आज निकली है धूप
बहुत अरसे बाद
सोचती हूँ
निकलूँ बाहर
समेट लूं जल्दी जल्दी
कर लूं कोटा पूरा
मन के विटामिन डी का
इससे पहले कि
फिर पलट आयें बादल
और ढक लें
मेरी उम्मीदों के सूरज को.
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सिमटी होती है उसमें भी
लालिमा दिन भर की
जिसे ओढ़कर सो जाता है
क्षितिज की गोद में
लाने को फिर से नई सुबह
मेरी उम्मीदों का वह सूरज.
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पर यूँ भी तो है
कल उगे वो
पर ना पहुंचूं मैं उसतक
बंद हो खिड़की दरवाजे
ना पहुँच सके वो मुझतक.
तो बस
अभी ,इसी वक़्त
भरना है मुझे अपनी बाँहों में
मेरी उम्मीदों का सूरज.
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