Tuesday, February 28, 2012

भावनाऐं...कुछ ऐसी भी...

भावनाऐं हिंदी कविता की 
किताब हो गईं हैं
जो  ढेरों उपजती हैं 
पर पढीं नहीं जातीं.
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भावनाऐं  प्रेशर कुकर भी हैं 
जब बढ़ता है दबाब
तो मचाती हैं शोर 
चाहती है सुने कोई
कि पक चुकी हैं.
बंद की जाये आंच अब.
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भावनाओं का ज्वर
जब चढ़ता   है 
तो चाहिए होता है स्पर्श 
माथे पर ठंडी पट्टी सा 
दो  चम्मच मधुर बोल
और एक टैबलेट प्यार की.

Monday, February 27, 2012

आखिर औरत होने में बुरा क्या है????

 नवभारत में प्रकाशित 

क्या पुरुष प्रधान समाज मेंपुरुषों के साथ काम करने के लिए,उनसे मित्रवत  सम्बन्ध बनाने के लिए स्त्री का पुरुष बन जाना आवश्यक है ?.आखिर क्यों यदि एक स्त्री स्त्रियोचित व्यवहार करे तो उसे कमजोरढोंगी या नाटकीय करार दे दिया जाता है और यही  पुरुषों की तरह व्यवहार करे तो बोल्ड, बिंदास और आधुनिक या फिर चरित्र हीन .यूँ मैं कोई नारी वादी होने का दावा नहीं करती,ना ही  नारी वादियों के खिलाफ कुछ कहने की नीयत है. परन्तु विगत दिनों कुछ इस तरह का पढने का इत्तफाक  हुआ कि दिमाग का घनचक्कर बन गया.कई सवाल मष्तिष्क में घूं घूं – घां घां करने करने लगे.पहले सोचा जाने दो क्या करना है,  परन्तु दिमागी खटमल कहाँ शांत होने वाले थे तो सोचा चलो उन्हें निकालने का मौका दे ही दूं.
कुछ समय पहले एक मित्र की ऍफ़ बी वॉल पर “मंटो” का एक कथित वक्तव्य  देखा था .
एक महीना पहले जब आल इंडिया रेडिओ डेल्ही में मुलाजिम था ,अदबे लतीफ़ में इस्मत का लिहाफ शाया (प्रकशित ) हुआ था .उसे पढ़कर मुझे याद है मैंने कृशन चंदर से कहा था अफसाना बहुत अच्छा है मगर लेकिन आखिरी जुमला गैर सनाआना (कलात्मता रहित )है .अहमद नदीम कासमी की जगह अगर मै एडिटर होता तो इसे यक़ीनन हज्फ़(अलग ) कर देता .चुनांचे जबअफसानों  पर बात शुरू हुई तो मैंने इस्मत से कहा”आपका अफसाना लिहाफ मुझे पसंद आया ,बयान  में अलफ़ाज़ की बकद्रे-किफ़ायत इस्तेमाल करना आपकी नुमायाँ खुसियत (खास खूबी )रही है .लेकिन मुझे ताज्जुब  है कि इस अफ़साने के आखिर में आपना बेकार सा जुमला लिख दिया
इस्मत ने कहा “क्या अजीब सा है इस जुमले में “
मै जवाब में कुछ कहने ही वाला था के मुझे इस्मत के चेहरे पर वही सिमटा हुआ हिजाब (संकोच )नजर आया ,जो आम घरेलू लडकियों के चेहरे पर नागुफ्ती (तथाकथित अश्लील ) शै का नाम सुनकर नमूदार हुआ करता है .मुझे सख्त नाउम्मीदी हुई .इसलिए के मै लिहाफ के तमाम जुजईयात (पहलुओ )के मुताल्लिक उनसे बात करना चाहता था .जब इस्मत चली गयी तो मैंने दिल में कहा “ये तो कम्बखत बिलकुल औरत निकली “
(“
मंटो” इस्मत को याद करते हुए )”
यूँ मंटो के बारे में कुछ भी कहना संभव नहीं उनकी बयानगी की कायल मैं भी हूँ ..परन्तु यहाँ मेरा ध्यान खींचा एक सोच ने जो एक व्यक्ति की नहीं शायद पूरे समाज की है. आखिर क्या खराबी है औरत होने मेंजो मंटो को इतनी नाउम्मीदी हुई.क्या जरुरी है कि जिस तरह किसी विषय पर कोई खास शब्द पुरुष इस्तेमाल  करते हैं ..(मैं यहाँ उन शब्दों के कतई खिलाफ नहीं हूँ) ….वही शब्द औरत इस्तेमाल करे तभी वो बोल्ड है,खास है और पुरुष सोच पर, उसकी उम्मीद पर खरी उतरती है. वर्ना वो आम है. क्या स्त्रियोचित स्वभाव में रहकर वह कोई योग्यता नहीं रखती?अपना कोई मक़ाम नहीं बना सकती. क्या वह स्त्री रह कर खास नहीं हो सकती?आखिर यह मापदंड बनाये किसने हैं.कि बिना पुरुषयोचित व्यवहार किये एक स्त्री बोल्ड नहीं कहला सकती.आखिर ये किस कानून में लिखा है कि सेक्स की हिमायती और खुले आम अश्लील कहे जाने वाले शब्दों का प्रयोग किये बिना कोई महिला बोल्ड नहीं हो सकती?
क्यों हम एक स्त्री को पुरुष बना देना चाहते हैं औरत यदि वैसा नहीं बनती तो उसे कमजोर और अपने एहसास छुपाने वाली ढोंगी करार दिया जाने लगता है. हमारे साहित्य में भी ऐसे ही पुरुषवादी सोच के उदाहरण मिलते हैं जिनपर किसी स्त्री की सोच या विचार को जाने बिना अपनी ही सोच थोप दी जाती है और ऐलान  कर दिया जाता है कि यही सत्य है ऐसा ही होता है.कुछ दिन पहले एक मशहूर हिंदी लेखक का एक उपन्यास पढ़ रही थी – जिसकी भूमिका में ही कहा गया, कि ये कहानी उजागर करती है एक उच्च वर्गीय आधुनिक महिलाओं की मनोदशा को.और इस कहानी की नायिका एक ऐसी लड़की थी जिसे मेरे ख़याल से सेक्स के सिवा कुछ नहीं सूझता था. जो खुद अल्ल्हड़ होते हुए अपने से दुगनी  तिगुनी उम्र के अपने प्रोफ़ेसर के साथ शादी करती है. और फिर उसके बाद उसके संपर्क में जो भी पुरुष आता है उसके साथ हो लेती है.भले फिर वह घर में आया मेकेनिक हो या कार में बगल की सीट पर बैठा उससे तीन गुना छोटा उसका सौतेला बेटा.और इसे कहा जाता है आधुनिक स्त्री जो अपनी सेक्स की इच्छा को दबाती नहीं खुले आम पूरा करती है. अरे हद्द है ..कहीं कोई जानवर या मनुष्य में फर्क  है या नहीं. और जो स्त्री इस तरह के आकर्षण को मानने से इंकार कर दे उसे अपनी इच्छाओं को दबाने का, एक कुंठित सोच का करार दे दिया जाता है . उसे आधुनिक कहलाने का कोई अधिकार नहीं.
पुरुष बड़े गर्व से यह तर्क देते देखे जाते हैं कि जिसे तुम स्त्रियाँ अश्लीलता और उच्छंखल व्यवहार कहती हो. वह खूबसूरती हैजरुरत है जिन्दगी की. और इसे हम पुरुष जितनी सहजता से स्वीकार करते हैं तुम लोग क्यों नहीं करतीं क्यों छुपाती हो अपनी इच्छाएं मर्यादा की आड़ में? क्यों डरती हो अपनी भावनाओं और इच्छाओं की खुले आम अभिव्यक्ति से?. मुझे समझ में नहीं आता मैं इन सवालों का क्या जबाब दूं .बल्कि इसके एवज में कुछ सवाल ही उपजते हैं मेरे दिल में.क्यों वो यह समझते हैं कि जो उनकी निगाह में ठीक है वही ठीक है.वह कौन होते हैं स्त्री के स्वभाव और व्यवहार का पैमाना बनाने वालेऔर यदि उनकी बात मान भी ली जाये और स्त्रियाँ भी वैसा ही व्यवहार शुरू कर दें तो क्या होगा इस समाज का रूपसमाज की जगह फिर क्या जंगल नहीं होगाऔर हम सब जानवर कि जहाँ जब जो इच्छा हुई कर डाला, इंद्रियों  पर नियंत्रण जैसी  कोई चीज़ नहीं,विवेक क्या होता है पता नहीं. हम तो खुले विचारों को मानते हैं आधुनिक हैंबिंदास हैं.

Tuesday, February 21, 2012

गुनगुना पानी...

तेरे रुमाल पर जो धब्बे नुमायाँ हैं 
साक्षी हैं हमारे उन एहसासात के  
एक एक बूँद आंसू से जिन्हें 
हमने साझा किया था 
सागर की लहरों को गिनते  हुए.
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इतनी देर तक जो 
इकठ्ठा होते रहे
उमड़ते रहे 
घुमड़ते रहे 
इन आँखों में.
अब जो छलके तो 
गुनगुने नहीं 
ठन्डे लगेंगे 
ये आंसू.

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*

बंद होते ही पलक से 
जो बूँद शबनम सी गिरती है.

मचल कर धीरे से जो 
मेरी तर्जनी पर सरकती है. 
अपनी मुट्ठी की सीपी में छिपा 
उसे मोती सा बना दूं 
फिर तेरे लबों पर 
हंसी के टुकड़े सा लुढका दूं
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Friday, February 17, 2012

ऐसी वाणी बोलिए.

 

अभी कुछ दिन पहले करण समस्तीपुर की एक पोस्ट पढ़ी कि कैसे उन्होंने अपनी सद्वाणी  से एक दुर्लभ सा लगने वाला कार्य करा लिया जिसे उन्होंने गाँधी गिरी कहा.और तभी से मेरे दिमाग में यह बात घूम रही है कि भाषा और शब्द कितनी अहमियत रखते हैं हमारी जिन्दगी में.
यूँ कबीर भी कह गए हैं कि-

ऐसी वाणी बोलिए मन का आपा खोय । 
औरन को शीतल करेआपहु शीतल होय ॥ 


यहाँ आज ये सब कहने का मेरा तात्पर्य हमारे द्वारा कहे गए शब्दों की कीमत आँकने  का है.कितने मायने रखते हैं वे शब्द जो हमारे मुखारबिंद से निकलते हैं .और कितना उनका असर होता है सामने वाले पर और खुद अपने ही व्यक्तित्व पर.

मनुष्य खामियों का पुतला है – ईर्ष्या,द्वेष, जलन, प्यार ,संवेदना और क्षोभ  जैसे भाव मनुष्य के स्वभाव में प्राकृतिक रूप से पाए जाते हैं जिन पर काबू पाना  बेहद कठिन होता है,और जो पाने में सफल हो जाते हैं वो इंसान से एक पायदान ऊपर चले जाते हैं. उन्हें हम महान या साधू या सन्यासी कह सकते हैं.और जो इंसान है वह इन भावों से अछूता नहीं रह सकता .
परन्तु भाषा खुद इंसान का बनाया माध्यम है,जिसे उसने अपनी सुविधा के लिए इन भावों को प्रदर्शित करने के लिए बनाया है अत: उस पर काबू पाना उसके लिए इतना कठिन नहीं होता.

हमारे मुँह से निकला एक शब्द हमें यदि किसी के करीब  ला सकता है तो दूसरा ही शब्द दूरियों का कारण भी हो सकता है.कुछ लोग यह भी कहते हैं कि क्या फर्क पड़ता  है किसने क्या कहा, क्यूँ कहा. परन्तु फर्क तो  पड़ता  है.किसी से परिचय का पहला माध्यम हमारे शब्द ही होते हैं,और उससे आगे के बने सम्बंध भी उन्हीं शब्दों पर ही टिके होते हैं.हालाँकि हमारे द्वारा किसी के लिए भी प्रयुक्त अपशब्द उसका कुछ बिगाड़ लेते हैं ऐसा कम ही देखने में आता है ज़्यादातर ये शब्द हमारे अपने ही व्यक्तित्व को खराब करते हैं. हमारी अपनी ही छवि के लिए हानिकारक होते हैं. अपने बड़े बुजुर्गों से अक्सर हम यह सुनते आये हैं  “क्यों अपशब्द बोल कर अपनी जीभ ख़राब करना.”

मीठी भाषा से ना केवल सामने वाले पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता  है बल्कि हमारा व्यक्तित्व भी प्रभावित होता है.कटु शब्दों के प्रयोग से संभव है कि वक़्तिया तौर पर आपके काम हो जाएँ कोई डर कर या मजबूरी में आपके कार्य कर दे परन्तु लम्बे समय के लिए वह आपके लिए हानिकारक ही सिद्ध होता है.और जोर ज़बरदस्ती  से या कटु वचनों से मान सम्मान तो आप हासिल कर ही नहीं सकते.ना ही कोई मन से आपका कार्य ही करेगा और जाहिर है बिना मन से किया गया कार्य ना तो प्रभावी होगा ना ही टिकाऊ.शब्द वही इस्तेमाल करने चाहिए किसी के लिए जिन शब्दों की उम्मीद हम अपने लिए करते हैं.
जैसा कि  कबीर ने कहा है –
“बोली एक अमोल है,जो कोई बोली जानी
हिये तराजू तौल के तब मुख बाहर आनी.”.

मान सम्मान, इज्ज़त या प्यार जीता जाता है,  मृदु शब्दों के बदले उन्हें पाया जा सकता है.जबरन  या मजबूरी या कटु वचनों से हो सकता है इसका दिखावा मिल जाये पर सच्चे भावो को नहीं पाया जा सकता ना ही महसूस किया जा सकता है .
आज दर्शन चिंतन ज्यादा हो गया ना ..कभी कभी यूँ भी सही 🙂


Tuesday, February 14, 2012

और अंत में प्रेम ..............

चॉकलेट,मिठाई 

आलिंगन, चुम्बन.
गुलाब और टैडी 
सारे पड़ावों से गुजर 
आखिर में 
प्रेम का नंबर आ ही गया 
सुना है आज प्रेम दिवस है.
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रीत कुछ हम भी निभा लें,
कुछ लाल तुम पहन लो 
कुछ लाल मैं भी पहन लूं 
चलो हाथ में हाथ डाल 
कुछ दूर यूँ ही टहल आयें
कमबख्त लाल फूल भी आज 
बहुत महंगे हैं.
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खाली बगीचे से मन 
हाथों में सुर्ख गुच्छे 
संकीर्ण दिलों के बीच 
बड़ा सा दिल बने तकिये
महंगे स्वाद हीन पकवान.
और 
खाली होती जेबों के मध्य 
दिवस तो मन रहा है 
पर 
प्रेम नदारद है.

Monday, February 6, 2012

गवाक्षों से झांकते पल..

फरवरी के महीने में ठंडी हवाएं, अपने साथ यादों के झोकें भी इतनी तीव्रता से लेकर आती हैं कि शरीर में घुसकर हड्डियों को चीरती सी लगती हैं.फिर वही यादों के झोंके गर्म लिहाफ बनकर ढांप लेते हैं दिल को, और सुकून सा पा जाती रूह. कुछ  मीठे पलों की गर्माहट इस कदर ओढ़ लेता है मन कि पूरा साल जीने का हौसला सा हो आता है.यादों के सागर में डुबकी लगाता मन पहुँच जाता है अतीत की गलियों में और चुरा लाता है कुछ मोती .चलचित्र की भांति उमड़ने घुमड़ने लगते हैं कुछ चित्र,कुछ बातें, कुछ सन्देश, जो जाने कब अनजाने ही मन के अंतस में समाते जाते हैं और पता भी नहीं चलता.
सकारात्मक नजरिया एक ऐसा तत्व है जो किसी भी परिस्थिति को बदलने की ताक़त रखता है.शायद यही वजह कि आज किसी को किसी काम के लिए यह कहते देखती हूँ कि संभव नहीं तो मुझे कुछ अजीब सा लगता है.क्योंकि असंभव शब्द तो था ही नहीं उनके शब्दकोष में.  अक्टूबर  – नवम्बर में एक महीना हमेशा हमारे परिवार के लिए पर्यटन का हुआ करता था.और उसका कार्यक्रम बहुत पहले  ही बन जाया करता था. ऐसे ही एक कार्यक्रम के दौरान इसी अवधि में एक बार करवा चौथ का त्यौहार पड़ रहा था. और उस तारीख को हमें रामेश्वरम में होना था. मम्मी कुड – कुड़ा रही थीं …वहां कहाँ पूजा होगी, कैसे

प्रसाद  बनेगा.वगैरह वगैरह .पर जैसे कोई सुनना ही नहीं चाहता था.पापा के पास हर बात का जबाब था ..क्यों क्या रामेश्वरम में इंसान नहीं होते? या वहां चाँद नहीं निकालता? और जब श्री राम वहां शिवदेव  की पूजा कर सकते हैं तो तुम पतिदेव की क्यों नहीं कर सकतीं ??? और अर्घ देने के लिए पानी की भी कमी नहीं पूरा समुंदर है. बेचारी मम्मी आखिरी अस्त्र फेंका उन्होंने ..हाँ आप लोगों का क्या जाता है.व्रत तो मेरा होगा मैं तो नहीं खाऊँगी व्रत में इडली डोसा वहाँ.फिर एक जबाब आया …तो क्या वहां क्या फल नहीं मिलते? एक दिन बिना अन्न के गुजारा जा सकता है..आगे सवाल जबाब का कोई स्कोप नहीं था. पता था हर बात का हल निकल आएगा.आखिर वह दिन भी आ गया था. मम्मी ने मन बना लिया था कि वो नारियल के तेल में बना खाना व्रत में नहीं खायेंगी फल खाकर ही रह लेंगी . पापा सुबह ५ बजे ही उठ कर जाने कहाँ टहलने निकल गए थे.रात हुई, चाँद निकला और मम्मी के पूजा ख़त्म करते ही एक फ्लास्क में गरमागरम चाय मौजूद थी.और फिर पास ही रखे एक पैकेट से पूरियों की खुशबू से पता लगा कि सुबह सुबह इन्हीं पूरियों के जुगाड़ में निकले थे पापा. आसपास के हर छोटे बड़े होटल वाले से कहा था कि हम अपना घी का पैकेट और आटा देंगे २०-२५ पूरियाँ बना कर दे दे शाम तक. और उसी से एक चम्मच घी में कुछ आलू छौंक दे  आखिर एक छोटे से टी स्टाल वाला तीन गुनी कीमत पर मान गया था और मम्मी का करवाचौथ विधिपूर्वक मन गया था.”जहाँ चाह वहां राह” की कहावत जैसे उनकी रग रग में समाई थी.और पल पल को सम्पूर्णता से जीना उनकी फितरत.हर दिवस को उत्सव सा मनाने का जज्बा था उस इंसान में और शायद इसीलिए कम उम्र में पूरी उम्र जी लिए वे..
हमारी शादी के दिन से एक दिन पहले जन्म दिन पडा था उनका. जिस देश में बेटी की शादी के दिनों में बदहवास सा हो जाता है पिता .उन्होंने पूर्व संध्या में अपने जन्म दिन की शानदार पार्टी रख डाली थी.शादी की  व्यस्तताओं और रीतिरिवाजों के बवंडर से हटकर एक खुशनुमा माहौल बन गया था विवाह स्थल पर.मैंने भी हंस कर कहा था हमारे तो मजे हैं एनिवर्सरी की पार्टी का खर्चा बच जाया करेगा. पापा की पार्टी में ही हम भी केक काट लिया करेंगे.इसी बीच लोगों से खचाखच भरे हॉल में पापा ने केक काटा था और स्वर गूँज उठे थे ” हैप्पी बर्थडे टू यू.” जो आज भी इको होकर मेरे मस्तिष्क में गूंजते हैं .और फिर हवा में लहर जाते हैं.
हैप्पी बर्थडे पापा.
*तस्वीर – मम्मी पापा कन्या कुमारी में.यह फोटो मैंने ही खींचा होगा :).