Monday, October 29, 2012

काश लौट आए वो माधुर्य. (ध्वनि तरंगों पर ..)

बोर हो गए लिखते पढ़ते
आओ कर लें अब कुछ बातें
कुछ देश की, कुछ विदेश की
हलकी फुलकी सी मुलाकातें।
जो आ जाये पसंद आपको
तो बजा देना कुछ ताली
पसंद न आये तो भी भैया
न देना कृपया तुम गाली।
एक इशारा भर ही होगा
बस टिप्पणी बक्से में काफी
जिससे अगली बार न करें
हम ऐसी कोई  गुस्ताखी।

तो लीजिये सुनिए –

लन्दन आजकल .

Tuesday, October 23, 2012

चलती कार में ठिठकी निगाहें ....


सपाट चिकनी सड़क के किनारे 

कच्चे फुटपाथ सी लकीर 
और उसके पीछे 
कंटीली झाड़ियों का झुण्ड 
आजू बाजू सहारा देते से कुछ वृक्ष 
और इन सबके साथ चलती 
किसी के सहारे पे निर्भर 
यह कार सी जिन्दगी 
चलती कार में से ना जाने 
क्या क्या देख लेती हैं 
ये ठिठकी निगाहें.


********************

पल पल झपकती 
पुतलियों के मध्य 

पनपता एक दृश्य 
श्वेत श्याम सा 
तैरता खारे पानी में 
होता बेकल 
उबरने को 
होने को रंगीन 
हर पल 
जाने क्या क्या समाये रखती हैं 
खुद में ये ठिठकी निगाहें।
(शीर्षक अमित श्रीवास्तव जी से साभार।)

Sunday, October 21, 2012

एक शाम तेजेंद्र शर्मा के नाम..

लन्दन की बारिश का यूँ तो कभी कोई भरोसा नहीं, और लन्दन वासियों की इसकी खासी आदत भी है।परन्तु कभी कभी जब किसी खास आयोजन में जाना हो यह मोहतरमा बिना किसी पूर्व सूचना के आ धमकें तो बहुत ही खला करती हैं।ऐसा ही कुछ हुआ 19अक्तूबर की शाम को जब हमें “एशियन कम्युनिटी ऑफ़ आर्ट्स” द्वारा प्रसिद्ध कथाकार तेजेंद्र  शर्मा के लेखन के माध्यम से “ब्रिटिश हिंदी साहित्य“को मनाये जाने वाले एक आयोजन में जाना था। तेजेंद्र शर्मा पिछले 35 साल से हिंदी और अंग्रेजी में लिख रहे हैं और अब तक उनके 7 कहानी संग्रह, एक कविता,ग़ज़ल संग्रह, 2 ग़ज़लों की सी डी के प्रकाशन के अलावा कई अन्य भाषाओं में इनकी रचनाओं का अनुवाद हो चूका है।

बारिश खासी तेज थी और एक अकस्मात् काम और पड़ा था। एक बार को लगा कि अपनी अनुपस्थिति के लिए उनसे माफी मांग लें। परन्तु तेजेंद्र शर्मा जी अपने मेहमानों को ऐसे अनुग्रह से आमंत्रित करते हैं कि मना करने की न हिम्मत होती है न ही मन होता है।अत: किसी तरह सब व्यवस्था करके हम नेहरु सेंटर पहुँच गए जहाँ यह आयोजन होना था और मंच डॉ निखिल कैशिक ने संभाला हुआ था।

औपचारिकताओं के बाद तेजेंद्र शर्मा जी की 8 ग़ज़लों का म्यूज़िक सी.डी. (गायिका – राधिका चोपड़ा) – रास्ते ख़ामोश हैं और तेजेन्द्र शर्मा के नये कहानी संग्रह (दीवार में रास्ता – वाणी प्रकाशन), 13 साक्षात्कारों के संकलन (बातें– शिवना प्रकाशन), तेजेन्द्र शर्मा पर 25 आलोचनात्मक लेखों का संकलन (हिन्दी की वैश्विक कहानी – अयन प्रकाशन), रचना समय विशेषांक – तेजेन्द्र शर्मा की 12 कहानियां) नामक चार पुस्तकों का विमोचन हुआ .
चित्र में बाएं से – काउंसलर सुनील चोपड़ा, सुनील धामी, कैलाश बुधवार, विभाकर बख़्शी, हरि भटनागर, के.सी. मोहन, संगीता बहादुर, ज़किया ज़ुबैरी, तेजेन्द्र शर्मा, साथी लुधियानवी। 

कार्यक्रम बेहद रोचक था और उसके कई आकर्षक पहलू थे।जिसमें से एक था भोपाल के मंच कलाकार आलोक गच्छ द्वारा तेजेंद्र जी की कहानी “एक ही रंग” का नाट्य मंचन। करीब आधे घंटे बिना रुके अकेले अलोक गच्छ ने जिस तरह दर्शकों को बांधे रखा वह अतुलनीय था।


तेजेंद्र शर्मा कहानीकार होने के साथ साथ एक गजलकार, संचालक, फिल्मकार और भी न जाने कौन कौन से  कलाकार हैं और सभी जिम्मेदारियां बहुत ही उत्साह से लेते और निभाते हैं .यह बात वहां कैलाश बुधवार, हरि भटनागर, ज़किया ज़ुबैरी आदि सभी वक्ताओं ने अपने अपने वक्तव्य में कही।कैलाश बुधवार ने तो यहाँ तक कहा कि “तेजेंद्र शर्मा ऐसे स्टार साहित्यकार हैं कि आने वाले समय में अगर कोई घूमने लन्दन आएगा तो बाकी दर्शनीय स्थलों के साथ ही तेजेंद्र को भी देखने की ख्वाइश रखेगा”।

इस बात में कोई दो राय नहीं कि वाकई हिंदी साहित्यकारों की एक परिष्कृत सी छवि से इतर तेजेंद्र शर्मा ने हिंदी को एक अलग रूप में आम इंसान की भाषा और उसके साहित्य के रूप में लाने में योगदान दिया है। 60 वर्ष की अवस्था में उनकी ऊर्जा, सकारात्मक नज़रिया और चीजों को देखने का ढंग युवाओं को भी पीछे छोड़ता दिखता है।
आज के दौर में जहाँ सत्ता हो या साहित्य कोई भी मरते दम तक अपनी कुर्सी छोड़ने को तैयार नहीं होता तेजेंद्र यह कहते हुए अक्सर पाए जाते हैं कि “हम हिंदी साहित्य की आलोचना के लिए अब तक पिछली पीढी पर निर्भर हैं हमने नई पीढी के आलोचक नहीं पैदा किये जो हिंदी साहित्य को अगले पढाव तक ले जा सकें”। 
वह युवाओं और नई पीढी को उत्साहित ही नहीं करते हैं, उन्हें मौके भी देते हैं और उनके साथ मिलकर काम भी उसी उत्साह के साथ करते है।निश्चित यह नज़रिया हिंदी साहित्य के लिए एक बेहद सकारात्मक बात है।

आयोजन में भारत के कई वरिष्ठ साहित्यकारों और लेखकों जैसे  राजेन्द्र यादव, ओम थानवी, ममता कालिया, अजित राय आदि ने भी तेजेंद्र शर्मा को इस अवसर पर अपने वीडियो सन्देश भेजे जो खासे दिलचस्प थे।जिसके बाद  शामिल चौहान ने तेजेंद्र जी की ग़ज़ल को खूबसूरती से साज़ों की संगत में गाकर सुनाया और उनकी ही एक ग़ज़ल को सुश्री संगीता बुधवार ने भी अपने स्वर दिए।बिना साज़ के संगीता जी ने अपनी सुरीली आवाज़ से गज़ब का समा बाँधा। 
चित्र में बाएं से – गौरी शंकर, कैलाश बुधवार, विभाकर बख़्शी, ज़किया ज़ुबैरी, संगीता बहादुर, के.सी. मोहन, तेजेन्द्र शर्मा। आगे बैठे हुए शमील चौहान एवं आशिक़ हुसैन।

कार्यक्रम का समापन रात्रि भोज के साथ हुआ और तेजेंद्र शर्मा जी के 60 वीं वर्षगाँठ का केक भी काटा गया।जिसमें लन्दन के साहित्य और रचनात्मक क्षेत्र से जुड़े बहुत से गणमान्य व्यक्तियों ने हिस्सा लिया।

आज 21 अक्टूबर को तेजेंद्र जी का जन्मदिन है। उन्होंने अपने जीवन के 6 दशक पूरे कर लिए हैं .यूँ कहने को इस उम्र में इंसान सठिया  जाता है,परन्तु जैसा कि तेजेंद्र जी को जानने और पहचानने वाले कहते हैं उनपर इस उम्र का कोई वश नहीं चला है।आगे के और 6 दशक भी वह इसी ऊर्जा और रचनाधर्मिता से तय करें इसी कामना के साथ,
जन्म दिन की अशेष शुभकामनायें तेजेंद्र जी !!!.


Tuesday, October 16, 2012

बदल रहा है हिंदी सिनेमा...

आजकल लगता है हिंदी सिनेमा का स्वर्णिम समय चल रहा है।या यह कहिये की करवट ले रहा है।फिर से ऋषिकेश मुखर्जी सरीखी फ़िल्में देखने को मिल रही हैं। एक के बाद एक अच्छी फिल्म्स आ रही हैं। और ऐसे में हम जैसों के लिए बड़ी मुश्किल हो जाती है क्योंकि फिल्म देखना वाकई आजकल एक अभियान हो गया है.अच्छी खासी चपत लग जाती है। तो इस बार यह चपत जम कर लगी। लगातार 3 फिल्मे आई और तीनों जबरदस्त। 
अनुराग बासु की बर्फी का स्वाद तो हम 2 हफ्ते पहले ही ले आये थे कुछ (बहुत) नक़ल की गई बातों और कुछ ओवर एक्टिंग को छोड़कर फिल्म अच्छी ही लगी थी। कम से कम क्लास के नाम पर फूहड़पन नहीं था,द्विअर्थी संवाद नहीं थे, हिंसक दृश्य नहीं थे। और कहानी भी अच्छी थी ।गाने कमाल के थे। “इत्ती सी हंसी, इत्ती सी ख़ुशी इत्ता सा टुकड़ा चाँद का ” वाह .. बोल पर ही पैसे वसूल हो सकते हैं। रणवीर कपूर ऐसे रोल में जंचते हैं और प्रियंका चोपड़ा ने कमाल किया है। यानि नक़ल भी कायदे से की गई है तो देखने के बाद मलाल नहीं हुआ।
फिर आई OMG  और दिल दिमाग एकदम ताज़ा हो गया। परेश रावल और अक्षय कुमार द्वारा निर्मित इस कॉमेडी फिल्म का निर्देशन उमेश शुक्ला ने किया है। ज़माने बाद कोई लॉजिकल फिल्म देखी. होने को कुछ काल्पनिक बातें इसमें भी हैं परन्तु 
चुस्त पटकथा और करारे संवाद इन सब को नजरअंदाज कर देने को विवश कर देते हैं। परेश रावल पूरी फिल्म को अकेले अपने कन्धों पर उठाये रहते हैं और आपका मन हर दृश्य पर तालियाँ बजाने को करता है।जिस रोचक ढंग से धर्म के नाम पर लूटपाट और अंधविश्वास की कलई इस फिल्म में खोली गई है ऐसा मैंने इससे पहले किसी फिल्म में नहीं देखा।फिल्म में परेश रावल के अलावा अक्षय कुमार मुख्य भूमिका में हैं और मिथुन चक्रवर्ती,ओम पुरी की भी छोटी छोटी भूमिकाएं है जिसमें वह फिट नजर आते हैं।प्रभु देवा और सोनाक्षी सिन्हा पर एक गीत भी फिल्माया गया है।कुल मिलाकर हास्य व्यंग्य के तड़के  साथ बढ़िया फिल्म है।
और फिर आई इंग्लिश विन्ग्लिश और सबसे आगे निकल गई। एकदम सुलझा हुआ पर बेहद जरुरी विषय.बेहद सरलता से पानी सा बहता हुआ निर्देशन और साथ बैठकर बात करती सी सहज अदाकारी।एक ऐसी फिल्म जिसे हर किसी को पूरे परिवार के साथ बैठकर देखना चाहिए। एक फिल्म जिसके किसी न किसी किरदार से आप अपने आपको जरुर सम्बंधित पायेंगे। किसी को अपनी माँ याद आती है किसी को बहन की और कोई खुद अपने आपको ही उसमें पाता है। संवाद बेहद सरल और आम रोजमर्रा की जिन्दगी से जुड़े होते हुए भी जैसे सीधे मन की अंदरूनी सतह तक जाते हैं और आपकी आँखें गीली कर जाते हैं। गौरी शिंदे और “पा “और “चीनी कम” जैसी लीक से हट कर फिल्मों को बनाने वाले आर बाल्की की यह फिल्म एक सेकेण्ड को भी पलक झपकाने नहीं देती। दृश्य दर दृश्य इस तरह से चलते हैं कि दर्शक पॉप कॉर्न खाना तक भूल जाएँ। श्रीदेवी ने इस फिल्म में 14 साल बाद फिर से पदार्पण किया है और मुख्य भूमिका शानदार तरीके से निभाई है.सुना है फिल्म में श्रीदेवी का चरित्र गौरी शिंदे की माँ से प्रभावित है।हालाँकि यह भी सच है कि हर टीनएजर बच्चे की माँ को उसमे अपना अक्स दिखाई देगा।
फिल्म में छोटे छोटे कई पात्र हैं और सब अपनी अलग छाप छोड़ते हैं। एक छोटी सी भूमिका अमिताभ बच्चन ने भी निभाई है जो इतनी जानदार है कि फिल्म को एक खुबसूरत रंग और दे देती है।
फिल्म का सबसे सशक्त पहलू मुझे उसके संवाद लगे।बेहद सहजता से कहे गए छोटे छोटे सरल संवाद जैसे पूरी कहानी कह जाते हैं।फिल्म की लम्बाई कम है और गति सुन्दर अत: अगर यहाँ मैंने संवादों या कहानी का जिक्र कर दिया तो आपको फिल्म देखने की जरुरत नहीं पड़ेगी। इसलिए इतना ही कहती हूँ  कि अगर आपने यह फिल्म नहीं देखी है तो अगली फुर्सत में ही परिवार के साथ देख आइये।
आइटम सौंग , घटिया दृश्य , फूहड़ संवाद और मारधाड़- खून खराबे वाली फिल्मों के इस दौर में ऐसी फिल्मों का आना वास्तव में एक सकारात्मक ऊर्जा और सुकून दे जाता है.और इनकी सफलता उन निर्माता निर्देशकों के लिए एक सबक है, जिन्हें लगता है कि बिना मसालों के या हॉलीवुड टाइप के लटकों झटकों के, भारत में फिल्म नहीं चलती। उन्हें अब समझ लेना चाहिए भारत की जनता बेबकूफ नहीं है, उसे अच्छी चीज की कदर आज भी है।

Wednesday, October 10, 2012

गूंगा चाँद. :)

याद है तुम्हें ?

उस रात को चांदनी में बैठकर 
कितने वादे किये थे 
कितनी कसमें खाईं थीं.
सुना था, उस ठंडी सी हवा ने 
जताई भी थी अपनी असहमति 
हटा के शाल मेरे कन्धों से.
पर मैंने भींच लिया था उसे 
अपने दोनों हाथों से. 
नहीं सुनना चाहती थी मैं 
कुछ भी 
किसी से भी.
अब किससे करूँ शिकायत 
कहाँ ले जाऊं फ़रियाद 
जिसे हाजिर नाजिर जाना था, 
बनाया था चश्मदीद अपना 
सुना था उसने सबकुछ.
कमबख्त वह चाँद भी तो गूंगा निकला.

Monday, October 8, 2012

सवा सौ प्रतिशत आजादी..

जबसे भारत से आई हूँ एक शीर्षक हमेशा दिमाग में हाय तौबा मचाये रहता है “सवा सौ प्रतिशत आजादी ” कितनी ही बार उसे परे खिसकाने की कोशिश की.सोचा जाने दो !!! क्या परेशानी है. आखिर है तो आजादी ना. जरुरत से ज्यादा है तो क्या हुआ.और भी कितना कुछ जरुरत से ज्यादा है – भ्रष्टाचार  , कुव्यवस्था, बेरोजगारी, गरीबी , महंगाई , लापरवाही, कामचोरी, आदि आदि .ऐसे में आजादी भी ज्यादा मिल जाये तो क्या बुरा है. 
अब देखिये उसी के चलते हाल में हमारे कोयला मंत्री जी ने सारे आम आपत्तिजनक बयान दे डाला. आखिर अभिव्यक्ति की आजादी जो है हमारे यहाँ.कोई भी, कहीं भी, किसी को भी, बिना सोचे समझे कुछ भी कह सकता है.वो तो उनकी भलमनसाहत थी कि उसके बाद उन्होंने माफी मांग ली. नहीं भी मांगते तो क्या फरक पड़ता आखिर मजाक करने की भी आजादी है और हमारे नेताओं का तो सेन्स ऑफ़ ह्यूमर वैसे भी काफी मजबूत है इस मामले में ।  जैसे बोफोर्स ,चारा आदि घोटाले लोग भूल गए ऐसे ही कोयला घोटाला भी भूल जायेंगे  क्यों नहीं ..आखिर भूलने की भी आजादी है हमारी जनता को.अब तो लगता है कि कुछ कहावतों को बदलने की भी आजादी लेनी पड़ेगी – जैसे – कोयले की दलाली में हाथ काले होना ..अब शायद होगा कोयले की दलाली में हाथ ही क्या दिल दिमाग सब काले होना.


यूँ इस आजादी के नमूने नेताओं के बयानों और कार्यकलापों में ही नहीं देखने में आते जगह जगह हर क्षेत्र में देखने को मिल जाते हैं.पता चला कि यू पी के एक शहर का रेलवे प्लेटफोर्म इसलिए इतना गन्दा रहता है क्योंकि वहां के कर्मचारियों ने उसकी सफाई का ठेका किसी और को ४०००रु  में दे रखा है और बाकी तनख्वाह(१५०००रु ) घर में बैठकर आराम से खाते हैं. आखिर आजाद हैं वो भी. सरकार को क्या उन्होंने तो तनख्वाह दे दी. अब उसका वो जो भी करें .और दूसरे ठेकेदार भी आजाद, उन्हें कौन सा सरकार ने रखा है. काम करें ना करें.और सरकार भी आजाद उन्होंने तो अपना काम किया, कर्मचारी नियुक्त किये, वेतन भी दिया अब और वो क्या कर सकते हैं.बाद में इसकी चर्चा एक मित्र से की तो पता चला ये तो चतुर्थ दर्जे के कर्मचारी हैं/ यह काम तो एक राज्य के अध्यापक तक करते हैं(अपना पढाने का काम किसी और को ठेके पे दे देने का). किसी तरह बात पचाई आखिर आजाद देश के नागरिक तो सभी हैं. हमने भी सोचा छोडो यार हम भी थोड़ी आजादी ले लें दिमाग से, और घूम आयें कहीं.सोचा भारत की शान ताज महल देख आया जाये. यूँ पहले भी कई बार देखा था पर अब तो ७ आश्चर्यों में भी शुमार हो गया है शायद  छठा  कुछ अलग हो.

परन्तु शहर में घुसते ही हर तरह की आजादी बिखरी हुई मिली .सड़क पर फैले कचरे के रूप में, कहीं भी खुदी हुई बंद सड़क के रूप में, सड़क बंद के होने पर किस रास्ते जाना है उसकी कोई सूचना के ना होने के रूप में, ऑटो, रिक्शा , ऊँट गाड़ी,  घोड़ा गाड़ी सब मन मर्जी के पैसे मांगने के रूप में ..सब के सब आजाद. हर तरफ आजादी ही आजादी बेशुमार.
अब आप अगर इस आजादी के आदी हैं तो निभा लेंगे नहीं तो मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी की तर्ज़ पर आपको इसे एन्जॉय करने के अलावा कोई चारा नहीं है.सो हमभी इसे एन्जॉय करते ताज की टिकट खिड़की तक पहुंचे जहाँ कम से कम चार तरह की पंक्तियाँ थीं सो वक़्त कम लगा पर उसके बाद ताज में घुसने के लिए २ पंक्तियाँ एक पुरुष के लिए जो बेहद लम्बी थी और एक महिलाओं के लिए जो बहुत ही छोटी थी.पहली बार अपने महिला होने पर सुकून मिला और पहुँच गए तुरंत चेक पोस्ट तक.जहाँ एक टॉर्च जैसी चीज को सिर्फ आपके शरीर पर घुमाया जा रहा था. पर ये क्या…वहां ड्यूटी तैनात महिला ने भी अपनी काम करने की आजादी को अपनाया और बड़े रौब से बोलीं.. इस बच्चे को जेंट्स (११ साल का लड़का ) की लाइन में भेजिए. मैं इसकी चेकिंग नहीं कर सकती.हम हैरान परेशान कि बच्चे को अकेले कम से कम १ घंटे की  पुरुषों  की पंक्ति में अकेले हम कैसे भेज दें उसपर सूर्य महाराज भी पूरी आजादी से चमक रहे थे. और जब १४ साल से कम उम्र के बच्चों की टिकट नहीं है तो उन्हें अपने अविभावक के साथ किसी भी पंक्ति में लगने का अधिकार होना चाहिए. फिर बेशक आप चेकिंग के समय उन्हें दूसरे कूपे में भेज दें. सारी दुनिया में यही होता है. और यहाँ तक कि दिल्ली मेट्रो तक में यही देखा हमने. जहाँ पुरुष , महिलाओं की पंक्तियाँ बेशक अलग थीं पर नाबालिक बच्चों को अपने साथ रखने का अधिकार तो था.पर वहां वो महिला कुछ ज्यादा ही आजाद थीं. हाथ खड़े करके एलान कर दिया मैं जेंट्स की चेकिंग नहीं करुँगी. हमें पहली बार अपने बच्चे का जेंट्स (बड़े हो जाने का ) होने का एहसास हुआ .डर गए कहीं अभी ये मोहतरमा हम पर कोई और इल्जाम ना ठोक दें. तभी एक सुरक्षाकर्मी को हमारी स्थिति पर तरस आया और वह बच्चे को दूसरी तरफ पुरुष सुरक्षा जांच के लिए ले गया यह कहता हुआ कि आइन्दा नियमों का ध्यान रखियेगा.हमने उसे कृतज्ञता से देखा और यह भी कि कुछ विदेशी बड़े आराम से बिना पंक्ति के सुरक्षा जांच के लिए पहुँच गए. आखिर अथिति देवो भव: को मानने वाला है देश हमारा . और ये सवा सौ प्रतिशत आजादी भी उन्हीं  की देन हैं तो इतना हक़ तो उनका बनता ही है .मन में एक ख़याल आया कि क्या अपना पासपोर्ट दिखाने से हमें भी वह हक़ मिल सकता था? अब बेशक आपको वो विदेशी वाला टिकट नहीं मिले पर और दूसरी बहुत सी सुविधा थीं जिनपर अपनी आजादी का प्रयोग करके हमने गौर ना करने की भूल की थी .जैसे बाहर कुछ लोग बड़ी ही निर्भीकता से कहते पाए गए थे देख लीजिये साहब .लाइन बहुत बड़ी है हमें दीजिये कुछ पैसे बिना लाइन के अन्दर पहुंचा देंगे. वर्ना बहुत कड़ी धूप है १ घंटा खड़ा रहना पड़ेगा परेशान हो जायेंगे अन्दर पानी भी नहीं मिलता. मुझे समझ में नहीं आया कि यह प्रशासन के लोग हैं या दलाल ताज दिखाने ले जा रहे हैं या उससे डराने.और स्थानीय पुलिस और सुरक्षा कर्मियों की सुरक्षा में घिरे यह देवदूत आजाद देश में पूरी तरह आजाद होने का जीता जागता सबूत पेश कर रहे थे.अब आपने यह सुविधा नहीं ली तो भुगतिए.उसके बाद वहां मौजूद पानी,जलपान आदि पर भी इसीतरह की कुछ आजादियाँ थीं. जितना सामान दुकानों के अन्दर नहीं था उससे ज्यादा बाहर फैला पड़ा था और साइड में पड़े कुछ कूड़े दान भी अपनी आजादी का जश्न मना रहे थे. 


वहां हमने मान लिया कि उत्तर प्रदेश में कोई रोक टोक किसी चीज पर नहीं है वहां हाथी जैसे खूबसूरत पशु के साथ जिन्दा इंसानों के बुत बड़े शान से खड़े कर दिए जाते हैं. उनपर करोड़ों फूंका जाता है. तो यहाँ की साफ़ सफाई या रख रखाव के लिए पैसा भला कहाँ से आएगा अब पैसा कोई पेड़ पर तो उगता नहीं. महामहिम ने भी कह दिया है.परन्तु फिर हमें बताया गया कि दुनिया की सबसे खूबसूरत इस इमारत  के परिसर की देखभाल का जिम्मा उत्तर प्रदेश सरकार का ना होकर ,केंद्र सरकार का है. अब एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जब दिल्ली मेट्रो में लोगों की भीड़ को छोड़कर सभी व्यवस्थाएं बेहतरीन ढंग से काम कर सकती हैं तो फिर देश के सर्वाधिक प्रसिद्द जगह पर व्यवस्था का यह हाल क्यों.पर शायद यही विभिन्नता हमारे देश की खासियत है यहाँ कोस कोस पर पानी और वाणी ही नहीं इंसान और व्यवस्था भी बदल जाती है.

Friday, October 5, 2012

मुझे याद है प्रिय ! याद है .Я помню, любимая, помню

कुछ दिन पहले अनिल जनविजय जी की फेस बुक दिवार पर एसेनिन सर्गेई की यह कविता  .Я помню, любимая, помню (रूसी भाषा में ) देखि. उन्हें पहले थोडा बहुत पढ़ा तो था परन्तु समय के साथ रूसी भी कुछ पीछे छूट गई. यह कविता देख फिर एक बार रूसी भाषा से अपने टूटे तारों को जोड़ने का मन हुआ.अत:  मैंने इसका हिंदी अनुवाद कर डाला .कविता अनुवाद का ज्यादा अनुभव मुझे नहीं है. अपनी समझ के अनुसार मैंने अपनी पूरी कोशिश की है कि शब्दों के साथ कविता के भावो में भी न्याय कर सकूँ.परन्तु यदि किसी को बेहतर करने की कोई गुंजाइश लगे तो कृपया जरुर बताइयेगा. फिर गाहे बगाहे स्पंदन पर आपको रूसी कवितायेँ भी मिलेंगी.
मुझे याद है प्रिय ! याद है 
तेरे बालों की वो चमक 
ना आसान था, ना सुखद 
तुझे छोड़ देना .

याद है मुझे वो शरद की रात 
वो सरसराती हुई परछाइयां 
बेशक वो दिन छोटे थे पर 
चाँद की हम पर रौशनी अधिक थी.
मुझे याद है तुने कहा था,
“ये गहरे दिन गुजर जायेंगे 
तुम भूल जाओगे प्रियतम 
किसी दूसरी के साथ 
मुझे हमेशा के लिए.”
आज लिपा* पर खिले फूल 
मुझे अहसास कराते हैं 
कैसे तेरे घुंघराले वालों पर 
मैंने फूल बिखराए थे.
दिल शांत होने को तैयार नहीं 
दुखद है किसी दूसरे को चाहना 
जैसे किसी मनपसंद कहानी में 
दूसरी के साथ तुझे याद करना .

एसेनिन सेर्गेई 
(SERGEI ESENIN. СЕРГЕЙ ЕСЕНИН)

*लिपा = एक तरह का फूलों का वृक्ष (linden)




Я помню, любимая, помню
Сиянье твоих волос.
Не радостно и не легко мне
Покинуть тебя привелось.


Я помню осенние ночи,
Березовый шорох теней,
Пусть дни тогда были короче,

Луна нам светила длинней.

Я помню, ты мне говорила:
“Пройдут голубые года,
И ты позабудешь, мой милый,
С другою меня навсегда”.

Сегодня цветущая липа
Напомнила чувствам опять,
Как нежно тогда я сыпал
Цветы на кудрявую прядь.

И сердце, остыть не готовясь,
И грустно другую любя.
Как будто любимую повесть,
С другой вспоминает тебя.

Monday, October 1, 2012

छत पर अटके ख्याल....


लन्दन का मौसम आजकल अजीब सा है या फिर मेरे ही मन की परछाई पड़ गई है उसपर.यूँ ग्रीष्म के बाद पतझड़ आने का असर भी हो सकता है.पत्ते गिरना अभी शुरू नहीं हुए हैं पर मन जैसे भावों से खाली सा होने लगा है. सुबह उठने के वक़्त अचानक जाने कहाँ से निद्रा आ टपकती है ऐसे घेर लेती है कि बस ..बिना हाथ,पैर मारे रजाई शरीर नहीं छोडती .किसी तरह बंद सी आँखों में ही नीचे उतरती हूँ. पलकों के अन्दर तब तक सिंक में भरे रात के खाने के बर्तन, सुबह की चाय के गंदे कप मडराने लगते हैं.काली चाय के लिए केटल ऑन करती हूँ .अब तो आँख खोलनी ही पड़ेगी देखना है रात की सब्जी बची है या नहीं , नहीं तो अभी बनानी पड़ेगी जल्दी से कुछ. फिर साफ़- सफाई, नाश्ता उफ़ ..याद आया रात भर खुद से लड़ लड़ कर सोई थी ,बस बहुत हुआ आलस जाने कितने लेख पेंडिंग पड़े हैं. कल सुबह से बस यही काम .ग्रीन टी का एक कप लेकर लग गई हूँ .एक एक घूँट के साथ एक एक काम. निबटाया किसी तरह सब. 


घर शांत हो गया है.खिड़की से बाहर झाँका तो बारिश हो रही है हलकी हलकी. चलो अब शाम तक सुकून है.आज घूमने भी नहीं जाना पड़ेगा.आराम से बैठकर लिख पाऊँगी.जाने कब से एक विषय दिमाग में चल रहा है , शीर्षक भी है. जाने कितनी बार भूमिका बना चुकी हूँ मन ही मन. पर कुछ पंक्तियों के बाद ही सब उलझ सा जाता है.कलम कागज से तो इस मुए कंप्यूटर ने रिश्ता तुड़वा ही दिया सो काली कॉफ़ी का बड़ा सा मग लेकर लैप पर लैपटॉप रख के बैठ जाती हूँ. फिर उसे उठाकर मेज पर रख दिया , नहीं पहले कुछ जरुरी फ़ोन काल्स कर लूं , रोज की दिनचर्या का हिस्सा है.नहीं किया तो वहां से आ जायेगा लिखने के बीच में, और फिर सब गुड़ गोबर. एक के बाद एक २-४ आधे आधे घंटे की काल्स. दिमाग की हरी बत्तियां फिर से पीली हो गई हैं. लैपटॉप पर कम्पोज खुला है.ब्लॉग का डैशबोर्ड भी खोल लेती हूँ. क्या यार आजकल कोई कुछ लिखता भी नहीं, सबने फेसबुक से गठबंधन कर लिया है. और वहां जरा जाना मतलब दल दल ..फिर तो लिख गया लेख.कल ही कोई वहां अच्छी भली सुकून परस्त जिन्दगी में जीने का मकसद ढूंढ रहा था, आज मिला तो कहूँगी शादी कर लो इतने मकसद मिलेंगे कि मकसद ढूँढने का वक़्त भी नहीं मिलेगा.छोड़ो! आज नाश्ता भी नहीं किया, कुछ बना लेती हूँ, बच्चे भी आकर चिल्लायेंगे कि रोज ब्रेड कह देती हो खाने को.रसोई में जाकर पास्ता चढ़ा देती हूँ दिमाग में अब भी वही विषय घूम रहा है मन किया वही पेन कागज लेकर लिख डालूं फिर लगा दुबारा कम्पूटर पर टाइप करना पड़ेगा डबल मेहनत . ,खा पी कर एक ही बार जुटेंगे.


पास्ता की प्लेट और लैपटॉप अच्छा कॉम्बिनेशन है .चलो कुछ तो लिख ही लिया जायेगा.दिमाग की बत्ती फिर हरी हो गई है ,मैं लिखती हूँ , कुछ पंक्तियाँ और फिर कुछ सोचने का ढोंग , फिर कुछ पंक्तियाँ.फिर थोडा ढोंग.थोड़ा सर पीछे टिका कर ऊपर देखा आसमान की तरफ, बीच में छत आ गई , कोई नहीं उसी को देख लो ज्यादातर देखा है बुद्धिजीवियों को वहीँ से आइडियाज मिला करते हैं.पेन तो है नहीं मुँह में दबाने को, पास्ता लगा काँटा ही दबा लिया है. अच्छा बन गया है आज पास्ता, बेसल (तुलसी) का अच्छा फ्लेवर आ रहा है , मिर्च जरा ज्यादा हो गईं। बच्चों को कोक मांगने का मौका मिल जायेगा.जरा एक्सप्लोएटेशन का मौका नहीं छोड़ते. अरे उन्हें क्या कहना सबका यही हाल है. क्या बड़े क्या बच्चे. सबको सौ नहीं,सवा सौ प्रतिशत आजादी मिली हुई है, जिसकी जैसी मर्जी इस्तेमाल कर रहा है,कभी अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर, कभी मौलिक अधिकारों के नाम पर,कभी सुधारों के नाम पर, कहीं संस्कृति, संस्कार और नैतिकता के नाम पर. जिसका जो मन आये कहता है, जो मन आये करता है.और जिसके पास कुछ नहीं करने को, वो किसी को भी बेवजह गरिया लेता है.आजाद देश के पूरी तरह आजाद नागरिक, समझ में नहीं आता कि व्यवस्था की वजह से भ्रष्टाचार है, या भ्रष्टाचार की वजह से ऐसी व्यवस्था.अरे यही तो.यही तो विषय था “सवा सौ प्रतिशत आजादी”. वाकई छत पर देखने से ख्याल आते हैं.तभी दरवाजे की घंटी बज जाती है ..उफ़ आज इतनी जल्दी समय हो गया बच्चों के आने का ?? 

दरवाजा खोलते ही जैसे कचरियाँ सी बिकने लगी.इस मुहावरे का मतलब अब समझ में आया है, जब मम्मी बोला करती थीं तो हंसी आती थी. ओह हो हो शांत!!! एक एक करके बोलो. बल्कि रुक जाओ थोड़ी देर. काम कर रही हूँ . “अरे पहले सुन लो ना हमारी बात. ये तो सारा दिन ही करती रहती हो. आधा घंटा अभी हमारी बात सुनो”. मन के अन्दर से कोई बोला तो आधा घंटा तुम रुक जाओ. हुह सारा दिन, जैसे और कोई काम ही नहीं है मुझे. पर बाहर से आवाज आई, ठीक है. बोलो!! सुन रही हूँ .और फिर वही रोज का फिक्स्ड ऍफ़ एम्  चालू. जब तक बंद हुआ दिमाग की बत्ती भी लाल हो चुकी थी.और ऍफ़ एम् बजाने वाले अपनी अपनी बत्ती उससे रिचार्ज करके चलते बने थे. 

उफ़ आज का मौसम ही ऐसा है शायद. ये लन्दन की बारिश भी ना, बिन बुलाये मेहमान सी जब तब टपक पड़ती है.पूरा दिन ख़राब कर दिया.अभी तो डिनर भी बनाना है आज ही कल तक का बनाकर रख देती हूँ.फिर कल कोई टेंशन नहीं. आराम से लेख पूरा करुँगी.मैं लैपटॉप का ढक्कन बंद करके फ्रिज का दरवाजा खोल लेती हूँ.ठंडी सी हवा ने फिर दिमाग में सो रहे ख्यालों को जगा दिया है. रोटी की गोलाई में विचार भी गोल गोल घूम रहे हैं.कल शायद बारिश ना हो , सूरज निकला तो उसकी गर्माहट में पक ही जायेंगे ये ख़याल .एक बार पक गए तो ललीज़ तो शर्तिया होंगे.