याद है तुम्हें ?
उस रात को चांदनी में बैठकर
कितने वादे किये थे
कितनी कसमें खाईं थीं.
सुना था, उस ठंडी सी हवा ने
जताई भी थी अपनी असहमति
हटा के शाल मेरे कन्धों से.
पर मैंने भींच लिया था उसे
अपने दोनों हाथों से.
नहीं सुनना चाहती थी मैं
कुछ भी
किसी से भी.
अब किससे करूँ शिकायत
कहाँ ले जाऊं फ़रियाद
जिसे हाजिर नाजिर जाना था,
बनाया था चश्मदीद अपना
सुना था उसने सबकुछ.
कमबख्त वह चाँद भी तो गूंगा निकला.
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