कल रात सपने में वो मिला था
कर रहा था बातें, न जाने कैसी कैसी
कभी कहता यह कर, कभी कहता वो
कभी इधर लुढ़कता,कभी उधर उछलता
फिर बैठ जाता, शायद थक जाता था वो
फिर तुनकता और करने लगता जिरह
आखिर क्यों नहीं सुनती मैं बात उसकी
क्यों लगाती हूँ हरदम ये दिमाग
और कर देती हूँ उसे नजर अंदाज
मारती रहती हूँ उसे पल पल
यूँ ही, ऐसे ही, किसी के लिए भी।
मैं तकती रही उसे, यूँ ही
निरीह, किंकर्तव्यविमूढ़ सी
क्या कहती, कैसे समझाती उसे
कि कितना मुश्किल होता है
यूँ उसे दरकिनार कर देना
सुनकर भी अनसुना कर देना
और फिर भी छिपाए रखना उसे
रखना ज़िंदा अपने ही अन्दर
रे मन मेरे !! मैं कैसे तुझे बताऊँ
जो तुझे मारती हूँ तो
खुद भी मरती हूँ शनै: शनै:.
Thursday, January 31, 2013
असमंजस..
Monday, January 28, 2013
पुस्तकालय ऐसे भी..
अकेले लंदन में ही करीब 400 लाइब्रेरी हैं, जहां आपको हर भाषा में अनगिनत पुस्तकें मिलती हैं। इन्हें आप घर भी ले जा सकते हैं। यहां एक सामुदायिक केंद्र भी है, जो युवाओं के लिए ज्ञान बटोरने का माध्यम हैं तो बुजुर्र्गो के लिए मेल-मिलाप का अड्डा भी। बच्चों के लिए अलग से एक खंड होता है, जहां उनकी रुचि और जरूरत के अनुरूप सभी सुविधाएं और पठन सामग्री होती है। यहां नन्हे मुन्नों के लिए कहानी सुनाने जैसी कार्यशालाएं भी चलाई जाती हैं। स्कूली बच्चों के गृहकार्य में मदद करने के लिए विशेष सत्र भी चलाए जाते हैं, जिन्हें बहुत गंभीरता, मधुरता और अनुशासन के साथ निभाया जाता है। समय-समय पर देश-विदेश की संस्कृति से जुड़ी प्रदर्शनियां भी लगाई जाती हैं। जैसे आजकल भारत में मुगल काल की संस्कृति संबंधी प्रदर्शनी चल रही है और इससे पहले कथकली नृत्य पर प्रदर्शनी व कार्यशालाएं चल रही थीं। इतना ही नहीं, आपके बच्चे के लिए इस क्षेत्र में कौनसा स्कूल उपलब्ध है, यदि आप नौकरी करना चाहते हैं तो कौनसे कोर्स कहां कर सकते हैं, स्कूल के बाद और स्कूल से पहले बच्चे की समस्त गतिविधियां, और तो और सरकारी मामलों से जुड़ी परीक्षाएं और पाठ्यक्रमों का संचालन भी ये पुस्तकालय करते हैं। यदि आपके घर में इंटरनेट सुविधा नहीं है तो उसका इलाज भी यहां है, इन पुस्तकालयों में पर्याप्त कंप्यूटर लगे हैं। इनके अलावा मोबाइल पुस्तकालय भी हैं जो उस क्षेत्र में घूमते रहते हैं जहां कोई पुस्तकालय नहीं हैं और यह पूरी की पूरी दुनिया आपके लिए होती है। एकदम मुफ्त।
यही कारण है की जब 2011- 2012 में आर्थिक मंदी के चलते ब्रिटिश सरकार ने इनमें से 10 प्रतिशत पुस्तकालय बंद करने की घोषणा की तो लंदन के ब्रेंट इलाके में इसका जबर्दस्त विरोध हुआ। तब दलील दी गई कि इंटरनेट के विकास से अब पुस्तकों का महत्व इतना नहीं रह गया है। ई-पाठकों की संख्या बढ़ गई है, लिहाजा पुस्तकालय बंद किए जा सकते हैं। सभी जानते हैं कि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के घर नहीं। हर उम्र के नागरिकों का घर से बाहर एक ऐसा स्थान है जहां वे अपनी जिंदगी से जुड़ी हर गतिविधि सुरक्षित और सुविधाजनक तरीके से कर सकते हैं। इसे बचाने की मुहिम चली, लोगों ने सैकड़ों पुस्तकें दान दीं, लेकिन पूरे ब्रिटेन में काफी पुस्तकालय बंद कर दिए गए। बहुतों पर बंद होने का खतरा मंडरा रहा है और कुछ को पूर्णत: स्वयंसेवी संस्थाओं को सौंप दिया गया है।
सवाल यह खड़ा होता है कि जिस देश में कितनी ही मंदी के बावजूद नागरिकों के टैक्स से आज भी एनएचएस (नेशनल हेल्थ सर्विस) जैसी सुविधाएं चलती रह सकती हैं तो नागरिकों की संपूर्ण जरूरतों और बौद्धिक विकास में सहायक अड्डों की पूरी जिम्मेदारी उठाने वाले पुस्तकालयों पर ही यह कहर क्यों। विभिन्न सर्वेक्षण कहते हैं कि लंदन में बच्चों की पुस्तक पढने में रुचि लगातार कम हो रही है और लगभग तीन में से एक बच्चे के पास अपनी एक पुस्तक भी नहीं होती।
शेक्सपियर की इस धरती में ऐसे आंकड़े दुखद और निराशापूर्ण हैं। इसलिए जरूरत है कि उन बच्चों को उनकी पुस्तकें फिर से लौटाई जाएं, युवाओं को टीवी के आगे से उठाकर फिर पुस्तकालयों की तरफ मोड़ा जाए और बुजुर्र्गो को उनकी सभाओं के लिए सुरक्षित और अपनत्व भरा स्थान फिर से लौटाया जाए, क्योंकि ये पुस्तकालय सिर्फ पुस्तकों के लिए नहीं हैं। ये नागरिकों के संपूर्ण विकास और सुविधाओं का केंद्र हैं।
* हर दूसरे शनिवार “दैनिक जागरण”(राष्ट्रीय संस्करण)में मेरे स्तंभ “लन्दन डायरी” के तहत 26/1/2013 को प्रकाशित.
Monday, January 21, 2013
रिश्ते ..
रिश्ते मिलते हों बेशक
Tuesday, January 15, 2013
अवांछित टहनियाँ ...
कुछ ताज़ी हवा के लिए खिड़की खोली तो ठंडी हवा के साथ तेज कर्कश सी आवाजें भी आईं, ठण्ड के थपेड़े झेलते हुए झाँक कर देखा तो घर के सामने वाले पेड़ की छटाई हो रही थी।एक कर्मचारी सीढियाँ लगा कर पेड़ पर चढ़ा हुआ था और इलेक्ट्रिक आरी से फटाफट टहनियां काट रहा था, दूसरा ,थोड़ी दूरी पर ही ट्रक के साथ रखी मशीन में उसे डालता जा रहा था , जहाँ हाथ की हाथ उन लकड़ियों के चिप्स बनते जा रहे थे जिन्हें उस ट्रक में इकठ्ठा किया जा रहा था , और फिर इन्हें फुटपाथ की खुली मिट्टी के ऊपर डाल दिया जाता है जिससे की मिट्टी या धूल न उड़े, यानि उन टूटी हुई टहनियों की रिसायकलिंग की जा रही थी। यह कार्य यहाँ प्रतिवर्ष हर इलाके में बारी बारी से इस मौसम में किया जाता है जब पेड़ पूरी तरह से पत्तियों से वंचित होते हैं और बसंत के आने में कुछ समय बाकी होता है, ऐसे में पेड़ों की लटकती शाखाएं जो नागरिकों की आवाजाही या कार्यकलापों में बाधा उत्पन्न करती हैं उन्हें काट दिया जाता है। और पेड़ों के ठूंठ फिर से नई पत्तियों और शाखाओं के लिए तैयार हो जाते हैं। यह शोर उन्हीं मशीनों का था।
Monday, January 7, 2013
एक कैपेचीनो और "कठपुतलियाँ"
Wednesday, January 2, 2013
कितना जरुरी है डर...
आखिर इस अव्यवस्था की वजह क्या है ? जबाब बहुत से हो सकते हैं। तर्क , कुतर्क भी अनगिनत किये जा रहे हैं। परन्तु मूल में जो बात है वह यही कि हममें से हर कोई सिर्फ अपने काम को छोड़कर बाकि हर एक के काम में टांग अड़ाता नजर आता है। एक केस को लेकर जागृति होती है तो आवाजें आने लगती हैं कि ..इसपर हल्ला क्यों ? उसपर क्यों नहीं किया था ..गोया कि अगर पिछले अपराधों पर गलती की गई तो आगे भी नहीं सुधारी जानी चाहिए। उसको छोड़ा तो इसे भी छोडो।
हम खुद अपने गिरेवान में झाँकने की बजाय बाकी सब पर बड़े आराम से उंगली उठा देते हैं। कितना सुगम होता यदि हर कोई सिर्फ अपना काम ईमानदारी से करता और दुसरे को उसका करने देता फिर चाहे वो कोई लेखक हो, पुलिसवाला हो , वकील हो , जज हो,मीडिया हो या फिर सरकार .
अभी फिलहाल का ही एक उदाहरण याद आ रहा है – एक रात करीब डेढ़ बजे दरवाजे की घंटियाँ जोर जोर से बजीं। देखा तो 2-3 पुलिस की गाड़ियां बाहर खड़ीं थीं और 6-7 जवान दनदनाते घर में घुसे की हमें आपके बागीचे में जाना है। हमने बगीचे का गेट खोला उन्होंने जल्दी जल्दी सब तरफ देखा और हमें “थैंक्स , सॉरी तो डिस्टर्ब यू” कहते चलते बने। हमने बाहर जाकर पूछा तो सिर्फ इतना बताया गया कि किसी अपराधी का पीछा कर रहे हैं जो लोगों के घरों में बागीचे के रास्ते भागता , छिपता घूम रहा है। करीब 10 मिनट बाद फिर एक पुलिस अफसर आया यह कहने कि आपका नाम और फ़ोन नंबर दे दीजिये। पीछा करने में आपके गेरेज का दरवाजा हमसे टूट गया है उसकी जिम्मेदारी हमारी है और हम इतनी रात को आपको डिस्टर्ब करने के लिए माफी चाहते हैं।पता चला कि कुछ लोगों के आपस के किसी झगड़े के तहत कोई साधारण गुंडा था जिसे उन्होंने पकड़ लिया था,और उसी के लिए इतना सब था, और अगर जरूरत पड़ती तो हेलीकाप्टर भी बुलाया जाता पर उसे छोड़ा नहीं जाता।
थोड़ी ही देर में इलाका शांत हो गया पर रह गया मेरे ज़हन में एक सवाल, कि अगर यही भारत में होता तो क्या होता ? वह गुंडा पकड़ा जाता या नहीं वह तो अलग बात थी, परन्तु जिन घरों के बागीचों से होकर वह भागा या छिपा, उन घरवालों का पुलिस क्या हाल करती। मतलब कि यह पुलिस का डर अपराधी के लिए नहीं, बल्कि बेचारे उन निर्दोष घरवालों के लिए होता।
हालाँकि ऐसा नहीं है कि इन बाहरी देशों में कोई अपराध ही नहीं होते। होते हैं और गंभीरतम भी होते हैं। परन्तु यह हर नागरिक जानता है कि कानून के खिलाफ कुछ भी किया तो उसे बख्शा किसी कीमत पर नहीं जाएगा और यही डर अपराधी मनोवृति को काफी कुछ काबू में रखता है, आम नागरिकों को कानून पर और उसके रखवालों पर विश्वास बना रहता है और उसे अपनी सुरक्षा के मूल अधिकार लेने के लिए अपने काम छोड़कर घड़ी घड़ी सड़कों पर आन्दोलन के लिए नहीं उतरना पड़ता।