Tuesday, December 18, 2012

प्रलय-....बाकी है ??

सुना है 21 दिसंबर को प्रलय आने वाली है ..पर क्या प्रलय आने में कुछ बाकी बचा है ?.भौतिकता इस कदर हावी है की मानवता गर्त में चली गई है, बची ही कहाँ है इंसानों की दुनिया जो ख़तम हो जाएगी।मन बहुत खराब है ..


यूँ राहों पर कुलांचे भरती
पल में दिखती पल में छुपती

मृगनयनी वो दुग्ध.धवल सी
चंचल चपल वो युव शशक सी
घूँघर लट मचल मचल कर
करती ग्रीवा से ठिठोली।
पगडंडी पर कल मिली थी

करती झाड़ी से अठखेली 
कल कल बहती जाती जैसे  
पावन, निर्मल कोई नदी सी
बोली में मिश्री सी घोली
गुनगुन भी सरगम सी बोली 

तभी प्रकट हुई एक टोली 
बहशी, दानव से वे भोगी 
इंसानों की इस दुनिया में 
पशुवत,कुंठित वे मनोरोगी 
पल भर में ही बदल गया दृश्य 
क्षत विक्षत अब पडी वो भोली। 

Monday, December 10, 2012

उन्नति और सभ्यता...

अपनी स्कॉटलैंड यात्रा के दौरान एडिनबरा के एक महल को दिखाते हुए वहां की एक गाइड ने हमें बताया कि उस समय मल विसर्जन की वहां क्या व्यवस्था थी। महल में रहने वाले राजसी लोगों के पलंग के नीचे एक बड़ा सा कटोरा रखा होता था। जिसमें वह नित मल त्याग करते थे और फिर उसे सेवक ले जाकर झरोखों / खिडकियों से नीचे वाली सड़क पर फेंक देते थे .जिसपर आम लोगों का आना जाना हुआ करता था और उस काल में नंगे पाँव ही लोग चला करते थे .कितनी ही बार ऊपर से फेंका हुआ मल उन आम लोगों के ऊपर भी  पड़ जाया करता था। उस गाइड का यह वृतांत सुन मेरा मन वितृष्णा  से भर गया .मन में आया कि हम कितने भी पिछड़े हुए सही पर किसी भी काल में इतने अभद्र तो कभी नहीं रहे।जाहिर है जिस काल समय में आज सभ्य और परिष्कृत कहे जाने वाले देशों को मूल भूत सभ्य समाज की तमीज भी नहीं थी, तब हमारा देश ज्ञानी कहलाता था।एक स्वच्छ ,श्यामला , पवित्र धरा।एक संस्कार , संस्कृति, संपदा  और ज्ञान का केंद्र।


फिर धीरे धीरे समय का पहिया घूमना शुरू हुआ और स्थितियां बदलने लगीं .वह असभ्य ,अज्ञानी देश हमसे सीख सीखकर सभ्य होते चले गए ,विकसित होते गए और हम जहाँ थे वहीँ अटक कर रह गए .अपने अतीत पर गुमान करते रह गए, और भविष्य को नजरअंदाज करना आरम्भ कर दिया।कहीं कोई  तो स्वभावगत  कमी हममें ही रही होगी कि विदेशियों का आकर्षण हम पर इस कदर हावी हुआ, कि अपना सब कुछ छोड़ हम दौड़ पड़े उनके पीछे। न जाने कैसा वो प्रभाव था कि हम उनका सब कुछ अपनाने को उतावले होते गए , संस्कृति, भाषा, रहन सहन सब कुछ। और इसी अंधी दौड़ में रह गए पीछे , बहुत पीछे, उससे भी पीछे जहाँ से हमने सभ्यता की शुरुआत की थी।

आज हम, अपने घर का कचरा खिड़की से बाहर  सड़क पर फेंकते हैं, सदियों बाद आज भी हमारी सड़कों के किनारे लोटे लेकर बैठे लोगों की पंक्तियाँ दिखतीं हैं।और हम आज भी जब बात दान धर्म की आती है तो शौचालयों की जगह मंदिर/मस्जिद  बनाने को महत्ता देते हैं। हालात यह कि इन सभी समस्यायों और हालातों के लिए हम एक दूसरे पर  उंगली उठा देते हैं। कोई आइना दिखाता  है तो कहते हैं, जा पहले अपनी सूरत देख कर आ। कोई कुछ कहने की कोशिश करता है तो कह देते हैं .तुम बाहर के हो तुम्हें कहने का कोई हक नहीं।कोई हमारी कमियाँ बताता है तो हम उसे सुधारने की बजाय दूसरे  की कमियाँ तलाशने लगते हैं। कहने का मतलब यह कि कोई भी गुनाह इसलिए गुनाह नहीं रहता क्योंकि दूसरा भी यही गुनाह कर रहा है।हर अपराधी यह कहकर अपराध मुक्त हो जाता है कि दूसरी पाली में भी एक अपराधी है।
यानि सजा किसी को नहीं।सब अपराधी तो सजा दे कौन। जब सजा नहीं तो अपराध कैसा . इसी मुगालते में वर्षों बीत गए .हमने अपनों के प्रति हीन भावना और बाहरी लोगों के लिए उच्च भावना बढ़ा ली । उनकी हर चीज़ से हम होड़ करने लगे, सब कुछ उनकी नक़ल से किया जाने लगे और उसी को विकास का मूल मन्त्र भी समझा जाने लगा।परन्तु उस विकास के वृक्ष की जड़ हम नहीं देख पाए न ही हमने कभी देखने की कोशिश की। ऊपरी हरे पत्ते हमें लुभाते रहे और हम उन्हें तोड़ तोड़ अपने व्यक्तित्व को सजाने की कोशिश करते रहे कुछ समय के लिए उन पत्तों से हम चमक गए , बाहर से दिखने में सब कुछ हरा भरा दिखाई देने लगा। परन्तु वे पत्ते कभी तो पीले  पड़ने  ही थे, पीले पड़कर गिर जाते और फिर समाज को दूषित करते। हमने कभी उस विकास रुपी पेड़ को सुचारू रूप से अपने समाज में ज़माने की कोशिश नहीं की, कभी उसकी जड़ में व्याप्त उर्वरकों को जानने की कोशिश नहीं की।कभी यह नहीं समझा कि जिस पेड़ के पत्ते हम तोड़ कर खुश हो जाते हैं  उस पेड़ को उगाने में कितनी मेहनत , कर्तव्य , और निष्ठा के खाद पानी की जरूरत पड़ती है।

ऐसा तो नहीं की वक़्त के साथ हमारे दिमाग को जंग लग गया है, या हमारी प्रतिभाएं समाप्त हो गईं हैं। आज भी दुनिया हमसे बहुत कुछ सीखती है, बहुत कुछ अपनाती है और खुद को समृद्ध करती है।हमारा फायदा उठाती है।  परन्तु हम अपना फायदा नहीं उठाते, हम अपने आप को भुलाए बैठे हैं .क्या हमारा देश हनुमानों का देश है जहाँ उसे हर बार कोई उसका बल याद कराने वाला चाहिए। या हम आत्म मुग्धता के शिकार हैं। अतीत में हमने दुनिया को जीरो दिया जिसे पाकर दुनिया ने सारी  गणनाएँ कर लीं और हम अपने जीरो में ही घुसे बैठे रहे। हमने अन्तरिक्ष में बांस घुमा कर ब्रह्माण्ड तलाशा. उस तकनिकी का ही इस्तेमाल करके दुनिया चाँद पर जा पहुंची और हम अपना बांस निहारते रह गए। तो आखिर चूक कहाँ है ? क्या हम भविष्य में उसे समझकर संभल पाएंगे ? क्या हम उगते हुए सूरज की रौशनी को आत्मसात कर पायेंगे या फिर वह सूरज जाकर छुप जायेगा पश्चिम में और हम उसकी तरह मुँह कर यूँ ही हुंकारते रह जायेंगे।

 क्या अब वक़्त नहीं,उस वृक्ष को अपने ही घर में रोपने का जिसपर स्वत: ही हरे पत्ते निकलें और हमारे दिन पर दिन झुलसते समाज को फिर से भरपूर छाया नसीब हो। क्या अब हमें पीछे मुड़ मुड़ कर अपने अतीत पर इठलाने की बजाय, उससे प्रेरणा ले आगे नहीं बढ़ना चाहिए.अब वक़्त उस वृक्ष के सिर्फ हरे पत्ते तोड़कर अपने घर भरने का नहीं बल्कि वक़्त है उस पेड़ की व्यवस्था रुपी जड़ें तलाशने का। जिससे हमारा भविष्य भी हमारे अतीत की तरह ही सुदृण और खूबसूरत हो।

एडिनबरा के होलीरूड महल में क्वीन मेरी का शयन कक्ष।
तथाकथित रूप से जहां पलंग के नीचे मल त्याग करने के लिए बाउल  रखा जाता था .
In Navbharat “Avakaash” 9th Dec 2012.


Wednesday, December 5, 2012

सफ़ेद चादर...


सुबह उठ कर खिड़की के परदे हटाये तो आसमान धुंधला सा लगा। सोचा आँखें ठीक से खुली नहीं हैं अँधेरा अभी छटा नहीं है इसलिए ठीक से दिखाई नहीं दे रहा। यहाँ कोई इतनी सुबह परदे नहीं हटाता पारदर्शी शीशों की खिड़कियाँ जो हैं। बाहर अँधेरा और घर के अन्दर उजाला हो तो सामने वाले को आपके घर के अन्दर का हाल साफ़ नजर आता है।मानव स्वभाव है। हम बाहर से चाहें कैसे भी दिखें पर अपने अन्दर की कुछ चीज़ों पर पर्दा डाले रखना चाहते हैं।वो तो अपनी पुरानी भारतीय आदत है कि सुबह उठते ही घर के सारे परदे खिड़कियाँ खोल दो।सूर्य देव की प्रथम किरण घर अन्दर प्रवेश न करे तो दिन के आरम्भ होने का एहसास नहीं होता।अब यहाँ तो सूर्य देवता ही कम प्रकट हुआ करते हैं।उनके दर्शनों से दिन की शुरुआत करने की कोशिश करें तो जाने कब तक दिन ही न हो।अत: सर्दी की मजबूरी है तो खिड़की तो खुलती नहीं परन्तु परदे बिना किसी की परवाह किये मैं खोल ही देती हूँ।


थोड़ी सी आँख मल कर दुबारा देखने की कोशिश कर ही रही थी कि बच्चे चिल्लाते हुए आये ..इट्स स्नोइंग, इट्स स्नोइंग ..ओह तो यह माजरा है वो धुंध नहीं,बर्फ थी। बच्चे जो रात तक स्कूल जाने के नाम पर खिनखिना रहे थे अचानक स्कूल जाने को उतावले होने लगे।पर मेरा मुँह लटक कर घुटने तक को आने लगा। न जाने क्यों ये बर्फ अब मुझे लुभाती नहीं।अब इसे देखकर मुझे रानीखेत की सीजन में ज्यादा से ज्यादा एक बार होने वाली बर्फबारी याद नहीं आती जब पूरे दिन बाहर बर्फ में खेलते हुए उन्हीं बर्फ के गोले बनाकर, उसमें रूह अफ़ज़ाह मिलाकर उसी से पेट भरा करते थे।अब मुझे इस बर्फ से मास्को की ठिठुरती हुई ठण्ड याद आती है। जब हम 3-4 काल्गोथकियां (स्टोकिंग्स).2 टोपी , 2 जेकेट और मोटे बूट्स पहन कर फेकल्टी जाने को मजबूर हुआ करते थे। और झींका करते थे कि अजीब देश है यार, इतनी ठण्ड में स्कूल, कॉलेज खोलते हैं, और गर्मियों में 2 महीने की छुट्टियां करते हैं। हमारे यहाँ तो पहाड़ों में सर्दियों में छुट्टियां हुआ करती हैं कि बच्चे सर्दी से बचे रहें और मैदानों में गर्मियों में, ताकि झुलसती गर्मी से बच्चे बचे रहें। पर अब समझ में आता है। यही फर्क है हममें और इन पश्चिमी देशों में। वह लाइफ एन्जॉय करने का सोचते हैं और हम उससे बचने का।वह छुट्टियां किसी चीज़ से बचने के नहीं करते बल्कि साल के सबसे खुशनुमा मौसम में जिन्दगी का आनंद लेने के लिए करते हैं। 

तब अपने उन रूसी दोस्तों की बातें बड़ी अजीब लगा करती थीं जब वह हमारे गर्मियों की छुट्टियों में भारत आने की बात पर आहें भरा करते थे कि हाय ..”कितने नसीब वाले हो तुम लोग। रोज सूरज देखने को मिलता है”। और हम मन ही मन ठहाके लगाते कि  हाँ आकर देखो एक बार गर्मियों में सूरज को, सभी ज्ञात,अज्ञात भाषा में नहीं गरियाया तो नाम बदल देना।उनकी वह साल में 8 महीने बर्फ की सफ़ेद चादर के प्रति क्षुब्धता जैसे अब मुझमें भी स्थान्तरित सी हो गई है। अब मुझे गिरते हुए बर्फ के फ़ाए मुलायम फूल से नहीं रुई के उन फायों से लगते हैं जिनसे बुनकर जल्दी ही धरती पर एक सफ़ेद कपड़ा बिछ जायेगा। हाँ अब मुझे ये बर्फीली चादर किसी कफ़न की तरह लगती है। जब कफ़न हटेगा तब रह जाएगी कुचली हुई मैली बर्फ की कीचड़।जिसे हटते हुए लग जाएगा बहुत समय।ठीक उसी तरह जिस तरह कफ़न ओढ़े हुए किसी व्यक्ति के चले जाने के बाद पीछे रह जाता है मातम और अनगिनत समस्याएं।

शायद उम्र का तकाजा है अब यह बर्फ उत्साहित नहीं करती पर शायद कोई बालक अब भी मन में कहीं छिपा बैठा है तो बच्चों का साथ देने के लिए उनके साथ गोलामारी खेल लिया करती हूँ। परन्तु उस समय भी मन के किसी कोने में उन गीले जूतों से घर के अन्दर होने वाली किच – किच को साफ़ करना ही रहता है।सफ़ेद रंग मेरा पसंदीदा रंग होते हुए भी यह बर्फ अब नहीं सुहाती, और लाल रंग को हमेशा भड़काऊ रंग की संज्ञा देने वाली मैं, अब सूरज की उसी रक्तिम प्रभा से मुग्ध होती दिखती हूँ।
कौन कहता है कि मनुष्य का मूल स्वभाव कभी नहीं बदलता , मेरे ख़याल से तो देश, काल ,परिवेश के तहत मनुष्य का स्वभाव तो क्या सबकुछ बदल जाता है।बदल जाती हैं रुचियाँ, आदतें, सपने, सोच पूरा व्यक्तित्व भी।हम कब कैसे बदलते जाते हैं यह अहसास खुद हमें भी कहाँ होता है।

Tuesday, December 4, 2012

अनजाना सा डर ...




बंद खिड़की के शीशों से 
झांकती एक पेड़ की शाखाएं 
लदी – फदी हरे पत्तों से 
हर हवा के झोंके के साथ 
फैला देतीं हैं अपनी बाहें 
चाहती है खोल दूं मैं खिड़की
आ जाएँ वो भीतर 
लुभाती तो मुझे भी है 
वो सर्द सी ताज़ी हवा 
वो घनेरी छाँव 
पर मैं नहीं खोलती खिड़की 
नहीं आने देती उसे अन्दर
शायद घर में पड़े 
पुराने पर्दों के उड़ जाने का 
डर लगता है मुझे .