Monday, October 29, 2012
Tuesday, October 23, 2012
चलती कार में ठिठकी निगाहें ....
सपाट चिकनी सड़क के किनारे
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Sunday, October 21, 2012
एक शाम तेजेंद्र शर्मा के नाम..
Tuesday, October 16, 2012
बदल रहा है हिंदी सिनेमा...
Wednesday, October 10, 2012
गूंगा चाँद. :)
याद है तुम्हें ?
Monday, October 8, 2012
सवा सौ प्रतिशत आजादी..
अब देखिये उसी के चलते हाल में हमारे कोयला मंत्री जी ने सारे आम आपत्तिजनक बयान दे डाला. आखिर अभिव्यक्ति की आजादी जो है हमारे यहाँ.कोई भी, कहीं भी, किसी को भी, बिना सोचे समझे कुछ भी कह सकता है.वो तो उनकी भलमनसाहत थी कि उसके बाद उन्होंने माफी मांग ली. नहीं भी मांगते तो क्या फरक पड़ता आखिर मजाक करने की भी आजादी है और हमारे नेताओं का तो सेन्स ऑफ़ ह्यूमर वैसे भी काफी मजबूत है इस मामले में । जैसे बोफोर्स ,चारा आदि घोटाले लोग भूल गए ऐसे ही कोयला घोटाला भी भूल जायेंगे। क्यों नहीं ..आखिर भूलने की भी आजादी है हमारी जनता को.अब तो लगता है कि कुछ कहावतों को बदलने की भी आजादी लेनी पड़ेगी – जैसे – कोयले की दलाली में हाथ काले होना ..अब शायद होगा कोयले की दलाली में हाथ ही क्या दिल दिमाग सब काले होना.
यूँ इस आजादी के नमूने नेताओं के बयानों और कार्यकलापों में ही नहीं देखने में आते जगह जगह हर क्षेत्र में देखने को मिल जाते हैं.पता चला कि यू पी के एक शहर का रेलवे प्लेटफोर्म इसलिए इतना गन्दा रहता है क्योंकि वहां के कर्मचारियों ने उसकी सफाई का ठेका किसी और को ४०००रु में दे रखा है और बाकी तनख्वाह(१५०००रु ) घर में बैठकर आराम से खाते हैं. आखिर आजाद हैं वो भी. सरकार को क्या उन्होंने तो तनख्वाह दे दी. अब उसका वो जो भी करें .और दूसरे ठेकेदार भी आजाद, उन्हें कौन सा सरकार ने रखा है. काम करें ना करें.और सरकार भी आजाद उन्होंने तो अपना काम किया, कर्मचारी नियुक्त किये, वेतन भी दिया अब और वो क्या कर सकते हैं.बाद में इसकी चर्चा एक मित्र से की तो पता चला ये तो चतुर्थ दर्जे के कर्मचारी हैं/ यह काम तो एक राज्य के अध्यापक तक करते हैं(अपना पढाने का काम किसी और को ठेके पे दे देने का). किसी तरह बात पचाई आखिर आजाद देश के नागरिक तो सभी हैं. हमने भी सोचा छोडो यार हम भी थोड़ी आजादी ले लें दिमाग से, और घूम आयें कहीं.सोचा भारत की शान ताज महल देख आया जाये. यूँ पहले भी कई बार देखा था पर अब तो ७ आश्चर्यों में भी शुमार हो गया है शायद छठा कुछ अलग हो.
परन्तु शहर में घुसते ही हर तरह की आजादी बिखरी हुई मिली .सड़क पर फैले कचरे के रूप में, कहीं भी खुदी हुई बंद सड़क के रूप में, सड़क बंद के होने पर किस रास्ते जाना है उसकी कोई सूचना के ना होने के रूप में, ऑटो, रिक्शा , ऊँट गाड़ी, घोड़ा गाड़ी सब मन मर्जी के पैसे मांगने के रूप में ..सब के सब आजाद. हर तरफ आजादी ही आजादी बेशुमार.
अब आप अगर इस आजादी के आदी हैं तो निभा लेंगे नहीं तो मजबूरी का नाम महात्मा गाँधी की तर्ज़ पर आपको इसे एन्जॉय करने के अलावा कोई चारा नहीं है.सो हमभी इसे एन्जॉय करते ताज की टिकट खिड़की तक पहुंचे जहाँ कम से कम चार तरह की पंक्तियाँ थीं सो वक़्त कम लगा पर उसके बाद ताज में घुसने के लिए २ पंक्तियाँ एक पुरुष के लिए जो बेहद लम्बी थी और एक महिलाओं के लिए जो बहुत ही छोटी थी.पहली बार अपने महिला होने पर सुकून मिला और पहुँच गए तुरंत चेक पोस्ट तक.जहाँ एक टॉर्च जैसी चीज को सिर्फ आपके शरीर पर घुमाया जा रहा था. पर ये क्या…वहां ड्यूटी तैनात महिला ने भी अपनी काम करने की आजादी को अपनाया और बड़े रौब से बोलीं.. इस बच्चे को जेंट्स (११ साल का लड़का ) की लाइन में भेजिए. मैं इसकी चेकिंग नहीं कर सकती.हम हैरान परेशान कि बच्चे को अकेले कम से कम १ घंटे की पुरुषों की पंक्ति में अकेले हम कैसे भेज दें उसपर सूर्य महाराज भी पूरी आजादी से चमक रहे थे. और जब १४ साल से कम उम्र के बच्चों की टिकट नहीं है तो उन्हें अपने अविभावक के साथ किसी भी पंक्ति में लगने का अधिकार होना चाहिए. फिर बेशक आप चेकिंग के समय उन्हें दूसरे कूपे में भेज दें. सारी दुनिया में यही होता है. और यहाँ तक कि दिल्ली मेट्रो तक में यही देखा हमने. जहाँ पुरुष , महिलाओं की पंक्तियाँ बेशक अलग थीं पर नाबालिक बच्चों को अपने साथ रखने का अधिकार तो था.पर वहां वो महिला कुछ ज्यादा ही आजाद थीं. हाथ खड़े करके एलान कर दिया मैं जेंट्स की चेकिंग नहीं करुँगी. हमें पहली बार अपने बच्चे का जेंट्स (बड़े हो जाने का ) होने का एहसास हुआ .डर गए कहीं अभी ये मोहतरमा हम पर कोई और इल्जाम ना ठोक दें. तभी एक सुरक्षाकर्मी को हमारी स्थिति पर तरस आया और वह बच्चे को दूसरी तरफ पुरुष सुरक्षा जांच के लिए ले गया यह कहता हुआ कि आइन्दा नियमों का ध्यान रखियेगा.हमने उसे कृतज्ञता से देखा और यह भी कि कुछ विदेशी बड़े आराम से बिना पंक्ति के सुरक्षा जांच के लिए पहुँच गए. आखिर अथिति देवो भव: को मानने वाला है देश हमारा . और ये सवा सौ प्रतिशत आजादी भी उन्हीं की देन हैं तो इतना हक़ तो उनका बनता ही है .मन में एक ख़याल आया कि क्या अपना पासपोर्ट दिखाने से हमें भी वह हक़ मिल सकता था? अब बेशक आपको वो विदेशी वाला टिकट नहीं मिले पर और दूसरी बहुत सी सुविधा थीं जिनपर अपनी आजादी का प्रयोग करके हमने गौर ना करने की भूल की थी .जैसे बाहर कुछ लोग बड़ी ही निर्भीकता से कहते पाए गए थे देख लीजिये साहब .लाइन बहुत बड़ी है हमें दीजिये कुछ पैसे बिना लाइन के अन्दर पहुंचा देंगे. वर्ना बहुत कड़ी धूप है १ घंटा खड़ा रहना पड़ेगा परेशान हो जायेंगे अन्दर पानी भी नहीं मिलता. मुझे समझ में नहीं आया कि यह प्रशासन के लोग हैं या दलाल ताज दिखाने ले जा रहे हैं या उससे डराने.और स्थानीय पुलिस और सुरक्षा कर्मियों की सुरक्षा में घिरे यह देवदूत आजाद देश में पूरी तरह आजाद होने का जीता जागता सबूत पेश कर रहे थे.अब आपने यह सुविधा नहीं ली तो भुगतिए.उसके बाद वहां मौजूद पानी,जलपान आदि पर भी इसीतरह की कुछ आजादियाँ थीं. जितना सामान दुकानों के अन्दर नहीं था उससे ज्यादा बाहर फैला पड़ा था और साइड में पड़े कुछ कूड़े दान भी अपनी आजादी का जश्न मना रहे थे.
वहां हमने मान लिया कि उत्तर प्रदेश में कोई रोक टोक किसी चीज पर नहीं है वहां हाथी जैसे खूबसूरत पशु के साथ जिन्दा इंसानों के बुत बड़े शान से खड़े कर दिए जाते हैं. उनपर करोड़ों फूंका जाता है. तो यहाँ की साफ़ सफाई या रख रखाव के लिए पैसा भला कहाँ से आएगा अब पैसा कोई पेड़ पर तो उगता नहीं. महामहिम ने भी कह दिया है.परन्तु फिर हमें बताया गया कि दुनिया की सबसे खूबसूरत इस इमारत के परिसर की देखभाल का जिम्मा उत्तर प्रदेश सरकार का ना होकर ,केंद्र सरकार का है. अब एक बात मेरी समझ में नहीं आई कि जब दिल्ली मेट्रो में लोगों की भीड़ को छोड़कर सभी व्यवस्थाएं बेहतरीन ढंग से काम कर सकती हैं तो फिर देश के सर्वाधिक प्रसिद्द जगह पर व्यवस्था का यह हाल क्यों.पर शायद यही विभिन्नता हमारे देश की खासियत है यहाँ कोस कोस पर पानी और वाणी ही नहीं इंसान और व्यवस्था भी बदल जाती है.
Friday, October 5, 2012
मुझे याद है प्रिय ! याद है .Я помню, любимая, помню
मुझे हमेशा के लिए.”
एसेनिन सेर्गेई
Я помню, любимая, помню
Сиянье твоих волос.
Не радостно и не легко мне
Покинуть тебя привелось.
Я помню осенние ночи,
Березовый шорох теней,
Пусть дни тогда были короче,
Я помню, ты мне говорила:
“Пройдут голубые года,
И ты позабудешь, мой милый,
С другою меня навсегда”.
Сегодня цветущая липа
Напомнила чувствам опять,
Как нежно тогда я сыпал
Цветы на кудрявую прядь.
И сердце, остыть не готовясь,
И грустно другую любя.
Как будто любимую повесть,
С другой вспоминает тебя.
Monday, October 1, 2012
छत पर अटके ख्याल....
लन्दन का मौसम आजकल अजीब सा है या फिर मेरे ही मन की परछाई पड़ गई है उसपर.यूँ ग्रीष्म के बाद पतझड़ आने का असर भी हो सकता है.पत्ते गिरना अभी शुरू नहीं हुए हैं पर मन जैसे भावों से खाली सा होने लगा है. सुबह उठने के वक़्त अचानक जाने कहाँ से निद्रा आ टपकती है ऐसे घेर लेती है कि बस ..बिना हाथ,पैर मारे रजाई शरीर नहीं छोडती .किसी तरह बंद सी आँखों में ही नीचे उतरती हूँ. पलकों के अन्दर तब तक सिंक में भरे रात के खाने के बर्तन, सुबह की चाय के गंदे कप मडराने लगते हैं.काली चाय के लिए केटल ऑन करती हूँ .अब तो आँख खोलनी ही पड़ेगी देखना है रात की सब्जी बची है या नहीं , नहीं तो अभी बनानी पड़ेगी जल्दी से कुछ. फिर साफ़- सफाई, नाश्ता उफ़ ..याद आया रात भर खुद से लड़ लड़ कर सोई थी ,बस बहुत हुआ आलस जाने कितने लेख पेंडिंग पड़े हैं. कल सुबह से बस यही काम .ग्रीन टी का एक कप लेकर लग गई हूँ .एक एक घूँट के साथ एक एक काम. निबटाया किसी तरह सब.
घर शांत हो गया है.खिड़की से बाहर झाँका तो बारिश हो रही है हलकी हलकी. चलो अब शाम तक सुकून है.आज घूमने भी नहीं जाना पड़ेगा.आराम से बैठकर लिख पाऊँगी.जाने कब से एक विषय दिमाग में चल रहा है , शीर्षक भी है. जाने कितनी बार भूमिका बना चुकी हूँ मन ही मन. पर कुछ पंक्तियों के बाद ही सब उलझ सा जाता है.कलम कागज से तो इस मुए कंप्यूटर ने रिश्ता तुड़वा ही दिया सो काली कॉफ़ी का बड़ा सा मग लेकर लैप पर लैपटॉप रख के बैठ जाती हूँ. फिर उसे उठाकर मेज पर रख दिया , नहीं पहले कुछ जरुरी फ़ोन काल्स कर लूं , रोज की दिनचर्या का हिस्सा है.नहीं किया तो वहां से आ जायेगा लिखने के बीच में, और फिर सब गुड़ गोबर. एक के बाद एक २-४ आधे आधे घंटे की काल्स. दिमाग की हरी बत्तियां फिर से पीली हो गई हैं. लैपटॉप पर कम्पोज खुला है.ब्लॉग का डैशबोर्ड भी खोल लेती हूँ. क्या यार आजकल कोई कुछ लिखता भी नहीं, सबने फेसबुक से गठबंधन कर लिया है. और वहां जरा जाना मतलब दल दल ..फिर तो लिख गया लेख.कल ही कोई वहां अच्छी भली सुकून परस्त जिन्दगी में जीने का मकसद ढूंढ रहा था, आज मिला तो कहूँगी शादी कर लो इतने मकसद मिलेंगे कि मकसद ढूँढने का वक़्त भी नहीं मिलेगा.छोड़ो! आज नाश्ता भी नहीं किया, कुछ बना लेती हूँ, बच्चे भी आकर चिल्लायेंगे कि रोज ब्रेड कह देती हो खाने को.रसोई में जाकर पास्ता चढ़ा देती हूँ दिमाग में अब भी वही विषय घूम रहा है मन किया वही पेन कागज लेकर लिख डालूं फिर लगा दुबारा कम्पूटर पर टाइप करना पड़ेगा डबल मेहनत . ,खा पी कर एक ही बार जुटेंगे.




