खुद अपने गिरेवान में झाँकने की बजाय बाकी सब पर बड़े आराम से उंगली उठा देते हैं।  कितना सुगम होता यदि हर कोई सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करता और दुसरे को उसका करने देता फिर चाहे वो कोई लेखक हो, पुलिसवाला हो , वकील हो , जज हो,मीडिया हो या फिर सरकार .
कहने को हमारे समाज में हर बुराई और अपराध का ठीकरा संस्कृति पर फोड़ दिया जाता है, उसे पश्चिमी समाज का दुष्प्रभाव कह दिया जाता है। चलिए मान लिया कि पश्च्मि समाज में संस्कृति नहीं। पर यह बात फिर मेरी मान लीजिये की व्यवस्था तो है। कम से कम हर इंसान अपना काम तो करता है। 
यहाँ अपराध किसी भी स्तर का हो, माफ़ नहीं किया जाता, बेशक सजा उसकी कुछ भी हो पर होती अवश्य है। बात नो पार्किंग में कार पार्क करने की हो, बिना लाइसेंस के गाडी चलाने जैसी साधारण अपराधों की हो या नागरिक अधिकार के हनन वाली पत्रकारिता जैसे गंभीर और बड़े अपराधों की, न तो आम आदमी को बख्शा जाता है न ही ख़ास को। और सजा भी ऐसी प्रभावी और तुरंत दी जाती है कि सजा याफ्ता वह गुनाह दुबारा करने की सोचे भी नहीं , और दूसरा भी जो उसे सुने उसकी वह जुर्म करने की कभी हिम्मत न हो।

अभी फिलहाल का ही एक उदाहरण याद आ रहा है – एक रात करीब डेढ़ बजे दरवाजे की घंटियाँ जोर जोर से बजीं। देखा तो 2-3 पुलिस की गाड़ियां बाहर खड़ीं थीं और 6-7 जवान दनदनाते घर में घुसे की हमें आपके बागीचे में जाना है। हमने बगीचे का गेट खोला उन्होंने जल्दी जल्दी सब तरफ देखा और हमें “थैंक्स , सॉरी तो डिस्टर्ब यू” कहते चलते बने। हमने बाहर जाकर पूछा तो सिर्फ इतना बताया गया कि किसी अपराधी का पीछा कर रहे हैं जो लोगों के घरों में बागीचे के रास्ते भागता , छिपता घूम रहा है। करीब 10 मिनट बाद फिर एक पुलिस अफसर आया यह कहने कि आपका नाम और फ़ोन नंबर दे दीजिये। पीछा करने में आपके गेरेज का दरवाजा हमसे टूट गया है उसकी जिम्मेदारी हमारी है और हम इतनी रात को आपको डिस्टर्ब करने के लिए माफी चाहते हैं।पता चला कि कुछ लोगों के आपस के किसी झगड़े के तहत कोई साधारण गुंडा था जिसे उन्होंने पकड़ लिया था,और उसी के लिए इतना सब था, और अगर जरूरत पड़ती तो हेलीकाप्टर भी बुलाया जाता पर उसे छोड़ा नहीं जाता।
उसके बाद का काम कानून का है कि क्या सजा उसे हो , फिर कोर्ट का, कि सजा सुनाये, बेशक सजा कुछ भी हो परन्तु होगी जरूर और शायद यही व्यवस्था का मुख्य कारण है।

थोड़ी ही देर में इलाका शांत हो गया पर रह गया मेरे ज़हन में एक सवाल, कि अगर यही भारत में होता तो क्या होता ? वह गुंडा पकड़ा जाता या नहीं वह तो अलग बात थी, परन्तु जिन घरों के बागीचों से होकर वह भागा या छिपा, उन घरवालों का पुलिस क्या हाल करती। मतलब कि यह पुलिस का डर अपराधी के लिए नहीं, बल्कि बेचारे उन निर्दोष घरवालों के लिए होता।
यानि  हमारे समाज में भी डर तो है पर शायद गलत जगह, और सही लोगों के लिए है।

हालाँकि ऐसा नहीं है कि इन बाहरी देशों में कोई अपराध ही नहीं होते। होते हैं और गंभीरतम भी होते हैं। परन्तु  यह हर नागरिक जानता है कि कानून के खिलाफ कुछ भी किया तो उसे बख्शा किसी कीमत पर नहीं जाएगा और यही डर अपराधी मनोवृति को काफी कुछ काबू में रखता है, आम नागरिकों को कानून पर और उसके रखवालों पर विश्वास बना रहता है और उसे अपनी सुरक्षा के मूल अधिकार लेने के लिए अपने काम छोड़कर घड़ी घड़ी सड़कों पर आन्दोलन के लिए नहीं उतरना पड़ता।