Thursday, October 20, 2011

गट्ठे भावनाओं के

जब भी कभी होती थी
संवेदनाओं की आंच तीव्र
तो उसपर 
अंतर्मन की कढाही चढ़ा
कलछी से कुछ शब्दों को 
हिला हिला कर
भावों का हलवा सा 
बना लिया करती थी
और फिर परोस दिया करती थी
अपनों के सम्मुख
और वे भी उसे 
सराह दिया करते थे
शायद  मिठास से 
अभिभूत हो कर ,
पर अब उसी कढाही में 
वही बनाने लगती हूँ
तो ना जाने क्यों
आंच ही नहीं लगती
थक जाती हूँ 
कलछी चला चला कर
पर  लुगदी भी नहीं बनती अब
और बन जाते हैं 
गट्ठे भावनाओं के
जिन्हें किसी को  परोसने की 
हिम्मत नहीं होती मेरी
इंतज़ार में हूँ कि 
कोई झोंका आकर बढ़ा जाये
कम होती आंच को
तो इन गट्ठों  को गला कर
परोस सकूँ अपनों के समक्ष

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