Wednesday, May 30, 2012

पॉश खेल ..

विशुद्ध साहित्य हमारा कुछ 
उस एलिट खेल की तरह है
जिसमें कुछ  सुसज्जित लोग 
खेलते हैं अपने ही खेमे में 
बजाते हैं ताली
एक दूसरे  के लिए ही 
पीछे चलते हैं कुछ  अर्दली 
थामे उनके खेल का सामान 
इस उम्मीद से शायद  कि 
इन महानुभावों की बदौलत 
उन्हें भी मौका मिल जायेगा कभी 
एक – आध  शॉट  मारने  का 
और वह  कह सकेंगे  
हाँ वासी हैं वे भी

उस  तथाकथित  पॉश  दुनिया के 

जिसका —
बाहरी दुनिया के आम लोगों से
यूँ कोई सरोकार नहीं होता

Friday, May 25, 2012

ज़रा सोचिये ..

 मैं मानती हूँ कि लिखा दिमाग से कम और दिल से अधिक जाता है, क्योंकि हर लिखने वाला खास होता है, क्योंकि लिखना हर किसी के बस की बात नहीं होती और क्योंकि हर एक लिखने वाले के लिए पढने वाला जरुरी होता है और जिसे ये मिल जाये तो “अंधे को क्या चाहिए  दो आँखें” उसे जैसे सबकुछ मिल जाता है.और इसीलिए उसके यह कहने के वावजूद “कि कोई बड़ी बात नहीं है पर आपको बता रहा हूँ” मेरा ये पोस्ट लिखना जरुरी हो जाता है .आखिर हर एक ब्लॉगर भी जरुरी होता है और जो ब्लॉगर दूसरे ब्लॉगर के मना करने के वावजूद ना लिखे वो भला कैसा ब्लॉगर:):). इसीलिए सुनिए –


अभी कल…  नहीं शायद परसों… अजी छोड़िये क्या फर्क पड़ता है .हाँ तो इन्हीं किसी एक दिन हमारे एक बहुत ही काबिल ब्लॉगर 
अभिषेक कुमार अपने एक मित्र के साथ अपने शहर के एक मॉल में घूम रहे थे. अब ये तो बताने की जरुरत नहीं कोई विषय ही खोज रहे होंगे वहां. तो एकाएक पीछे से एक आवाज आई –


“are you  blogger abhi?”, i am buni..you  write so well…i read your blog…i have seen you one or two times in this mall..but today decided to meet you.”


अब बेशक अभि के लिए यह बड़ी बात ना हो हमने भी वैसे नापी नहीं कि बड़ी थी या छोटी. परन्तु ख़ुशी की बात तो अवश्य थी. आखिर किसी लिखने वाले के लिए इससे बड़ा पुरस्कार क्या हो सकता है कि कोई अनजान पाठक उसका लिखा गंभीरता से पढता है. मुझे यकीन है कि जरुर अभि को और उसके साथ उसके दोस्त को भी एक सेलेब्रिटी जैसा अहसास हो रहा होगा .और गर्व भी कि उसके दिल से निकली बातें वो जिस मेहनत से ब्लॉग पर सजाता है वह कितनी खास हैं, कितनी सुन्दर और कितनी जरुरी.


यूँ यह बात बेशक अभिषेक की है. परन्तु गर्व का मौका हम सब का है और शायद एक प्रेरणादायक वाकया भी , कि जो ब्लॉग हम में से कोई भी,यह सोच कर लिखता है कि हमारा ब्लॉग हमारी बपौती है.हम जो मर्जी लिखें, किसी को क्या लेना देना .तो हमें कुछ भी लिखते समय यह जरुर सोचना चाहिए कि बेशक ब्लॉग हमारा है और उस पर लिखने का अधिकार भी हमारा. परन्तु उसे पढने वाले अनगिनत हो सकते हैं. वे भी जो हमें जानते हैं और वे भी जो हमें बिलकुल नहीं जानते और जो हमारे लेखन से ही हमारे व्यक्तित्व का एक बुत बना लेते हैं. मुझसे कई बार कुछ लोग यह कहते हैं कि अरे वो पोस्ट ..वो तो हमने किसी को जलाने , सताने , मनाने, लुभाने वगैरह वगैरह के लिए लिखी थी. पर जरा सोचिये आपने जिसके लिए भी लिखी हो पर पढ़ी वो न जाने कितने जाने अनजाने लोगों ने होगी. और उन्हें तो यह बात नहीं मालूम कि ये आपने क्यों और किसके लिए लिखी थी. उनके लिए तो वह एक पोस्ट है और उसी से लेखक के प्रति एक धारणा उनके मस्तिष्क में बन जाती है. फिर बेशक वो आपके किसी खास परिस्थिति में लिखे एक वाक्य से ही क्यों ना हो.


एक लिखने वाला जब खुद को एक लेखक कहता है तो उसकी एक सामाजिक जिम्मेदारी भी बन जाती है

सोचिये जब यह ब्लोग्स नहीं थे. लिखने वाले तो तब भी थे परन्तु पाठक उनमें से कुछ खास किस्मत वालों को ही मिला करते थे और प्रतिक्रिया देने वाले भी सिमित हुआ करते थे. परन्तु ऐसे भी अनगिनत लिखने वाले हुआ करते थे जो चाहे कितना ही बेहतर क्यों नहीं लिखते उनका लिखा कुछ पन्नो में सिमित रह जाता होगा. पर आज हमारे पास ब्लॉग के रूप में एक ऐसा माध्यम है जहाँ हम बिना किसी परेशानी के अपनी अभिव्यक्ति असीमित वर्ग तक अनजाने ही पहुंचा देते हैं.और यदि आपने इमानदारी से लिखा है और वह पठनीय है तो अपना पाठक वर्ग खुद ही तलाश लेता है. आप बिना किसी खास परिश्रम के बन जाते हैं सेलेब्रिटी , आपके फैन्स भी बन जाते हैं, आपको अपना लिखना सार्थक लगने लगता है. और आपकी निष्ठा  और मेहनत लेखन के प्रति और बढ़ती जाती है. 


जैसा कि मुझे यकीन है कि अभि के साथ भी हुआ होगा. मुझे नहीं पता इस वाकये के बाद उस रात उसे नींद आई होगी या नहीं:) परन्तु मुझे विश्वास है कि अब उसकी लेखनी की धार और तेज़ होगी और दोगुने उत्साह से निरंतर चलती रहेगी.


तो आइये नियामत के रूप में मिले इस ब्लॉग को अभिव्यक्ति का एक सार्थक माध्यम बनाये. व्यक्तिगत कुंठा और शत्रुता का माध्यम नहीं. क्या मालूम राह चलते कभी आपको भी आपका कोई अनजान पाठक मिल जाये तो आपको अपने उस पाठक से नजरे मिलाने में ख़ुशी और गर्व हो , शर्मिंदगी नहीं.


* और अब एक और बात – आज  ही भारत में रूसी उच्चायुक्त श्री एलेक्जेंडर कदाकिन  का  मेरी पुस्तक “स्मृतियों में रूस ” पर प्रतिक्रया स्वरुप  एक  पत्र  मिला है 🙂 आप भी पढ़िए .

Tuesday, May 22, 2012

"मैं" बनाम "हम"

इस पार से उस पार 

जो राह सरकती है
जैसे तेरे मेरे बीच से 
होकर निकलती है
एक एक छोर पर खड़े
अपना “मैं “सोचते बड़े
एक राह के राही भी
कहाँ  “हम” देखते हैं.


निगाहें भिन्न भिन्न हों
दृश्य फिर अनेक हों
हो सपना एक ,फिर भी
कहाँ संग देखते हैं
रात भले घिरी रहे
या चाँदनी खिली रहे
तारों में ध्रुव तारा कहाँ
सब देखते हैं.

Monday, May 14, 2012

एक बासंती दिन ..हायड पार्क लन्दन..



लन्दन में इस बार बसंत का आगमन ऐसा नहीं हुआ जैसा कि हुआ करता था. आरम्भ में ही सूखा पड़ने की आशंका की घोषणा कर दी गई. और  फिर लगा जैसे  बेचारे बादल  भी डर गए कि नहीं बरसे तो उन्हें भी कोई बड़ा जुर्माना ना कर दिया जाये और फिर उन्हें तगड़ी ब्याज दर के साथ ना जाने कब तक उसकी भरपाई करनी पड़े.  तो बेचारों ने जो बरसना शुरू किया, पूरा महीना बरसते ही रहे.बड़ी मुश्किल से इस सप्ताहांत में सूर्य  देवता को निकलने का चांस मिला तो हमें भी घर में दीवारें काटने सी लगीं. लगा बेचारे सूर्य महाराज अकेले हैं उन्हें थोड़ी कम्पनी दी जाये और लगे हाथ थोडा “विटामिन डी”ले लिया जाये.तो तुरत फुरत कार्यक्रम बना डाला लन्दन के “रॉयल हायड पार्क” का, सेंटर लन्दन में बने इस पार्क से होकर कई बार हम निकले तो थे परन्तु इसका  आकार देख कर कभी उसके अन्दर जाने की हिम्मत नहीं हुई. हर बार अपने दो पहिये की गाड़ी को लेकर आशंकित होते हुए हम बाहर से ही लौट आते थे .इस बार संकल्प किया पूरा पार्क देख कर ही आएंगे.

 गुफा नुमा पेड़
लन्दन के इस  सबसे खूबसूरत पार्क को १५३६ ई में हेनरी (आठवाँ ) ने  वेस्ट मिनस्टर एब्बी के भिक्षुओं से प्राप्त किया था.तब यहाँ वे हिरण और जंगली सूअरों की तलाश में भटकते देखे जाते थे.उसके बाद जेम्स प्रथम ने इस पार्क को कुछ खास लोगों के लिए खोल दिया.फिर चार्ल्स प्रथम ने इस पार्क को पूरी तरह बदल डाला और १६३७ में इसे आम जनता के लिए खोल दिया गया .तब से आजतक इस पार्क में ना जाने कितने प्रमुख राष्ट्रीय उत्सव और आयोजन हो चुके हैं.कितनी ही फिल्म की शूटिंग हो चुकी है, और आने वाले ओलम्पिक २०१२  खेलों का भी सीधा प्रसारण और शाम को संगीत मयी संध्या का भव्य आयोजन भी यहीं होने वाला है.
३५० से भी ज्यादा एकड़ भूमि को घेरे हुए इस पार्क में सभी सुविधाएँ हैं.बोटिंग , स्विमिंग, सायक्लिंग, स्केटिंग, टेनिस कोर्ट, रेस्टौरेंट  वगैरह वगैरह .परन्तु हमारा मुख्य उद्देश्य था इसके अन्दर बने “डायना मेमोरिअल” को देखना. खूबसूरत पेड़ों से घिरि, आजू – बाजु हरे घास के मैदान से सजी, छोटी छोटी सड़कों पर चलते हुए पार्क का दृश्य बहुत ही मनोहारी था और कुछ दिखावटी ना होते हुए भी जैसे बहुत कुछ इतना दर्शनीय  कि समझना मुश्किल था कि यह प्राकृतिक है या इंसान का बनाया हुआ. जैसे कि  एक पेड़ जिसकी शाखाएं इसतरह से चारों और झुकी हुईं थीं कि अंदर एक गुफा सी बनातीं थीं.पार्क के बीच में एक बहुत ही खूबसूरत झील भी है जिसमें हंस और बत्तख खेलते हैं और इंसान नौका विहार करते हैं. इसी झील के किनारे किनारे हंसों की खूबसूरत क्रीडा देखते हम पहुंचे डायना स्मारक पर- जिसका उद्घाटन,६ जुलाई २००७ को इंग्लेंड की रानी द्वारा  किया गया था. इस फब्बारे के निर्माण में सर्वोच्च गुणवत्ता की सामग्री , प्रतिभा और प्रोद्योगिकी का इस्तेमाल किया गया है. इसमें इस्तेमाल किये गए ५४५ कोंइश ग्रेनाईट के टुकड़ों को नवीनतम कंप्यूटर नियंत्रित मशीनरी से आकार दिया गया और फिर उसे परंपरागत ढंग से जोड़ा गया है.
 इस फव्वारे का डिजाइन भी डायना की जिन्दगी को प्रतिबिंबित करता है. दो दिशाओं में सबसे ऊपरी बिन्दुओं से बहता हुआ पानी  नीचे शांत पूल में उतरने से पहले खूबसूरती से मचलता है. यहाँ तक कि ये स्मारक भी डायना के गुण और खुलेपन का प्रतीक है. यहाँ तीन पूल हैं जहाँ से आप पानी को पार करके फब्बारे के बीच तक जा सकते हैं. डायना आम लोगों कि राजकुमारी थी और लोग आज भी उसे बेहद अपनेपन से याद करते हैं .इस स्मारक  के आसपास बैठकर वह जैसे अपने ही घर में किसी अपने ही के साथ  होने का एहसास करते हैं. 
डायना स्मारक 
कुछ देर वहां बैठकर वेल्स की इस राजकुमारी को याद कर हम फिर चल दिए. यहाँ तक आने के लिए  डेढ़ घटे से पार्क में घूम रहे थे. अब टाँगे दर्द करने लगीं थीं और पेट में चूहे भी मचलने लगे थे.तभी एक रेस्टोरेंट में एक आइस क्रीम का खोमचा भी दिखा तो झट लग गए उसकी लाइन में. अपना नंबर आया तो पता लगा कि आइस क्रीम ओर्गानिक है और इस वजह से दोगुनी से भी ज्यादा कीमत की है .खैर अब लाइन में लगे थे तो लेनी पड़ी और फिर बरफ जैसी आइसक्रीम खानी भी पड़ी उसके बाद फिर ढूँढा गया कुछ खाने पीने का जुगाड़ .झील के ही किनारे पर मिला एक झील किनारा भोजनालय. तो ऊपर सूर्य देवता , साथ चलते वायु देवता और किनारे पर जल देवता के बीच हमने पेट पूजा की और घर की तरफ लौट चले.इस तरह समापन हुआ महीनो बाद मिले एक बसंत के एक खूबसूरत दिन का.

आइसक्रीम का विदेशी ठेला.

झील किनारा भोजनालय 🙂

Thursday, May 10, 2012

"सत्यमेव जयते" कितने अहम हैं मुद्दे..

हमारे समाज को रोने की और रोते रहने की आदत पढ़ गई है . हम उसकी बुराइयों को लेकर सिर्फ बातें करना जानते हैं, उनके लिए हर दूसरे इंसान पर उंगली उठा सकते हैं परन्तु उसे सुधारने की कोशिश भी करना नहीं चाहते .और यदि कोई एक कदम उठाये भी तो हम पिल पड़ते हैं लाठी बल्लम लेकर उसके पीछे और छलनी कर डालते हैं उसका  व्यक्तित्व , कर डालते हैं  चीर फाड़ उसके निजी जीवन की और उड़ा देते हैं धज्जियां उसकी कोशिशों की.शायद हम देखना ही नहीं चाहते अपने समाज का शर्मनाक चेहरा. क्योंकि अब ऐसे ही उसे देखने की आदत पड़  गई है हमें.क्योंकि अगर वह ऐसा ही नहीं रहा तो हम चर्चाएँ किसपर करेंगे,अपने स्वार्थ के लिए मुद्दे किसे बनायेंगे.या फिर आदत है हमें हर बुराई के लिए नेताओं की तरफ उंगली उठा देने की और जब बात हमारी अपनी या हमारे अपनों की होती है तो नकार देते हैं हम. और उधेड़ने बैठ जाते हैं बखिया उसकी,जो कोशिश करता है आइना दिखाने की.
आजकल एक नया शो टीवी पर शुरू हुआ है “सत्यमेव जयते” – अभी एक ही किश्त आई कि हर तरफ हाहाकार मच गया. शायद बहुतों को अपने चेहरे उसमें नजर आने लगे या फिर भविष्य की किसी किश्त में नजर आने का खतरा मडराने लगा. और हो गई शुरू आलोचनाएँ.
माना कि इस शो का संचालन एक सेलिब्रेटी. मोटी  रकम लेकर कर रहा है. तो क्या ? वह अपना काम कर रहा है .क्या उससे उस मुद्दे की गंभीरता कम हो जाती है? क्या  बुराई है अगर जनता को एक स्टार की बात समझ में आती है. पूरी दुनिया स्टार के कपडे , रहन सहन और चाल ढाल तक से प्रभावित हो उसे अपनाती है .तो यदि एक स्टार के कहने से समाज में व्याप्त एक  घिनौनी  बुराई पर प्रभाव पढता है, उसमें कुछ सुधार होता है तो इसमें गलत क्या है.? आखिर मकसद तो मुद्दे को उठाने का और उसमे सुधार लाने का होना चाहिए ना कि इसका कि उसे उठा कौन रहा है.
तर्क दिए जा रहे हैं कि क्या उसका संचालक खुद इतना संवेदनशील है जितना वो शो के दौरान दिखा रहा है. बात उसके अपने निजी जीवन के संबंधो तक जा पहुंची है. अजीब बात है .यदि कोई अपने निजी जीवन में आपसी सहमति  से एक विवाह से तलाक  लेकर दूसरा विवाह कर लेता है तो हम उसे बिना जाने समझे असंवेदनशील का तमगा पहना देते हैं. यदि उनकी एक फिल्म में उनके द्वारा कहे गए संवाद गलत थे, तो यह कहाँ का इन्साफ है कि उनके दूसरे कार्यक्रम में कहे गए अच्छे सार्थक संवादों को भी उसी नजर से देखा जाये .
रात दिन जेवरों से लदी- फदी,  मेकअप  और महँगी  साड़ियों में लिपटी पल पल षड्यंत्र रचती सास बहुयों के बेहूदा कार्यक्रमों में  करोड़ों खर्चा किया जाये तो किसी को कोई तकलीफ नहीं होती. परन्तु एक गंभीर मुद्दे को उठाने के लिए महंगा कार्यक्रम बनाया जाये तो तो उस पर संवेदनाओं को बाजार में बैठाने का  इल्ज़ाम  लगाया जाने लगता है.वाह धन्य हैं हम और धन्य है हमारी संवेदनाएं जो लाखों मासूमो की दर्दनाक हत्या से बाजार में नहीं नीलाम होती, बल्कि इस बुराई को हटाने के लिए उठाई गई आवाज़ से बाजार में बिक जाती है.
माना की आमिर खान एक अभिनेता हैं, और वह अभिनय ही कर रहे हैं, कोई सामाजिक क्रांति नहीं लाने वाले परन्तु उनके कार्यक्रम के माध्यम से यदि एक भी दरिंदा इंसान बन पाता है. एक भी माँ की कोख बेदर्दी से कुचलने से बच जाती है तो उसके लिए उनके करोड़ों  का खर्चा मेरी नजर में तो जायज़ है.

Tuesday, May 8, 2012

लन्दन और लोमडी ...

यूँ सुना था तथाकथित अमीर और विकसित देशों में सड़कों पर जानवर नहीं घूमते. उनके लिए अलग दुनिया है. बच्चों को गाय, बकरी, सूअर जैसे पालतू जानवर दिखाने के लिए भी चिड़िया घर ले जाना पड़ता है. और जो वहां ना जा पायें उन्हें शायद पूरी जिन्दगी वे देखने को ना मिले.ये तो हमारा ही देश है जहाँ न  चाहते हुए भी हर जगह कुदरत के इन जीवों का भी अधिकार होता है. एक आजाद देश के आजाद नागरिक की तरह वे भी कहीं भी भ्रमण कर सकते हैं. किसी के भी घर में बिना बुलाये मेहमान बन घुस सकते हैं और यहाँ तक कि मेहमान नवाजी भी पा जाते हैं.और इन्हीं दृश्यों की तस्वीरें बड़े शौक  और हैरत से खींच खींच कर विदेशी पर्यटक ले जाते हैं.और ऐलान हो जाता है कि भारत में तो सड़कों पर मनुष्य की  ही तरह जानवरों का भी अधिकार है.


लन्दन आये तो यह बात एकदम सच साबित होती लगी ॰यहाँ वहां टहलती कुछ खूबसूरत बिल्लियों और पार्कों में अपने मालिकों के साथ घूमते कुछ कुत्तों के अलावा कहीं कोई जानवर नजर नहीं आता. परन्तु घर के बाहर रखे कचरे के काले थैले  लगभग रोज़ ही बेदर्दी से फटे मिलते और उनके अन्दर का सामान इस कदर और इतनी दूर तक बिखरा होता कि समेटने में कमर में बल पड़ जाएँ , दुर्गन्ध इतनी अधिक और इतनी अजीब कि समझना दूभर हो जाये कि कचरे का पोस्ट- मार्टम  खाना  ढूंढने के लिए किया गया है या किसी और काम के लिए.इस काम को अंजाम किसी बिल्ली ने दिया होगा, ये मानना जरा मुश्किल था परन्तु इसके अलावा कोई और कारण समझ में भी नहीं आता था.फिर एक दिन रसोई की खिड़की के शीशे पर एक कुत्ते नुमा जानवर का  मुँह अपनी नाक रगड़ता दिखा.अमूमन पालतू कुत्ते यूँ बिना मालिक के बाहर नहीं घूमा करते परन्तु हो सकता है मालिक की आँख बचा कर कोई उस तरफ निकल आया हो.कभी कभार बगीचों में भी ऐसी ही हलचल दिखाई दे ही जाती है.फिर कुछ दिनों बाद लॉन में टहल कर रसोई में घुसी तो वही जीव रसोई के बीचों बीच  खडा मुझे निहारता मिला. गले सो जो चीख निकली कि घबरा कर वह लॉन  से होता हुआ भाग निकला. आँखें फाड़ कर देखा तो झब्बा सी पूँछ दिखाई दी ..उफ़ ..ये कुत्ता तो नहीं …क्या था फिर.? आसपास तहकीकात शुरू की तो पता चला कि वह लोमड़ी   थी. और उनका यूँ खुलेआम शहरों में घूमना बहुत आम बात है.यहाँ तक कि कचरे की चीरफाड़ के पीछे भी उन्हीं का हाथ (पैर ) हैं. उसके बाद धीरे धीरे वक़्त के साथ लन्दन में लोमड़ी   के आतंक के अनेकों किस्से देखने सुनने में आने लगे और यह भी कि इस देश में चूहे, कॉकरोच और लावारिस घूमते कुत्तों आदि से निबटने के लिए पेस्ट कण्ट्रोल है. परन्तु इन लोमड़ियों  के मामले में वह भी हाथ खडा कर देते हैं.
   
 
यूँ इन्हें एक ना नुक्सान पहुँचाने वाला जंगली पशु समझा जाता है.परन्तु गाहे बगाहे अच्छा खासा आतंक फैलाने में यह माहिर हैं और लोग इनसे काफी त्रस्त दिखाई पड़ते हैं. 

 १९३० के बाद से इन्होने ब्रिटेन के शहरों में घूमना शुरू किया.और ब्रिस्टल यूनिवर्सिटी  के मैमल  रिसर्च यूनिट के अनुसार  २२५,००० ग्रामीण और ३३,००० शहरी लोमड़ियाँ ब्रिटेन के शहरों में टहला करती हैं.

हाल में आई एक खबर के मुताबिक एक मशहूर चीनी खाद्य लेखक की पत्नी उस समय आतंक  से दहल गई जब उसने अपने बगीचे में एक लोमड़ी  को अपने दो छोटे छोटे पालतू पप्पी पर हमला करते हुए देखा. बहुत कोशिशों के बाद लोमड़ी   को भगाने में सफल हुई महिला ने जब अपने उस पप्पी को देखा तो वह खून से लतपथ था.जिसके इलाज के लिए उसे फिर ऑपरेशन   करके  आई सी यू में रखा गया जिसका खर्चा £२२०० से भी अधिक आया.परन्तु उनके शिकायत करने के वावजूद काउंसिल के पेस्ट कण्ट्रोल वालों के लिए यहलोमड़ियाँ नुक्सान रहित और उनके कार्यक्षेत्र  से बाहर ही रहीं.सामान्यत: उन्हें एक डरपोक और हार्मलेस जीव समझा जाता है. जिसका एक और उदाहरण हाल में सामने आया जब एक टीवी प्रेजेंटर ने एक शो के दौरान इस बात को मानने से इंकार कर दिया कि लोमड़ी  किसी पर हमला कर सकती है. उनके इस कथन पर एक एम्बुलेंस  के कार्यकर्ता ने घोर नाराजगी जताई  जिसके हाथ की एक उंगली  का ऊपरी हिस्सा लोमड़ी ने खा लिया था. आखिर इस दर्द को वही जान सकता है जिसने इसे झेला हो.

 हालाँकि ब्रिटेन के ४००० घरों में किये गए एक सर्वेक्षण के अनुसार ६५.७% लोगों को यह शहरी जीव पसंद है,२५.८% लोगों के इस बारे में कोई विचार नहीं हैं और सिर्फ ८.५% लोग इसे नापसंद करते हैं . 

ऐसे में सड़कों पर पालतू पशुओं के घूमने को पिछडापन कहने वालों के पास  इस जंगली शहरी जीव से निबटने के लिए ना कोई व्यवस्था है ना ही कोई प्रावधान . आपको इनसे छुटकारा पाना है तो अपने ही बूते पर किसी निजी संस्था को भारी रकम चुका कर पाना होगा. धन्य है ऐसे विकसित और सभ्य शहर. ऐसे में भला हमारे देश के बेचारे मासूम गाय ,बैलों ने क्या गुनाह किया है.

साभार – हर शनिवार दैनिक जागरण  में “लन्दन डायरी “

Tuesday, May 1, 2012

मन्नू भंडारी की "अकेली " एक नजर ...

ये मेरा दुर्भाग्य ही है कि अधिकांशत: भारत से बाहर रहने के कारण,आधुनिक हिंदी साहित्य को पढने का मौका मुझे बहुत कम मिला.बारहवीं में हिंदी साहित्य विषय के अंतर्गत  जितना पढ़ सके वह एक विषय तक ही सीमित  रह जाया करता था.उस अवस्था में मुझे प्रेमचंद और अज्ञेय  की कहानियाँ सर्वाधिक पसंद थीं परन्तु और भी बहुत नाम सुनने में आते रहते थे या पत्र -पत्रिकाओं  में छपी रचनाएँ  पढ़ ली जाती थीं. पर बस यह इच्छा ही रह गई कि मन पसंद रचनाकारों की पुस्तकें खरीद सकूँ. हाँ देश विदेश भटकते हुए पुस्तकालयों की शेल्फ पर गिद्द दृष्टि जरुर रहती कि कहीं कोई परिचित या फिर अपरिचित ही नाम, हिंदी का दिख जाये ऐसे में  जब जो उपलब्ध हुआ पढ़ डाला.कुछ ने बहुत प्रभावित किया तो कुछ ने नहीं.  इसी क्रम में हाल में ही मन्नू  भंडारी की छोटी कहानियों का एक संग्रह “अकेली “  हाथ आ गया. अब कोई नई किताब मिले या नई पोशाक, मेरा रिएक्शन एक जैसा ही होता है जैसे ही मिले पढ़/ पहन डालो ..कौन जाने कल हो ना हो.

तो बस वह किताब जो लेकर बैठी तो छोड़ने का मन ही नहीं हुआ.यूँ कहानियाँ बहुत पढ़ीं. कई भाषा में पढ़ीं पर इतनी सहजता से यथार्थ के करीब बहुत ही कम को पाया. ना तो इन कहानियों में कल्पना को यथार्थ की तरह पेश करने की कोशिश दिखी.ना ही यथार्थ को कल्पना के चोगे में लपेट कर परोसने का प्रयास. इनमें बुद्धिजीवी सोच को साबित करने के लिए कथ्य को मुश्किल से मुश्किल शिल्प का जामा नहीं पहनाया गया.बस जीवन के छोटे छोटे पलों को उसी सहजता से बिखेर दिया गया है.ये कहानियाँ किसी और की  नहीं. मेरी , इसकी , या उसकी ही लगती हैं. एक साधारण ,भारतीय परिवेश  में मानवीय (या शायद पति पत्नी के रिश्ते कहना ज्यादा बेहतर होगा)- के मनोविज्ञान की इतनी सुलझी हुई और सटीक समझ  शायद मैंने किसी ओर रचनाकार की रचनाओं में नहीं महसूस की.जिन्हें पढ़ते हुए पल पल लगता रहता है ..हाँ यही तो..बिलकुल ..ऐसा ही तो है. 

इन कहानी के पात्रों के रिश्ते कोई अजूबा नहीं हैं, ना ही दर्द में लिपटे हैं, ना ही किसी आकस्मिक हालातों के शिकार हैं. ये बस रोज मर्रा की जिन्दगी में गुजरते पलों की कहानियाँ हैं. इसके, उसके मन में उठते सवालों और जबाबों का लेखा जोखा. लेखिका जैसे कोई कहानी नहीं सुनाती पाठक को अपने आप के ही किसी हिस्से से रूबरू कराती है.
संग्रह में कुल १५ कहानियाँ है. सभी अलग मूड और हालातों की. परन्तु जैसे सभी में कुछ अपना सा है , जाना पहचाना सा.

फिर वह चाहे “क्षय “ की नवयुवती कुंती हो जिसके कन्धों पर क्षय ग्रस्त पिता , गृहस्थी, छोटे भाई की पढ़ाई का बोझ है. अपने उसूलों , अस्तित्व और रूचि के साथ समझौते करते हुए सहसा ही वह सोचने लगती है कि या तो पापा जल्दी ठीक हो जाएँ या…….
कोई दिखावा नहीं एक सीधी साधी स्वाभाविक  मानवीय  प्रतिक्रिया.

या फिर “छत बनाने वाले” के ताउजी और उनके घर के सदस्यों का रहन सहन और मानसिकता.हर छोटे शहर के घर के मुखिया का सटीक चरित्र चित्रण.जैसे -भतीजे के अपने आपको लेखक कहने पर 
“ये भी कोई बात हुई भला.रामेश्वर ने अपना हाड पेल पेल के तुम्हें एम् ए करवाया अब उनके बुढ़ापे में तुम अपना शोक लेकर बैठ जाओ.”.
या फिर -“हमने तो भाई सर छिपाने और पैर टिकाने के लिए यह मकान बनवा लिया.कुछ भी हो अपने मकान की होड़ नहीं ..क्यों?”

और “तीसरा आदमी” के अपनी पत्नी से प्यार करने वाले उस  साधारण पति का मानसिक द्वन्द. एकदम सहज, सच्चा, ईमानदार दृष्टिकोण. संग्रह की यही कहानी मुझे सबसे ज्यादा आकर्षित करती है.कोई शक की इन्तहा नहीं, कोई कुंठा का चरम नहीं, कोई दीवानापन  नहीं .
“उसने खुद आलोक  के पत्र पढ़े हैं.उनमें कहीं कुछ ऐसा नहीं लगा जिससे वह आहत अनुभव करे- पर हमेशा उसे लगता है कि लिखे हुए शब्दों से परे भी कुछ है जरुर; वर्ना इन शब्दों में आखिर ऐसा है ही क्या जो शकुन यों प्रसन्न रहती है “

और एक बेहद ही सच्ची और भावुक कहानी “असामयिक मृत्यु” – परिवार के मुखिया की असामयिक मृत्यु के बाद के हालातों से गुजरता परिवार का हर एक सदस्य.और वक़्त हालातों के साथ ही चलती जाती जिन्दगी और बदलता सबका स्वभाव. एक एक घटना क्रम बेहद  स्वाभाविक सा 
“जब तक कडकी का कोड़ा नहीं पडा था सबका मन एक दूसरे के लिए उमड़ता रहता था, एक दूसरे को संभालता रहता था,लेकिन अब – “अम्मा तुमने २०० रु. पी ऍफ़ के रुपयों में से खर्च कर  दिए?
क्या करती ? राजू मीनू की किताबे .
“यह सब बताने की जरुरत नहीं है बस ये जान लो इन्हें छुओगी भी नहीं.
मुझे क्या कहते हो? अपने पेट पर पट्टियां बाँध लो शारदा का दो टूक जबाब.

वहीँ “आकाश के आईने में” जैसे सारे तथाकथित उसूलों और आडम्बरों को खोल कर रख दिया है लेखिका ने. शहर में रहकर गाँव के कुओं , चूल्हों और हवा पानी के नाम पर आहें भरने वालों के लिए शहर और गाँव का वास्तविक फरक, जितनी सहजता से उभर कर आता है उतना ही व्यावहारिक जान पड़ता है. – 
साड़ी का पल्लू नाक पर लगाते हुए लेखा ने कहा – ये बदबू किधर से आ रही है ?- पीछे की तरफ एक पोखरा है बड़ा सा उसके पानी में दुनिया भर का कूड़ा करकट सड़ता रहता है .अब तो आदत हो गई है.
“तरकारी काटती भाभी बोलीं -कलकत्ता के सैर सपाटे छोड़ कर कौन इस घनचक्कर में फंसेगा .यह तो हमारे ही खोटे भाग हैं जो दिन रात कोल्हू के बैल की तरह पिले रहते हैं.”

कहानी  “त्रिशंकु” एक वास्तविक बुद्धिजीवी सोच  से  परिचय कराती कहानी है.
“हमारा घर यानि बुद्धिजीवियों का अखाड़ा. यहाँ सिगरेट के धुंए और कॉफी के प्यालों के बीच बातों के बड़े बड़े तुमार बाँधे जाते हैं.बड़ी बड़ी शाब्दिक क्रांतियाँ की जाती हैं.इस घर में काम कम और बातें ज्यादा होती हैं.”

और  “तीसरा हिस्सा” में एक ईमानदार पत्रकार की  मानसिक स्थिति और आक्रोश को  बेहतरीन ढंग से दर्शाया गया है .
“और शेराबाबू की दुनाली हिंदी वालों की तरफ घूम गई -देश स्याला रसातल को जा रहा है, पर इन गधों को कोई चिंता नहीं .लगे हुए हैं रासो की जान को.रासो प्रमाणिक है या नहीं ? मान लो तुमने प्रमाणिक सिद्ध कर भी दिया तो कौन तुम्हें कलक्टरी मिल जाएगी.जहाँ हो वहीँ पड़े सड़ते रहोगे. तुम बस हो ही इस लायक कि दण्ड पेलो और गधो की जमात पैदा करते जाओ.”

संग्रह की आखिरी कहानी है “अकेली “– साल में एक महीने के लिए पत्नी का पात्र निभाती एक अकेली औरत की करुण कहानी.एक अलग से हालातों पर एक बेहद यथार्थवादी चित्रण.
“सुनने को सुनती ही हूँ पर मन तो दुखता ही है ये तो साल में ११ महीने हरिद्वार रहते हैं इन्हें तो नाते रिश्तेदारों से कुछ लेना देना नहीं है.मुझे तो सबसे निभाना पड़ता है.मैं तो कहती हूँ जब पल्ला पकड़ा है तो अंत समय तक साथ रखो तो यह तो इनसे होता नहीं सारा धरम करम ये ही बटोरेंगे और मैं अकेली यहाँ पड़ी पड़ी इनके नाम को रोया करूँ.उस पर कहीं आऊं जाऊं वो भी इनसे बर्दाश्त नहीं होता.”

किन किन बातों का जिक्र करूँ. मनु भंडारी की ज्यादा रचनाएँ नहीं पढ़ीं मैंने. परन्तु इस संग्रह ने मुझे उनका प्रशंसक बना दिया है.इतना कि, साहित्य और कथा शिल्प की न्यूनतम समझ होते हुए भी अपने कुछ  विचार मैं यहाँ लिखने से खुद को रोक ही नहीं पाई.