हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा की जो दशा है वह किसी से छुपी नहीं. सरकारी स्कूलों में बच्चों को क्या शिक्षा मिलती, हम सब जानते हैं. अत: उन स्कूलों और उस शिक्षा को जाने देते हैं. चलिए बात करते हैं एक तथाकथित उन्नत्ति की ओर अग्रसर भारत के आधुनिक स्कूलों की, उनकी शिक्षा व्यवस्था की .बेशक उनके नाम आधुनिक रखे जा रहे हैं, सुविधाओं के नाम पर भी सभी आधुनिक सुविधाएँ दी जा रही हैं परन्तु क्या उस शिक्षा व्यवस्था में तनिक भी बदलाव आया है जो लार्ड मैकाले के समय से चली आ रही है? आज भी हम बाबू छापने वाली मशीन से ही अफसर और वैज्ञानिक छापने की जुगत में हैं.मशीन नई जरुर बन गई हैं मगर हैं वैसी ही. और मजेदार बात यह कि हम सब यह जानते हैं , पर व्यवस्था को बदलते नहीं.
हम ढूंढने निकलें तो शायद ऊंगलियों पर भी ऐसे लोग नहीं गिने जा सकेंगे जो यह कहें कि, शिक्षा ने मुझे वह दिया जो मैं पाना चाहता था .हमारे देश में एक व्यक्ति पढता कुछ और है ,बनता कुछ और है , और बनना कुछ और ही चाहता है.आखिर क्या औचित्य है ऐसी शिक्षा का ? क्या गुणवत्ता है ऐसे शिक्षण संस्थानों की जो फैक्टरियों की तरह छात्र तैयार करती हैं .(कुछ संस्थान के नाम अपवाद स्वरुप जरुर लिए जा सकते हैं).
भारत में हर कोई यह कहता मिल जाता है भारत से बाहर तो शिक्षा का कोई स्तर ही नहीं है बिना यह जाने कि आखिर शिक्षा आप कहते किसे हैं? पश्चिमी देशों में सरकारी हो या फिर कोई निजी स्कूल सभी के लिए शिक्षा का स्तर और मौके बराबर होते हैं. यहाँ पढ़ाई किताबी नहीं बल्कि व्यावहारिक होती है. जब जिस उम्र में जिस विषय की जरुरत होती है वह पढाया नहीं जाता बल्कि सिखाया जाता है और इस तरह कि वह महज एक विषय नहीं बल्कि ज्ञान बने.
प्रारंभिक शिक्षा है क्या??/ मूल रूप से उसका मकसद है एक भावी व्यक्तित्व का निर्माण करना, एक बच्चे को यह समझने में सहायता करना कि वह क्या करने में सक्षम है और क्या करना चाहता है.उसकी योग्यता को पहचान कर उसे आगे के जीवन में बढ़ने में मदद करना .
और बिलकुल इसी मकसद पर चलते हैं पश्चिमी देशों के स्कूल .बच्चे को पहली क्लास से १० वीं क्लास तक वह सब कुछ सिखाया जाता है जिसकी एक सम्माननीय नागरिक को अपना जीवन जीने के लिए आवश्यकता होती है.और उसे भरपूर मौके दिए जाते हैं अपनी योग्यता को परखने के, अपनी रूचि के अनुसार आगे का पथ निर्धारित करने के.और इसीलिए इन स्कूलों से निकल कर ये बच्चे जो भी करते हैं पूरी लगन और ख़ुशी से करते हैं.और अपने विषय में पारंगत होते हैं.आखिर क्या जरुरी है जब कि कोई एक गायक बनना चाहे तो उसे ज़बरदस्ती इतिहास भूगोल पढ़ाया जाये या मुश्किल गणित के सवाल हल करने को कहा जाये.
पर नहीं हमारे यहाँ तो सब हरफनमौला होते हैं पढ़ते हैं विज्ञान और नौकरी करते हैं बेंक की.जाते हैं आर्ट कॉलेज और काम मिलता है कंप्यूटर सेंटर में.बच्चे को रूचि हो ना हो वह विज्ञान ही पढ़ेगा हाँ पर स्कूल के बाद दुनिया भर की अतिरिक्त क्लास भी करेगा.हर विषय में माहिर बनाने के चक्कर में एक ज़हीन और मेहनत कश बेचारे बच्चे की असली योग्यता पता नहीं कहाँ छिप जाती है और नतीजा होता है. वही असंतुष्टी अपने जीवन से, अपनी आत्मा से और समझौता अपने काम से और अपने फ़र्ज़ से.
उस पर तुर्रा यह कि हमारे यहाँ बहुत पढाई होती है.अभी हाल के ही भारत प्रवास में एक शिक्षक महोदय मिल गए लगे झाडने शिक्षा का बखान .”.वहां पढता ही कौन है हमारे यहाँ हर दूसरा बच्चा इंजिनियर है .और बाहर जाकर यही लोग काम करते हैं”…हाँ जी होगा जरुर. हर मोहल्ले में इंजीनियरिंग कॉलेज खुले हैं दनादन इंजिनियर गढे जा रहे हैं पर उनमें से वाकई इंजिनियर कितने बनते हैं?और कितने इंजीनियरिंग का कार्य करते हैं पढने के बाद ?कोई बैंक में होता है तो कोई कॉल सेंटर में भी.यहाँ तक कि इंजीयरिंग पढने के बाद लोग गायक, लेखक तक बन जाते हैं.कहाँ काम आई तथाकथित उच्च शिक्षा ??.अगर पश्चिमी देशों में भारत से कर्मचारी बुलाये जाते हैं तो इसका कारण यह नहीं कि यहाँ कि शिक्षा व्यवस्था खराब है, बल्कि इसका कारण है यहाँ के लोगों की मानसिकता और सामाजिक व्यवस्था जिसके तहत हर किसी का इंजिनियर और डॉक्टर बनना आवश्यक नहीं होता. प्रारम्भिक शिक्षा के बाद हर एक के सामने उसके रूचि के अनगिनत विकल्प होते हैं.और फिर जो अपनी रूचि और योग्यता से इन क्षेत्रों में जाता है वो पूरी इमानदारी से अपना कर्तव्य निभाता है.और शायद यही वजह है कि भारत थोक के भाव में आई टी प्रोफेशनल निर्यात तो करता है परन्तु एक भी बिल गेट या स्टीव जोब्स नहीं बना पाता.
हाँ ये भी सच है कि बाहर निजी संस्थानों में भारत से बहुत इंजिनियर काम करने आते हैं पर कितने लोग यहाँ आकर वही नौकरी पाते हैं ?भारत से किसी कंपनी के बल पर यहाँ पहुँच तो जाते हैं परन्तु यहाँ आकर उन्हें किन किन परिस्थितियों से गुजरना पड़ता है ये वही जानते हैं. और जो लोग नौकरी कर भी रहे हैं, तो गिरती गुणवत्ता से भारतीय कर्मचारियों की छवि लगातार गिर रही है और यही स्थिति रही तो वह दिन दूर नहीं जब इन इंजीनियरों की हालत भी किसी बंधवा मजदूर से अधिक ना होगी.आधे अधूरे और अधकचरे ज्ञान से नियुक्त ये कर्मचारी जाहिर है किसी भी मापदंडों पर खरे नहीं उतर पाते कोई कार्य समय पर पूरा नहीं होता,समय और पैसे की हानि अलग. ऐसे में इन्हें कई बार अजीब सी मानसिक यातनाओं से भी गुजरना पड़ता है .अभी हाल ही में एक उदाहरण मेरे सामने आया है .एक बहुत ही प्रतिष्ठित भारतीय कम्पनी के कुछ भारतीय कर्मचारियों ने कार्यावधि के बाद कार्य करने से इंकार कर दिया.तो दूसरे पक्ष ने उनके सामने कह दिया कि तुम भारत के रहने वाले हो तुम्हें तो चौबीस घंटे काम करना चाहिए.बात बहुत कडवी थी और अपमान जनक भी परन्तु वे कर्मचारी कड़वा घूँट पीने को मजबूर थे.क्योंकि वह कार्य अपनी कार्य अवधि से बहुत बिलम्बित पहले ही हो चुका था अत: इसे समाप्त किया जाना उनकी जिम्मेदारी थी.जो कि उन्हें भारतीय शिक्षा व्यवस्था के अंतर्गत सिखाया ही नहीं गया था. .उस कार्य के लिए वह कर्मचारी खासतौर पर प्रशिक्षित ही नहीं थे. बस काम चल रहा था.हम आज भी उसी मानसिकता में जीते हैं कि एक मुनीम का बच्चा अपने पिता के साथ गल्ले पर बैठ कर उँगलियों में लाखों का हिसाब करना सीख जाता है उसी तरह इंजिनियर तो है ही ना, देख देख कर सब कर ही लेगा. गलती उनकी भी नहीं है हमारी शिक्षा व्यवस्था उन्हें हरफनमौला जो बनाती है.. जिस उम्र में उन्हें समाज और अपने काम के प्रति जिम्मेदारी और इमानदारी सिखाई जानी चाहिए थी उस उम्र में उन्हें ए बी से डी रटाई जा रही थी.जब वक़्त उन्हें उनकी योग्यता और रूचि के अनुसार मार्ग चुनने में सहायता करने का था अब उन्हें एक फेक्ट्री से शिक्षण संस्थान में धकेल दिया गया था.
कितने भी ताने मार लें हम बाहरी शिक्षा को और कितना ही सीना फुला लें अपनी शिक्षा को लेकर. परन्तु सत्य यही है कि हमारी शिक्षा व्यवस्था पढ़ाती तो है पर शिक्षित नहीं करती. और इसके परिणाम गंभीर होते जा रहे हैं.अपने गौरवशाली अतीत की दुहाई कब तक देते रहेंगे हम ? इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय दिमाग में शायद सबसे तेज़ होते हैं और मेहनत करने में उनका जबाब नहीं परन्तु…अगर हमें पाना है फिर से वही सम्मान विश्व गुरु होने का ..तो बदलना होगा अपना रवैया और बदलनी होगी १०० साल पुरानी शिक्षा व्यवस्था.
Thursday, December 1, 2011
डिग्री ही नहीं शिक्षा भी जरुरी.
मैं जब भी भारत जाती हूँ लगभग हर जगह बातों का एक विषय जरुर निकल आता है. वैसे उसे विषय से अधिक ताना कहना ज्यादा उचित होगा. वह यह कि “अरे वहां तो स्कूलों में पढाई ही कहाँ होती है.बच्चों का भविष्य बर्बाद कर रहे हो. यहाँ देखो कितना पढ़ते हैं बच्चे”. पहले पहल उनकी इस बात पर मुझे गुस्सा आता था, मैं बहस भी करती थी और समझाने की कोशिश भी करती थी.पर अब मुझे हंसी आती है और मैं कह देती हूँ “हाँ वहां एकदम मस्ती है कुछ पढाई नहीं होती”. बात तो हालाँकि मैं हंसी में उड़ा देती हूँ परन्तु दिमाग में सवाल कुलबुलाते रहते हैं कि आखिर किस पढाई पर गर्व करते हैं हम ? किस मुगालते में रहते हैं ? और वहां से निकलना क्यों नहीं चाहते ?
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