क्रिसमस का समय है. बाजारों में ओवर टाइम हो रहा है और स्कूलों में छुट्टी है .तो जाहिर है की घर में भी हमारा ओवर टाइम होने लगा है.ऐसे में कुछ लिखने का मूड बने भी तो अचानक ” भूख लगी है ……..या ..”तू स्टुपिड , नहीं तू स्टुपिड”की आवाजों में ख़याल यूँ गडमड हो जाते हैं जैसे मसालदानी के गिर जाने से सारे मसाले… अत: हमने भी सोचा चलो ख्यालों को भी थोड़ी देर पीछे वाली सीट दे दें .और आगे वाली सीट दे दें सांता को .क्या पता कोई सीक्रेट संता हमारे लिए भी कुछ उपहार ले ही आये.आप भी मनाइए क्रिसमस और फिर नया साल और झेल लीजिये ये रचना भी.
अपनी तो जिन्दगी का बस इतना सा फ़साना है
जिस धुंध से आये थे बस उससे गुज़र जाना है
अपनी तो जिन्दगी का बस इतना सा फ़साना है
जिस धुंध से आये थे बस उससे गुज़र जाना है
क्यों बैठकर सोचूं और क्यों करूँ किसी से शिकवा
क्या लेकर हम आये थे , क्या लेकर हमें जाना है
इस जिन्दगी से बस इतनी सी गुजारिश है
दो लम्हे अता कर दे जिन्हें जीते चले जाना है.
रुख यूँ तो हवा का हरदम ही रहा तिरछा
दिशा अपनी बदल कर बस चलते ही जाना है.
अँधेरी जिंदगियों में यूँ जल ऐ ‘शिखा’ जैसे
कुछ तारीक़ निगाहों को रोशन कर जाना है
No comments:
Post a Comment