Monday, June 25, 2012
ऐसे कुछ पल...
Monday, June 18, 2012
लॉफिंग .....बुद्धा नहीं...पुलिस ..
तो यहाँ की पुलिस मुझे ज्यादा खौफनाक नजर आती है.उनका डील डौल , चेहरे के भाव, बॉडी लैंगवेज़ और छवि- जब भी कान फाडू सायरन बजाती इनकी गाड़ियाँ पास से गुजरती हैं ,बिना किसी गलती या गुनाह के मेरे दिल की धड़कन दोगुनी तो हो ही जाती है. हालाँकि मानव अधिकारों की मजबूती वाले इस देश में इनसे इतना खौफजदा होने का कोई कारण नहीं परन्तु फिर और कोई कारण मुझे समझ में नहीं आता तो सोचती हूँ जरुर इस डर के पीछे होगा “राज कोई पिछले जनम का”.इन्हीं किसी की गोली से हुई होगी मेरी मौत. ऐसे में भला हो ओलंपिक और एक सिमोंस लोरेंस नामक पुलिस अफसर का जिनका पिछले साल नॉटिंघम कार्निवाल के दौरान एक विडिओ यू ट्यूब पर बेहद सराहा गया इस विडियो में एक पुलिस अफसर को भी आम जनता की तरह कार्निवाल में ख़ुशी मनाते और झूमते देखा गया जिससे उत्सवी माहौल में और भी इजाफा हुआ.
और इसी से प्रेरणा लेकर लन्दन पुलिस ने इन ओलम्पिक खेलों के दौरान एक बहुत ही सकारात्मक कदम उठाया है.
वह यह कि अब लन्दन पुलिस को खेलों के दौरान पहरेदारी और सुरक्षा करते समय जनता के सामने मुस्कुराते रहना होगा.यानि अपना काम तो करना होगा पर हँसते मुस्कुराते हुए.ओलम्पिक सुरक्षा के इंचार्ज असिस्टेंट कमिश्नर क्रिस अलिसन ने कहा है. ” हम अपने अधिकारीयों को कह रहे हैं कि हमें अपना काम पूरी मुस्तैदी से करना है, अपराधों को रोकना है , शांति बनाये रखनी है परन्तु साथ ही साथ अपने काम को आनंददायी भी बनाना है”वो भी ऐसे समय में जब लन्दन पुलिस पर रंगभेद और भ्रष्टाचार के काफी आरोप लगे.और इसके चलते कई पुलिस अफसरों की पेंशन रोक दी गई और कईयों को निलंबित कर दिया गया.अब उसी की भरपाई के लिए ओलम्पिक खेलों के दौरान अतिरिक्त भार उनपर सौंपा जाएगा.अपनी ड्यूटी के अलावा भी अतिरिक्त घंटे उन्हें अपने काम को देने होंगे.और सबसे अच्छी और बड़ी बात यह कि पिछले समय में इन इल्जामो से जूझती लन्दन पुलिस के लिए यह जीवनभर का महत्वपूर्ण और सुखद अनुभव है और इसमें एक हैप्पी पुलिस की छवि लोगों को दिखाने का यह सबसे अच्छा और सुनहरा मौका है.
हालाँकि ये प्रयास शाही शादी के दौरान भी किया गया था परन्तु वह एक दिन की बात थी अब सत्तर दिनों तक पुलिस के चेहरे पर मुस्काम कायम रखना शायद मुश्किल होगा. परन्तु लन्दन उत्साह और ख़ुशी से छलक रहा है अत: उम्मीद है कि ऐसे माहौल में पुलिस भी उसी रंग में रंग जाएगी.
जो भी हो मुस्कान ओढ़ कर काम करने के परिपत्र ओलम्पिक में मुस्तैद सभी अधिकारियों को दिए जा चुके हैं
अत: परम्परावादी कठोर चेहरे वाली पुलिस से इतर खुशगवार पुलिस से मिलना खासा दिलचस्प होगा.
आखिर पुलिस वाले भी इंसान होते हैं और उनका काम जनता को डराना नहीं उनकी सुरक्षा करना होता है. और हो सकता है कि लन्दन और ओलम्पिक के अनेकों स्मृति चिह्नों के साथ ही “लाफिंग बुद्धा” की तर्ज पर “लाफिंग पुलिस” के पुतले भी बाजार में आ जाएँ.यदि ऐसा हुआ तो एक फुल साइज का बुत हम भी अपने घर में जरुर सजायेंगे क्या पता इन्हीं की बदौलत मेरे पिछले जन्म का डर भी कुछ कम हो जाये. इसलिए मेरी तरफ से तो लन्दन पुलिस के इस प्रयास को – हिप्प हिप्प हुर्रे ...
(दैनिक जागरण में लन्दन डायरी स्तंभ के तहत प्रकाशित )
Wednesday, June 13, 2012
कई बार यूँ भी होता है...
अँधेरे मोड़ पर
जहाँ ना हो मंजिल की तलाश ,
ना हो राह खो जाने का भय
ना चौंधियाएं रौशनी से आँखें.
ना हो जरुरत उन्हें मूंदने की
टटोलने के लिए खुद को,
पाने को अपना आपा.
जहाँ छोड़ सकूँ खुद को
बहते पानी सा,
मद्धिम हवा सा
झरते झरने सा
निश्चिन्त,हल्का और शांत..
Thursday, June 7, 2012
करवट लेते सपने...
सपने भी कितनी करवट बदलते हैं न .आज ये तो कल वो कभी वक्त का तकाज़ा तो कभी हालात की मजबूरी और हमारे सपने हैं कि बदल जाते हैं. इस वीकेंड पर एक पुरानी मॉस्को में साथ पढ़ी हुई एक सहेली से मुलाकात हुई . १५ साल बाद साथ बैठे तो ज्यादातर बातें अब अपने अपने बच्चों के कैरियर की होती रहीं. मुझे एहसास हुआ कि कितना समय बदल गया.. एक वो दिन थे जब हम दोस्त मिलकर बैठते थे तो बातें हमारे अपने कैरियर की हुआ करतीं थीं. सबका लगभग एक सा ही मकसद, कि पढाई , उसके बाद अच्छी सी जॉब, जी भर कर काम करेंगे फिर काम से मन थोडा भरेगा तो शादी कर लेंगे , फिर जी भर के मस्ती,घूमना फिरना और फिर उसके बाद बच्चे. कितनी आसान जान पड़ती थी जिंदगी. अपने इस बने बनाए प्लान से इतर भी कुछ हो सकता है, ये न तब सोचने का मन था न ही जरुरत.
मॉस्को से वापस आते ही दिल्ली में एक न्यूज चैनल में असिस्टेंट न्यूज प्रोड्यूसर की जॉब मिल गई शुरू में तो सब अरबिक- ग्रीक लगा परन्तु धीरे धीरे काम समझ में आने लगा तो लगा कि पता नहीं क्यों लोग अपनी जॉब से अघाए घूमते हैं मेरे लिए तो जिंदगी के सबसे खूबसूरत दिन थे वे. सुबह काम पर निकलते वक्त जरुर हबड़- तबड होती परन्तु शाम को लौटते वक्त एक ऐसी संतुष्टि का एहसास होता जैसे एवरेस्ट फतह करके आये हैं. मुझे अपने काम में मजा आता था. शुरू के तीन महीने ट्रेनिंग के थे उसमें हमें फाईनल न्यूज से पहले के जो काम सीनियर कह देते थे हम कर देते थे. हिंदी टाइपिंग की ए बी सी आती नहीं थी. तो वही अपनी कछुआ चाल से १-१ उंगली से किट किट करके अपनी शिफ्ट की २-४ न्यूज स्टोरी बना ही लेते थे, कुछ वॉयस ओवर किये और बस हो गया. सामान्यत: इसी तरह का रूटीन हुआ करता था.
परन्तु वक्त एक सा तो चलता नहीं एक दिन अपनी सुबह की शिफ्ट में मैं ऑफिस पहुंची तो देखा हमारा हिंदी का न्यूज एरिया एकदम सूनसान सा पड़ा है.सोचा आ जायेंगे कुछ देर में लोग, और एक कंप्यूटर पर बैठ कर मैं अपनी किट पिट करने लगी परन्तु १० मिनट हो गए फिर भी कोई नहीं दिखा और दिन की पहली न्यूज जाने का समय पास आ रहा था.आखिरकार एक सीनियर रिपोर्टर दिखाई पड़े तो उन्हें स्थिति से अवगत कराया. उन्होंने पूछताछ की तो पता चला कि किसी ग़लतफ़हमी के चलते आज अचानक सबने ही इस शिफ्ट से ऑफ ले लिया है. अब तो जैसे मेरे सिर पर आसमान टूट पडा. अब क्या होगा?मैं अकेली ? न्यूज तो जानी है. मन में आया कि मैं ही क्यों आई आज .ट्रेनी की तो ड्यूटी लगती नहीं है.पर अब तो आ गई थी कुछ नहीं हो सकता था. मैं चुपचाप खड़ी थी. मेरी जिम्मेदारी थी बताना कि कोई नहीं है और मैंने बता दिया अब इन्चार्ज लोग जाने क्या करना है. तभी इंग्लिश न्यूज एरिया से आवाज आई.अरे तुम हो न, करो तैयार. बाकी हम हैं न संभाल लेंगे. मुझे काटो तो खून नहीं अरे!!!.मैं अकेले कैसे चार लोगों का काम करुँगी रिपोर्ट लेना, न्यूज ढूँढना , स्टोरी बनाना, ग्राफिक्स डालना , अनुवाद करना और उसपर सबसे बड़ा काम हिंदी में टाइप करना ये सब करते करते मुझे रात हो जायेगी.हाथ पैर मेरे पहले ही फूले हुए हैं. मेरा सफ़ेद चेहरा देख फिर उस तरफ से आवाज आई अरे डरो मत तुम शुरू तो करो मैं हूँ न अभी डेढ़ घंटा है फटाफट न्यूज बनाकर ले आओ फिर मैं देखता हूँ. मैं जड़वत सी अपने वर्क स्टेशन पर गई और किसी तरह काम में जुट गई टाइप करना मेरे बस का था नहीं किसी तरह जल्दी जल्दी पेपर पैन से पूरी न्यूज तैयार की और सीधा पहुँच गई उन्हीं महानुभाव के पास कि ये लीजिए अब जो करना है आप जाने .बुलेटिन जाने में १० मिनट बचे थे वो कंप्यूटर पर बैठे और मुझसे बोले इसे जितनी तेज पढ़ सकती हो पढ़ती जाओ बस. मैंने बिना सोचे समझे नॉन स्टॉप पढ़ना शुरू कर दिया और उनकी उँगलियाँ टकाटक टकाटक कीबोर्ड पर ऐसे चलने लगीं जैसे उनमें कोई मशीन लगी हुई थी. मैं जरा नजर उठाकर उँगलियाँ देखने लगती तो आवाज आती पढ़ो न.और मैं फिर पढ़ने लग जाती आखिर कार २० मिनट का बुलेटिन ८ मिनट में उन्होंने टाइप किया और मुझे कहा जाओ भाग कर न्यूज रूम में देकर आओ. मैंने यंत्रवत उनकी आज्ञा का पालन किया और आकर देखा तो वे बड़े इत्मीनान से किसी से कह रहे थे “आज सबके सब इस शिफ्ट से छुट्टी कर गए, शिखा ने अकेले निकाला है आज बुलेटिन”. मैं एकटक उन्हें देखती रह गई ये आदमी है या मशीन मुझे यूँ घूरते देख उनके साथ खड़े व्यक्ति ने कहा अरे ये हमारे सुपर मैन हैं,कुछ भी कर सकते हैं. तुम्हें पता है ये २ कंप्यूटर पर एक साथ, एक हाथ से हिंदी और एक हाथ से इंग्लिश टाइप कर सकते हैं. दोनों भाषाओँ पर इतनी जबर्दास्त्त पकड़ , एक इंसान किस हद्द तक स्किल्ड और टेलेंटेड हो सकता है ये उस दिन मैंने जाना.
उसके बाद मुझे तभी होश आया जब मैंने अपनी पीठ पर कुछ शाबाशी के थपके महसूस किये. उसके बाद पूरे दिन वो जिससे भी मिले सबसे कहते रहे आज एक ट्रेनी ने अकेले बुलेटिन निकला है.उनका नाम मुझे अब ठीक से याद नहीं ..कुछ मधु सूदन जैसा था.और काफी सीनियर पोस्ट पर थे. वे भी शायद न पहचान पायें मुझे. पर ये शब्द जब जब मुझे सुनाई पड़ते खुद पर गर्व सा हो आता और काम के प्रति श्रद्धा और जोश बढ़ता जाता और सपने एक बार फिर साफ़ साफ़ दूर दूर तक नजर आने लगते.
पर इस सबके बावजूद कुछ महीनो बाद एक दिन मैंने यह जॉब छोड़ने का निश्चय कर लिया मेरी बेटी होने वाली थी और मुझे जिम्मेदारियों की खिचड़ी बनाना जरा भी पसंद नहीं था.परन्तु जिस दिन जॉब छोड़कर आई बुक्का फाड़ कर रोई जैसे एक हिस्सा मेरे जीवन का छूट गया था . पर फैसला मेरा अपना था और मैं उसपर पूरी तरह निश्चिन्त थीं कि अगर बच्चे करने हैं तो अपना १०० % उन्हीं को देना है.एक बार फिर सपने बदल गए और इसी भावना और फ़र्ज़ के साथ जिंदगी काटने लगी,और शायद यूँ ही कटती रहती अगर फिर अचानक एक घटना न घट गई होती. अगर मेरी ११ साल की बच्ची से किसी ने न पूछ लिया होता कि बेटे तुम बड़ी होकर क्या बनोगी ?. और उसका जबाब आया “मम्मी …घर में रहूंगी, घर के काम करुँगी, खाना बनाऊँगी, बच्चों को स्कूल छोड़ कर आउंगी, लेकर आउंगी”.उसका ये जबाब सुनते ही मेरे अंदर एकता कपूर का सीरियल और हेमा मालिनी दोनों एक साथ प्रवेश कर गई ..नहीईई………………..तीन बार गूंजा…. हे भगवन ! ये क्या हो गया. इस बच्ची ने मुझे अपना आइडियल मान लिया था वो मेरे जैसा बनना चाहती थी. और मैं ?? उसे अपने जैसा बनते नहीं देखना चाहती थी. हम माएं कभी कभी बड़ी ढोंगी हो जाती हैं.खुद के लिए उसूल कुछ और, अपने बच्चों के लिए कुछ और. उस दिन पहली बार मुझे अपने फैसले पर गुस्सा आया.मुझे याद आया जॉब छोड़ने के कुछ दिन बाद उन्हीं सीनियर से फिर एक शादी के मौके पर मुलाकात हुई तो मेरे पति ने उनसे मजाक में शिकायत की “आप लोगों ने बहुत काम लिया मेरी बीवी से मेरी नई नई शादी का सारा क्रीम समय छीन लिया” तो उनका जबाब आया “और आपने हमारा क्रीम एम्प्लोयी हमसे छीन लिया” पहली बार अहसाह हुआ काश नहीं छोड़ी होती मैंने नौकरी.
मैंने बेटी को समझाने की कोशिश की ..बेटा ऐसा नहीं है. मैं भी जॉब करती थी ये कुछ उपरोक्त गर्व भरे किस्से भी उसे सुनाये पर ये सब जैसे मुझे खुद को ही “वंस अपॉन अ टाइम” से शुरू हुई कोई कहानी भर लग रहे थे. अब जरुरत कहानी की नहीं किसी ऐसे काम की थी जो घर के काम से अलग लगे और तभी मिला मुझे यह ब्लॉग और मैं लिखने लगी बहुत कुछ निरर्थक लिखा और कुछ सार्थक भी. बेशक ये काम नहीं था .परन्तु क्या फालतू लिखती रहती हो के तानो के साथ बच्चों की गर्व से भरी दृष्टि थी. और मेरे मन का सुकून.
और फिर एक दिन बेटी स्कूल से आई तो चिल्लाकर बोली Mom !! I need your book. my teacher is asking for it . She was asking every one about their parents today at lesson.As i said my Mom is a writer .she said ..wow Thats posh..and asked for a copy of your book.
वो बोले जा रही थी और मेरी आत्मा सुकून पा रही थी. सपने फिर करवट लेने लगे थे.यूँ मेरा ये हिंदी लेखन कहीं से भी पॉश नहीं, न ही कोई प्रोफेशन है. पर कम से कम मेरे बच्चों का आईडियल बनने में अब मुझे गुरेज नहीं.अब मेरे सपनो में मेरे बच्चों के साथ मेरा अपना काम भी शामिल है.