मैं नहीं चाहती
लिखूं वो पल
तैरते हैं जो
आँखों के दरिया में
थम गए हैं जो
माथे पे पड़ी लकीरों के बीच
लरजते हैं जो
हर उठते रुकते कदम पर
हाँ नहीं चाहती मैं उन्हें लिखना
क्योंकि लिखने से पहले
जीना होगा उन पलों को फिर से
उखाड़ना होगा
गड़े मुर्दों को
कुरेदने होंगे
कुछ पपड़ी जमे ज़ख्म
और फिर उनकी दुर्गन्ध
बस जाएगी मेरे तन मन में
और बदबूदार हो जायेगा
आसपास का सारा माहोल .
हाँ इसीलिए
नहीं लिखना चाहती मैं वो पल
पर मेरे ना लिखने से
वो मर तो ना जायेंगे
सांस लेते रहेंगे
मन के किसी कोने में
गाहे बगाहे भड़काते रहेंगे मुझे
कि मैं लिखूं कुछ …कुछ तो…
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